हम “माणिक सरकार” के बारे में बात क्यों नहीं करते ?

केजरीवाल झोलाछाप डाक्टर की तरह है जो टीवी पर प्रचारित दवाओं के सहारे अपनी रोटी रोज़ी का जुगाड़ कर रहा है...

दिल्ली विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की हार (Congress defeat in Delhi Legislative Assembly election) भाजपा की इन्कार के कारण 'आप' की सरकार का बनना ऐसा घटनाक्रम है जिसने भारतीय राजनीति में कुछ वांछित और कुछ अवांछित परिवर्तन लाये हैं। इस परिवर्तन के लिए न भाजपा और न ही कांग्रेस पार्टी मानसिक तौर पर तैयार थी। दोनों ने इसे एक राजनीतिक प्रयोग मानकर इसके परिणाम की उत्त्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा की रणनीति अपनाई। उन्हें भी उम्मीद नहीं थी कि सरकार बनाने की जिम्मेवारी निभानी पड़ेगी।

प्रधानमन्त्री पद के दावेदार उम्मीदवारों में राहुल गान्धी और नरेन्द्र मोदी के साथ तीसरा दावेदार केजरीवाल बन गया। सोलहवें संसदीय चुनाव में एक परिवर्तन यह दिख रहा है कि बदजुबानी के दौर में भ्रष्टाचार और मंहगाई की बात भी जनता के मुद्दे के तौर पर की जाने लगी है।

राजनीति के इस तीसरे सवार के पास जनता की तकलीफों का कच्चा चिट्ठा तो है लेकिन उन तकलीफों से मुक्ति पाने का इल्म नहीं है। हैरानी इस बात ही है कि जो लोग इस बीमारी के बारे में जानते हैं और उससे निजात पाने के रास्ते भी सुझाते हैं उन्हें हमारा मीडिया घास नहीं डाल रहा। केजरीवाल झोलाछाप डाक्टर की तरह है जो टीवी पर प्रचारित दवाओं के सहारे अपनी रोटी रोज़ी का जुगाड़ कर रहा है। सिरदर्द के लिए अनासिन लो और पेट गड़बड़ाये तो पुदीन हरा गटक लो सब ठीक हो जायेगा वाली डाक्टरी की तरह आप की राजनीति है।

केजरीवाल ईमानदार पूंजीवाद की वकालत करते हैं जबकि पूंजीपति को ईमानदारी से परहेज़ है। उन्हें ईमानदारी सिखाने वाली सरकार अखरती है। वे सरकार को अपने कामकाज से दूर रखने की हिमायत करते हैं। पूंजीवाद का नारा है कि सरकार को व्यापार नहीं करना चाहिए इसलिए वे सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को सरकार की आमदनी पर अनावश्यक बोझ बताते हैं।

क्या केजरीवाल बतायेंगे कि अम्बानी के बजाये किसी दूसरे सरमायादार को गैस का कारोबार सौम्प देने से भ्रष्टाचार मिट जायेगा ?

अन्ना हज़ारे के आन्दोलन के समय से ही केजरीवाल बदलाव का राग अलाप रहे हैं। इतना बदलाव ज़रूर आया कि अब पार्टी बनाकर राजनीति कर रहे हैं। पहले पार्टीविहीन राजनीति के समर्थक थे। इतना तो समझ गये कि बदलाव के लिए संगठन की ज़रूरत होती है। पर संगठन के लिए जिस निष्ठा और त्याग की ज़रूरत पड़ती है उसे सीखने के लिए केजरीवाल को माणिक सरकार से दीक्षा लेनी पड़ेगी।

माणिक सरकार इस समय देश का सबसे अधिक आकर्षक राजनीतिक चेहरा है। मोदी के विकास मॉडल के साथ माणिक विकास मॉडल की तुलना कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हो सकती है।

विकास का मोदी मॉडल विकास दर के आंकड़े पर टिका है। लेकिन इसके कई आंकड़े रिकॉर्ड के मुताबिक वैसे नहीं मिलते जैसे घोषित किये जाते हैं। बेरोज़गारी के मामले में यह प्रचारित किया जाता है कि गुजरात में सबसे ज़्यादा लोगों को नौकरियां दी गई हैं जबकि सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2004 से 2011 के बीच पूरे देश में 58.7 लाख लोगों को निर्माणक्षेत्र मैन्यूफैक्चरिंग सैक्टर में रोज़गार दिया गया जिसमें 24 रोज़गार अकेले पश्चिमी बंगाल में दिये गये और गुजरात में 14.9 लाख लोगों को लाभ पंहुचा। यहां ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि 2004 से 2011 तक पश्चिमी बंगाल में वाम मोर्चा की सरकार सत्तासीन थी।

