हरिशंकर शाही

अन्ना हजारे के आंदोलन के कई समर्थक हैं. यह समर्थक अन्ना के आंदोलन को समर्थन देने के साथ-साथ अन्ना के आंदोलन के सम्बन्ध में किया जा रहे किसी भी सवाल या विचारक वाद-विवाद को रोकने के लिए भी तत्पर हो गए हैं. कहीं किसी भी मंच पर अगर चाहें वह फेसबुक, ब्लॉग या किसी भी वेबसाईट जैसे वर्चुअल मंच हो या गाली कूचे पर अन्ना के आंदोलन के विरुद्ध कोई भी लोकतांत्रिक टिपण्णी होते ही अन्नावादियों का पूरा हुजूम व्यक्तिगत गाली गलौज पर उतर आता है. अन्ना के आंदोलन जिसके उद्देश्य क्या हैं इसी पर संशय बरकरार है. पहला सवाल ही यही उठता है कि अन्ना अपने एनजीओ वाले मित्रों के लोकपाल को असंसदीय और अलोकतान्त्रिक तरीके से देश पर थोपना चाहते हैं. क्योंकि कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संवैधानिक व्यवस्था में संसद के पास होता है. तो यह आंदोलन देश विरोधी है या देश हित में यह एक सवाल उठता है. जब इस आंदोलन पर इतना बड़ा सवाल खड़ा है. तब कैसे कोई कह सकता है कि अन्ना का आन्दोलन लोकतान्त्रिक है.

अन्ना हजारे लोकतांत्रिक भारत देश में अनशन कर रहें हैं. इस अनशन के लिए जगह और अनुमति ना देने को लेकर सरकार पर छींटाकशी हो रही है. कोई इसे लोकतंत्र के विरोधी बता रहा है, तो कोई कुछ और कह रहा है. हर और लोकतंत्र की दुहाई अन्ना के समर्थक दे रहे हैं. लोकतंत्र का सबसे बुनियादी हक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या अपनी बात कहने का हक होता है. इसी हक के तहत आंदोलन वगैरह भी किये जाते हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जरिये ही हम किसी भी ऐसे मुद्दे या आंदोलन पर भी सवाल कर सकते हैं जो जन आंदोलन की शक्ल में किया जा रहा हो. इस प्रकार के सवालों को लोकतंत्र में आवश्यक माना जाता है. परन्तु तानाशाही में इस प्रकार के प्रश्नोत्तर अवैध या अराजक होते हैं. इसी प्रकार तानाशाही अराजकता की तरह अन्नावादियों जो आतंकवादियों की तरह ही वैचारिक आतंक फैलाने में जुटे गए, अन्ना के आंदोलन पर सवाल करने वालों को यह लोग हर तरीके से समूह में डराने में जुटे हैं.

अन्ना के आंदोलन के निहितार्थ जानने की चेष्टा या कोई वैचारिक बात रखने पर सबसे पहले सवाल करने वाले को भ्रष्ट और कांग्रेस का चमचा घोषित कर दिया जाता है. कुछ लोग तो और बढ़कर कहते हैं की “जो अन्ना के साथ नहीं हैं वह भाड़ में जाएँ”. इस तरह कि स्वम्भू आताताई टिपण्णी करके यह अन्नावादी क्या साबित करना चाहते हैं कि हर कोई उनके साथ है, और जो नहीं है उसे हम कुचल देंगे. गांधी और गांधीवाद से तुलना करके खुश होने वाले अन्नाई, अपने द्वारा लोगो पर लगाये जा रहे वैचारिक प्रतिबंधो को किस श्रेणी में रखेंगे. क्या यह हिंसा नहीं है? कोई व्यक्ति आवाज़ ना उठा सके क्या यह तानाशाह प्रकार का तांडव नहीं है.

