अनिवार्य संस्कृत के मुकाबले पाली भाषा शिक्षा लोकतंत्र का सवाल क्यों है?
अनिवार्य संस्कृत के मुकाबले पाली भाषा शिक्षा लोकतंत्र का सवाल क्यों है?
अनिवार्य संस्कृत के मुकाबले पाली भाषा शिक्षा लोकतंत्र का सवाल क्यों है?
पलाश विश्वास
भारत में सत्ता विमर्श सीधे तौर पर रंगभेद का सौंदर्यशास्त्र है तो जाति व्यवस्था श्रीमद्भागवत के गीतोपदेश या मनुस्मृतिविधान ही नहीं है, यह सीधे तौर पर रंगभेद है।
भारत में बिखराव, असहिष्णुता, तनाव, अलगाव, असंतोष, विभाजन के कारण जाति भेद जरुर नजर आते हैं लेकिन जातियों का यह गणित कुल मिलाकर विशुध रंगभेद है।
समाज के जातियों में बंट जाने की वजह से नस्ली विखंडन का शिकार होकर देशी नस्ल दीगर विदेशी नस्ल की गुलाम बन जाती है और उसे इस नस्ली वर्चस्व का अहसास अपनी जाति की पहचान में कैद हो जाने की वजह से कभी नहीं होता।
गौरतलब है कि मनुस्मृति और गीतोपदेश दोनों के मुताबिक जाति व्यवस्था देशी नस्ल पर ही लागू है जबकि विदेशी विजेता नस्ल विशुध वर्ण है। सुसंस्कृत।
जाति उन्मूलन की लड़ाई इसीलिए रंगभेद के खिलाफ लड़ाई है।
चूंकि सत्तातंत्र पुरोहिती रंगभेद है और पुरोहिती भाषा देवभाषा संस्कृत है तो अनिवार्य संस्कृत के हिंदुत्व के एजेंडे के मुकाबले के लिए एकदम जमीनी स्तर पर पाली भाषा की शिक्षा फौरी जरुरत है। इसके बिना समता और न्याय के लक्ष्य असंभव है।
इस मुक्तबाजारी नरसंहारी रंगभेद की अनिवार्य देवभाषा के पुरोहिततांत्रिक वर्चस्व के विरुद्ध तथागत गौतम बुद्ध के धम्म की लोक भाषा पाली की शिक्षा अनिवार्य है।
बोधगया धम्म संदेश में पाली की शिक्षा का एजेंडा भी शामिल है।
जन्म जन्मांतर, पाप पुण्य, कर्म फल, धर्म कर्म का सारा फंडा देवभाषा के पुरोहिती मिथक और तिलिस्म हैं जो देवभाषा संस्कृत में लिखे धर्मग्रंथों के मार्फत वैदिकी साहित्य के नाम विशुद्ध रंगभेद का कारोबार है।
इसी वैदिकी विशुद्ध रंगभेद का मुकाबला तथागत गौतम बुद्ध ने लोकभाषा पाली में धम्म प्रवर्तन से करके समता और न्याय के आधार पर समाज और राष्ट्र का पुनर्निर्माण मानव कल्याण और बहुजन हिताय की सर्वोच्च प्राथमिकता की सम्यक दृष्टि और प्रज्ञा से किया। संस्कृतभाषी देवमंडल के सत्ता आधिपात्य के खिलाफ हुई इस जनक्रांति की जनभाषा चूंकि पाली है तो आज पाली हमारी भाषा होनी चाहिए।
तथागत गौतम बुद्ध की यह धम्मक्रांति बोधिसत्व बाबासाहेब डॉ.भीमराव अंबेडकर मुताबिक न जीवन शैली है और न आस्था या उपासना पद्धति। यह सामाजिक क्रांति है और इसी सामाजिक क्रांति, समता और न्याय के लक्ष्य के साथ उनके रचे भारतीय संविधान की प्रस्तावना में फिर वही तथागत गौतम बुद्ध का धम्म है।
शुरू से हमारी दिलचस्पी भाषा और साहित्य में रही है और हम बाकी सारी चीजें छोड़ते चले गये एक के बाद एक।
इतिहास, भूगोल और अर्थशास्त्र को शुरु में नजरअंदाज किया तो विज्ञान और गणित से भी नाता टूट गया।
माध्यमों और विधाओं को साधने की कोशिश में जिंदगी बिता दी और अब लगता है कि हम भाषा और साहित्य भी समझ नहीं सके हैं, सीखने की बात रही दूर।
क्योंकि हम संस्कृत की कोख से निकले रंगभेदी सौंदर्यबोध और वर्चस्ववादी व्याकरण की शुद्धता के मुताबिक माध्यमों और विधाओं में यूं ही भटकते रहे हैं। लोक, बोलियों, जन और गण की जड़ों में पैठे बिना साहित्य और भाषा का पाठ अाधा अधूरा है। अप्रासंगिक।
इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, विज्ञान और गणित पर भी शास्त्रीय पुरोहिती वर्चस्व विश्वव्यापी है और सत्ता विमर्श की भाषाओं संस्कृत, ग्रीक, लैटिन और हिब्रू का ही विश्वभर में तमाम भाषाओं, बोलियों, विषयों, माध्यमों और विधाओं पर रंगभेदी वर्चस्व है। विशुद्धता का यह रंगभेद मुक्तबाजार का विज्ञान और हथियार दोनों है तो अंध राष्ट्रवाद का मनुष्यविरोधी प्रकृतिविरोधी फासिज्म भी।
पश्चिमी भाषाओं के तमाम प्रतिमान और मिथक ग्रीक और लातिन कुलीनत्व है तो जायनी विश्वव्यवस्था और मनुष्यताविरोधी प्रकृतिविरोधी युद्धतंत्र की भाषा हिब्रू है तो विशुद्ध रंगभेद की देवभाषा संस्कृत है।
ये चारों भाषाएं पुरोहिती वर्चस्व की क्रमकांडी भाषाएं हैं और इन्ही में मर खप गयी हैं दुनियाभर की बोलियां, लोकभाषाएं और इन्हीं की कोख से जनमती रही है अंग्रेजी, फ्रेंच, पुर्तगीज, स्पेनिश, खड़ी बोली जैसी सत्ता विमर्श की भाषाएं।
इसी रंगभेद में दफन है जनता का इतिहास और जनता की विरासत, मोहनजोदड़ो हड़प्पा से लेकर तथागत गौतम बुद्ध का धम्म भी।
भारत ही नहीं, दुनिया भर में इतिहास की निरंतरता से जुड़ने के लिए द्रविड़ भाषा तमिल जानना अनिवार्य है तो जन, गण और लोक की गहराइयों में पैठने के लिए पाली जानना अनिवार्य है और हम ये दोनों भाषाएं नहीं जानते तो समझ लीजिये कि हम बुड़बकै हैं।
पहले पाली की बात करें तो ढाई हजार साल पहले किसी राजकुमार सिद्धार्थ ने शाक्य गण की लोकपरंपरा के तहत विवाद में पराजित होने के बाद स्वेच्छा से राजमहल छोड़कर बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद जो धम्मचक्र प्रवर्तन किया, उसके तहत वे न ईश्वर थे और न पुरोहित और उनकी भाषा जनता की बोली पाली थी, जो वैदिकी सत्ता की भाषा संस्कृत के वर्चस्व के खिलाफ सीधे जनपदों के अंतःस्थलों में जन जन के जुबान की भाषा थी।
तथागत गौतम बुद्ध ज्ञान विज्ञान की बात कर रहे थे जनभाषा पाली में, जिसे हम धम्म कहते हैं।
उनके देशना सत्य की खोज के लिए मार्गदर्शन हैं जो पाली में दिये गये।
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की द्रविड़ सभ्यता की भाषा तमिल और द्रविड़ समुदायों और भाषाओं के दक्षिण भारत से गायपट्टी, पूर्व और पूर्वोत्तर के अछूत अनार्यों के अलगाव और पाली के अवक्षय के कारण ही देवभाषा और देवमंडल का यह सर्वव्यापी वर्चस्व है।
भारतीय भाषाओं के अपभ्रंश से विकसित होने तक पाली जनता की बोली थी तो बुद्धमय भारत में धम्म और राजकाज की भाषा पाली थी, जिसमें पाल वंश के बंगाल में पतन होने तक शूद्र और अस्पृश्य जनता का साहित्य और इतिहास, रोजनामचा, जिंदगीनामा था।
कर्मकांड की भाषा संस्कृत न राजभाषा थी और न जनता की बोली।
सातवीं से लेकर ग्यारहवीं सदी का इतिहास तम युग क्यों कहलाता है और उस तम युग में पाली भाषा और बुद्धमय भारत का अवसान क्यों है, इसपर शोध जरूरी है।
वैदिकी संस्कृति और वैदिकी राजकाज की देवभाषा संस्कृत अब मुक्तबाजार का अनिवार्य उत्तर आधुनिक पाठ है तो धर्म और कर्म भी है- जबकि बुद्धमय भारत की राजभाषा, धम्म की भाषा और लोकभाषा पाली की विरासत सिरे से लापता है और उसका इतिहास और साहित्य भी उसीतरह लापता है जैसे मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की नगर सभ्यता का साहित्य, उनकी भाषा और उनका इतिहास।
हम आपको बार-बार याद दिलाते हैं कि भारत का विभाजन दो राष्ट्रों के सिद्धांत के बहाने मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की विरासत का विभाजन है।
