मुंबई में सीबीआई की विशेष अदालत ने हाल ही में सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति फर्जी मुठभेड़ मामले में गुजरात के पूर्व गृह मंत्री और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ सभी आरोप खारिज कर दिए। यह आरोप महज इसलिए खारिज हो गए, कि सीबीआई ने शाह के खिलाफ सही पैरवी नहीं की। जिन लोगों ने भी अदालत की ये कार्यवाही देखी है, उनका कहना है कि सीबीआई की ओर से दाखिल आरोपपत्र और अदालत के समक्ष की गई बहस में बहुत बड़ा फर्क था। मामले की जब कार्यवाही शुरू हुई, तो बचाव पक्ष के वकील ने अमित शाह के पक्ष में तीन दिनों तक जोरदार बहस की, जबकि सीबीआई के वकील अदालत में इसके खिलाफ सिर्फ पंद्रह मिनट ही अपनी आधी-अधूरी दलील रख पाए। पूरे मामले में जिस तरह से सीबीआई ने अपना रुख बदला है, इससे अहसास होता है कि कहीं न कहीं उस पर किसी का दवाब है। दवाब में आकर ही उसने अदालत में अपने हथियार डाले हैं। वरना, इस मामले में फैसला कुछ और ही होता।
गौरतलब है कि सीबीआई की विशेष अदालत में अमित शाह के खिलाफ जो मामला चल रहा था, उसमें सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में शाह पर हत्या, हत्या की साजिश, आपराधिक षडयंत्र, अपहरण, जबरन वसूली, बंधक बनाने और सबूतों को नष्ट करने जैसे कई संगीन इल्जाम लगाए थे। सीबीआई की चार्जशीट में कुल मिलाकर 15 आरोपी थे, जिसमें मुख्य आरोपी के तौर पर अमित शाह का नाम शामिल था। सीबीआई की तीन हजार पन्नों की लंबी चार्जशीट के मुताबिक, अमित शाह ने सोहराबुद्दीन को मारने का काम गुजरात पुलिस के तत्कालीन अफसर उप महानिरीक्षक (सीमा क्षेत्र) डी.जी. बंजारा, खुफिया विभाग के पुलिस अधीक्षक राजकुमार पांडियन और अहमदाबाद क्राईम ब्रांच के तत्कालीन प्रमुख अभय चूडास्मा को सौंपा था। पुलिस अफसरों से पूछ-ताछ और मोबाईल फोन रिकॉर्ड की बिना पर सीबीआई इस नतीजे पर पहुंची थी कि फर्जी मुठभेड़ में शामिल पुलिस अफसर घटना के दौरान, घटना के पहले और उसके फौरन बाद भी शाह से लगातार संपर्क बनाए हुए थे। सीबीआई का मानना था कि फर्जी मुठभेड़ का नाटक उन्हीं के इशारे पर अंजाम दिया गया। इस मामले में अमित शाह की जुलाई, 2010 में गिरफ्तारी भी हुई थी। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सीबीआई ने 9 मार्च 2011 को जस्टिस पी. सदाशिवम और जस्टिस बीएस चैहान की बेंच के सामने अमित शाह के बारे में यहां तक कहा था कि शाह गुजरात में राजनीति, पुलिस और अपराधी के गठजोड़ से जबरन वसूली और धमकी देने का रैकेट चलाता है।
बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अमित शाह को तीन महीने बाद इस शर्त के साथ जमानत दे दी थी कि वे गुजरात में प्रवेश नहीं करेंगे। मामले में आगे भी कई मोड़ आए। सीबीआई के इस अनुरोध पर कि गुजरात में इस मामले की निष्पक्ष सुनवाई नहीं हो सकती, सुप्रीम कोर्ट ने यह मामला सितंबर, 2012 में मुंबई स्थानांतरित कर दिया। सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति फर्जी मुठभेड़ मामले के अहम आरोपी अमित शाह के खिलाफ सीबीआई का रुख, दरअसल रातों-रात नहीं बदला बल्कि इसके पीछे राजग सरकार की लंबी तैयारी है। केन्द्र की सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह दोंनो ने मिलकर सीबीआई को अपने वश में करने के लिए गोटियां चलनी शुरू कर दी थीं। जैसा कि सब जानते हैं, जब इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई ट्रांसफर किया, तब से ही इसे सीबीआई के स्पेशल जज जस्टिस जेटी उत्पात देख रहे थे। जस्टिस जेटी उत्पात अपने काम में ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं। मामले की सुनवाई के दौरान उन्होंने कई बार अमित शाह और उनके वकीलों को सुनवाई से गायब रहने पर गंभीर चेतावनियां दी थीं। जाहिर है सबसे पहले वही निशाने पर आए। यकायक जस्टिस उत्पात का तबादला कर दिया