पिछले दो दिन से देश के हर न्यूज़ चैनल पर अन्ना और उनके आंदोलन को लेकर कवरेज की ऐसी होड मची है कि अब टीवी देखने का मन ही नहीं कर रहा है. न्यूज़ चैनलों के लिए क्या देश में बलात्कार बंद हो गए जिसको लेकर कुछ दिन पहले तक वह होड मचाये हुए थे.देश में किसी जगह कोई हत्या नहीं हो रही है. हर चैनल के अन्ना-अन्ना ऐसा परोस रहा है जैसे पत्रकार ना होकर अन्ना के पीआर एजेंट हो गए हैं. अगर अन्ना के द्वारा देश में अपना कानून लाये जाने पर न्यूज़ चैनल इतना सपोर्ट कर रहें हैं तो क्यों नहीं मणिपुर की इरोम शर्मीला चानू के आंदोलन को सपोर्ट करते हैं. समाचार दिखाने का दावा करने वाले चैनल अब समर्थक की भूमिका में आ चुके हैं. वह देश में अन्नाई को इतना भड़का रहें हैं कि वह लोग अपने आप को हर तंत्र और हर प्रश्न से ऊपर मानने लगे हैं. हर बात का जवाब अन्ना अन्ना करके देते हैं. सरकार को भ्रष्ट कहते हैं परन्तु जब इन चैनलों से पूछा जाए की किस आधार यह अपने स्ट्रिंगरो की नियुक्ति करते हैं. स्ट्रिंगरो को सैलरी नहीं मिलती कैमरा नहीं दिया जाता है. यह सब कुछ स्ट्रिंगर खुद इक्कट्ठा करता है और बाद में इसी के सहारे वसूली करता है और चैनल के बड़े पदों की मस्का पालिश करता है. जब चैनल खुद ही वसूली और भ्रष्टाचार को पैदा कर रहें है तो किस मुहँ से लोगो को राय दे रहे हैं कि सरकार भ्रष्ट है और अन्ना सही.

इलेक्ट्रोनिक मीडिया को अब संदेहास्पद नज़र से देखता हूँ और इस अन्नावाद के बाद तो न्यूज़ चैनल शायद ही देखने की हिम्मत हो. हाँ प्रिंट मीडिया जिसे नवदलाल पुराना माध्यम कहते हैं उसने ही पत्रकारिता की साख बरक़रार रही है. अखबार में ही दोनों पक्षों की जानकारी मिल जाती है. अखबार ही हैं जहां पत्रकार और विचारक अन्ना के पक्ष में और विपक्ष में दोनों तरफ के विचार रखते हैं. फिर यह दारोमदार पाठकों पर होता है कि वह किस ओर जाना चाहते हैं. पत्रकारिता अगर जीवित है तो प्रिंट में ही जीवित है और इस बात के लिए प्रिंट मीडिया बधाई की पात्र है.

अन्नावादियों ने इस तरह से विचारों का कर्फ्यू लगाना शुरू कर दिया है कि जैसे अब इस लोकतंत्र पर अन्ना ही हावी होने जा रहें हैं. मौलिक अधिकारों का हनन यह अन्नावादी बहुत खूब कर रहे हैं. इन अन्न्वादियों के भींड में वही तत्व नज़र आ रहें हैं जो भ्रष्टाचार का खुद ही पोषण करते हैं. जिलों में जहां कमीशन देकर ठेका लेने वाले ठेकेदार अन्ना का झंडा थामे हैं. वहीं व्यापार कर से लेकर आयकर तक की चोरी करने करने वाले बड़े सेठ और अधिकारी राजधानियों में अन्ना का झंडा उठाये हैं. अन्नावाद के इस जुलुस में समाज का वही तत्व दिख रहा है, जो राजनीति और पत्रकारिता में सिर्फ अधिकारियों पर दबाव बनाकर अपना काम कराने की जुगत में होता है. जिस तरह के अन्ना वाले तत्व है वह उसी तरह का काम भी कर रहें हैं हर विचार और हर तर्क को यह लोग अन्ना की महानता बखानते हुए रोकना चाहते हैं.

अन्नाई या वैचारिक आतंक का पर्याय बन चुके अन्नावादियों ने एक डर का माहौल पैदा कर दिया है. अन्ना के आंदोलन जिसमे संसद को धता बता हुए अपना क़ानून मनवाना मुख्य उद्देश्य है उसके प्रति किसी भी देशवासी की टिप्पणी इन्हें बर्दाश्त नहीं. अन्ना के अन्नाई देश में एक ऐसा आतंकी माहौल बनाना चाहते हैं जैसे तानाशाहों ने अपने ज़माने में किया. अन्ना का आंदोलन अगर सफल हो गया तब के दौर में अन्नाई के वैचारिक दंगों की कल्पना से ही मन काँप जाता है. अन्ना के समर्थकों आपके अन्नाई वैचारिक आतंकवाद से डर लगता है. अन्ना कृपया इन्हें समझाएं की हम भी देशवासी हैं हमें ना डराएं. समझ नहीं आता यह कौन हैं अन्ना के समर्थक या अन्नाई वैचारिक आतंकवादी.