गुजरात मोदी के आने से पहले ही सम्पन्न प्रदेश रहा है। इसके पास बंजर ही सही लेकिन हज़ारों एकड़ ज़मीन फालतू पड़ी है। गुजरात की भूसंरचना विकास के अनुकूल है क्योंकि वह मैदानी इलाका है। इसकी तुलना में त्रिपुरा गरीब और पिछड़ा हुआ राज्य था। सामंतवादी दमन और उत्पीड़न के औजार के तौर पर जनजाति और बंगाल के भद्रपुरुष समाज के बीच हिंसा और वैमनस्य के कारण सर्वसमावेशी विकास की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। इसीलिए जब माणिक सरकार ने मुख्यमन्त्री का पद सम्भाला तो उससमय त्रिपुरा को अशांत राज्य माना जाता था। लेकिन माणिक दा की अपनी विचारधारा में अडिग निष्ठा का परिणाम है कि उन्होंने अशांत कहलाने वाले राज्य को विकास का अनुकरणीय मॉडल बना दिया। इसके विपरीत नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमन्त्री बने तो बाद गोधराकाण्ड और फिर गुजरात के नर संहार से वह शांतिप्रिय राज्य अशांत राज्य में बदल गया। इसे तत्कालीन प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राजधर्म के निर्वहन में चूक माना था। राजधर्म यानि लोकतान्त्रिक सुशासन।

विकास के त्रिपुरा मॉडल की तुलना करने के लिए मानव विकास सूचकांक को मानदंड माना जाता है। मानवजीवन की गुणवत्ता मापने के लिए बुनियादी सुविधाओं में शिक्षा स्वास्थ्य और प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल में सामान्य जन की हिस्सेदारी महत्त्वपूर्ण कारक माने जाते हैं। अपने प्राकृतिक संसाधनों के सामाजीकरण की दृष्टि से त्रिपुरा की प्रगति अन्य कई राज्यों के लिए ईष्र्या का विषय हो सकती हैं। पहाड़ी राज्य होने के कारण वहां विकास की गति में आने वाली कठिनाइयों मैदानी राज्यों की अपेक्षा कुछ ज़्यादा ही होती हैं लेकिन इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र संघ की 2011 की मानव विकास सम्बधी रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि देश के सबसे छोटे राज्य का मानव विकास सूचकांक गुजरात जैसे समृद्ध कहलाने वाले राज्यों से बेहतर है। एक अन्य आकलन के मुताबिक त्रिपुरा जल्द ही ऊर्जासमृद्ध राज्य बनने वाला है। वहां भी जलविद्यृत परियोजनाओं पर काम हो रहा है लेकिन वहां कारपोरेट कम्पनियों द्वारा जनता की सम्पत्ति को नुकसान पंहुचाये बगैर सारे काम श्रम और पर्यावरण सम्बन्धी कानूनों का पालन करते हुए विकास का जनपथ तैयार किया जा रहा है। इसकी तुलना भाजपा शासित छतीसगढ़ में आदिवासी आबादी कारपोरेट शोषण के साथ साथ राज्य संचालित हिंसा और दमन की शिकार हो कर वोट के बजाये बुलेट का सहारा लेने पर मज़बूर हो रही है।

त्रिपुरा में श्रम कानूनों का सख्ती से पालन किया जाता है इसलिए निजी कम्पनियों को शोषण की इज़ाज़त नहीं है। क्योंकि वहां पर अफसर और राजनेता घूस लेने के लिए स्वतन्त्र नहीं है इसलिए निजी कम्पनियों को काम करने में कोई रूकावट नहीं आ रही। सुशासन का जितना शोर गुजरात के मुख्यमन्त्री अपने चुनाव प्रचार के माध्यम से मचा रहे हैं उससे कहीं ज़्यादा और दिखाई देने वाला सुशासन त्रिपुरा में है लेकिन हमारा मीडिया है कि उसे देखकर भी दिखाना नहीं चाहता।

मुलायम सिंह यादव ने सुशासन के बारे नरेन्द्र मोदी से एक सवाल पूछा था कि वे यह बतायें कि क्या उनके राज्य में दवाई और पढ़ाई मुफ्त है? आज तक नरेन्द्र मोदी या उसके समर्थक पार्टी प्रवक्ता इस सीधे सादे सवाल का कोई जवाब नहीं दे पाये हैं।

त्रिपुरा के दुगर्म क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएँ पंहुचाने के लिए त्रिपुरा सरकार ने सरकारी मैडिकल कालेज में प्रशिक्षित डाक्टरों को राज्य के पिछड़े इलाकों में एक निश्चित समय सीमा में सेवाएं देने का नियम बनाया है। इससे राज्य के दुगर्म स्थानों पर भी प्रशिक्षित युवा डाक्टर अपनी सेवाएं सहर्ष प्रदान कर रहे है। यह सब उस नेता का काम है जिसे यह गुमान नहीं कि भगवान ने उसे यह काम सौंपा है।

सुन्दर लोहिया

सुन्दर लोहिया, लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। आपने वर्ष 2013 में अपने जीवन के 80 वर्ष पूर्ण किए हैं। इनका न केवल साहित्य और संस्कृति के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है बल्कि वे सामाजिक जीवन में भी इस उम्र में सक्रिय रहते हुए समाज सेवा के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी काम कर रहे हैं। अपने जीवन के 80 वर्ष पार करने के उपरान्त भी साहित्य और संस्कृति के साथ सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भूमिकाएं निभा रहे हैं। हस्तक्षेप.कॉम के सम्मानित स्तंभकार हैं।