इसे समझने के लिए रंगभेद के भूगोल को समझना बेहद जरूरी है और रंगभेदी वर्चस्व की देवभाषाओं संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, हिब्रू और उनके महाकाव्यों, मिथकों, इतिहास, पवित्र ग्रंथों, देवदेवियों के साझा भूगोल और इतिहास को समझने की जरुरत है जो यूरेशिया में केंद्रित है और पाषाणयुग से ताम्रयुग तक मनुष्यता की विकासयात्रा के दरम्यान यही सनातन आर्य संस्कृति ने अपने सौंदर्यबोध, विशुद्धता और व्याकरण से दुनियाभर की दूसरी नस्लों को उनकी जमीन, विरासत, भाषा और पहचान से बेदखल किया है।
द्रविड़ अनार्य भूगोल सिर्फ पूर्वी भारत या दक्षिण भारत या दंडकारण्य नहीं है, इस अश्वेत अशुद्ध अनार्य भूगोल में एशिया के अलावा अफ्रीका और लातिन अमेरिका और अमेरिका तो है ही बल्कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की नगर सभ्यता के विध्वंस से पहले मध्य एशिया और यूरोप से भी द्रविड़ों और अनार्यों की बेदखली से शुरु हुई यह वैदिकी सभ्यता और बाल्टिक सागऱ पार फिन लैंड से लेकर सोवियत साइबेरिया और पश्चिम एशिया में भी बिखरे हैं फिन अनार्य द्रविड़, जो हमारी तरह अश्वेत भी नहीं है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने मध्यएशिय़ा के इतिहास में पित्तलयुग अध्याय में पेज नंबर 63 मे लिखा हैः
ताम्रयुग में अनौ और ख्वारेज्म से सप्तनद तक मुंडा द्रविड़ जाति की प्रधानता थी। पित्तलयुग में आर्यों और शकों के पूर्वज सारे उत्तरापथ और दक्षिणापथ में फैले। मुस्तेर और मध्य पाषाणयुगीन मानव केसंबंध में हम निश्चय पूर्वक कुछ नहीं कह सकते। मध्य पाषाणयुगीन मानव, हो सकता है, नव पाषाणयुग के मुंडा द्रविड़ के ही पूर्वज हों, जो कि नव पाषाणयुग के प्रारंभ में ही यूरोप की ओर भागने के लिए मजबूर हुए। ऐसी अवस्था में मुंडा द्रविड़ वंश के लोग भूमध्यीय वंश के होने के कारण दक्षिण या दक्षिण पूुर्व से मध्य एशिया में घुसे होंगे। पित्तलयुग में मध्यएशिया खाली करके जाने वाले हिंदू यूरोपीय वंश की एक शाखा को फिर हम उनके पूर्वजों की भूमि में लौटते देखते हैं। ये ही शकों और आर्यों के जनक थे। इनके आने के बाद मुंडा द्रविड़ लोगों का क्याहुआ, शायद वहां भी वही इतिहास पहले ही दोहरा दिया गया , जो कि भारत में पीछे हुआ, अर्थात कुथ मुंडा द्रविड़ पराधीन होकर वहीं रह गये और विजेताओं ने उन्हें आत्मसात कर लिया। कुछ लोगों ने पराधीनता स्वीकार न करके खाली पड़ी हुई जमीन पर आगे खिसक गये।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने मध्यएशिय़ा के इतिहास में पित्तलयुग अध्याय में लिखा हैः
अल्ताई से सिङक्याङ तक फैले मुंडा द्रविड़ जातियों के इन्ही भागे हुए अवशेषों को आज हम वोल्गा के उत्तर वनखंडों में रहने वाली कोमी और बाल्टिक के पूर्वी तट परबसनेवाली एस्तोनी और फिनलैंड में बसनेवाली फिन जाति के रुप में पाते हैं। किसी समय मास्को और लेनिनग्राद का सारा भूभाग उसी जाति का था, जिसकी शाखाएं वर्तमान कोमी , एस्तोनी और फिन हैं। फिन भाषा का द्रविड़ भाषा से संबंध भी इसी बात की पुष्टि करता है कि शकार्यों और द्रविड़ों के संघर्ष के परिणामस्वरुप उनका एक भाग जो उत्तर की ओर भागा, वही फिन जाति है। इस प्रकार, मुंडा द्रविड़ कहने की जगह हम नवपाषाणयुग की मध्यएशियाई प्राचीन जाति को फिनो द्रविड़ कह सकते हैं।
गौरतलब है महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने फिनो द्रविड़ नृतत्व पर यह अध्ययन भारत की आजादी से पहले कर लिया था और इस अध्ययन के लिए उनके स्रोत ग्रंथ पश्चिमी देशों के साथ साथ सोवियत नृतत्वेत्ताओं के लिखे ग्रंथ भी थे।