गया। जब उनके तबादले पर सवाल उठे, तो तबादले को रूटीन बताया गया। फिर बारी आई, इस मामले से जुड़े सीबीआई अधिकारियों की। सीबीआई के स्पेशल प्रॉसिक्युटर एजाज खान और इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर संदीप तमगाड़े जो इस मामले में शुरू से ही जुड़े हुए थे और इसके तमाम पहलुओं को अच्छी तरह से जानते-समझते थे, उनका भी अचानक तबादला कर दिया गया। एजाज खान को मध्य प्रदेश में प्रमोशन के साथ ट्रांसफर कर दिया गया, तो इसी तरह से संदीप तमगाड़े को भी किनारे कर दिया गया। नए स्पेशल प्रॉसिक्युटर पीवी राजू ने अदालत में सीबीआई की तरफ से जब अपना पक्ष रखा, तो मालूम चला कि वे यहां क्यों लाए गए थे ? अमित शाह के खिलाफ तमाम पुख्ता सबूत होने के बाद भी, अदालत में उन्होंने अपनी बात सिर्फ पैंतालिस मिनिट में ही खत्म कर दी।
यहां यह बात समझना जरूरी है कि शुरू में ये दो अलग-अलग मामले थे। एक, सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामला और दूसरा तुलसी राम प्रजापति फर्जी मुठभेड़ मामला। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में एक सुनवाई के दौरान दोनों मामलों को एक कर दिया था, इसलिए जो सबूत एक मामले में दिखाए गए, वही दूसरे में भी मामले को आगे बढ़ाने का आधार बने। सोहराबुद्दीन मामले में अदालत ने माना कि तुलसी राम प्रजापति का बयान पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि तुलसी ने कुछ लोगों को कहा था, जिन्होंने आगे आकर सीबीआई के आगे बयान दिए थे कि किस तरह अमित शाह न सिर्फ फर्जी मुठभेड़ में शामिल थे, बल्कि पुलिसवालों द्वारा उगाही गई रकम भी अमित शाह तक पहुंचाई जाती थी। अदालत ने माना कि क्योंकि यह गवाही परिस्थितिजन्य है, इसीलिए मायने नहीं रखती। सीबीआई ने यही तथ्य दूसरे मामले में भी अदालत के आगे रखे, लेकिन दूसरे मामले में वह अदालत को यह साफ नहीं कर पाई कि तुलसीराम इस दूसरे मामले में पीड़ित था। यानी वह बयान अब गवाह के तौर पर नहीं, बल्कि मरते वक्त दिए गए बयान के रूप में देखा जाना चाहिए था। और मरते वक्त दिए गया बयान, इंडियन एविडेंस एक्ट के सेक्शन 32 के तहत स्वीकार्य है। सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ के एक मात्र चश्मदीद गवाह तुलसीराम प्रजापति ने मजिस्ट्रेट के समक्ष 164 (सीआरपीसी) के तहत अपना बयान दिया था। लिहाजा दोनों मामलों को इकट्ठा करने के बाद, यह मामला और मजबूत होना चाहिए था, लेकिन इसे सीबीआई की लापरवाही कहें या कोई और मजबूरी मामला कमजोर होता चला गया। सीबीआई ने अदालत में इस बारे में न कभी सही दलील दी और न ही कभी सही तरह से अपना रुख साफ किया। पूरे मामले की सुनवाई के दौरान ऐसा लगा कि सीबीआई की दिलचस्पी अब इस बात में जरा भी नहीं कि अमित शाह को इस मामले में दोषी साबित किया जाए। वह तो बस किसी भी तरह इस मामले से अपना पल्ला छुड़ाना चाहती है।
बहरहाल इस मामले में विशेष अदालत से अमित शाह के पक्ष में फैसला आने के बाद, सीबीआई आगे इस फैसले को कोई चुनौती देगी, इसकी गुंजाइश कम ही दिखाई देती है। अब सीबीआई वही काम कर रही है, जो केन्द्र सरकार चाहती है। अमित शाह को राहत देने का काम, सिर्फ और सिर्फ सरकार के इशारे पर ही हुआ है। सीबीआई पर अब केन्द्र सरकार का सीधा-सीधा दवाब है। वरना जिस सीबीआई ने अमित शाह के खिलाफ तीन हजार पन्नों की लंबी चार्जशीट तैयार की थी, वह अदालत के सामने यूं ही हथियार नहीं डाल देती। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र की सत्ता संभालते ही सीबीआई को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया है। कल तक जो बीजेपी विपक्ष में रहकर सीबीआई की स्वायत्तता की बात करती थी, अब सत्ता में आकर वही उसे बेड़ियां पहनाने का काम कर रही है। बीजेपी नहीं चाहती कि सीबीआई स्वायत्त हो। क्योंकि यदि सीबीआई स्वायत्त हो गई, तो उसके नेता भी इससे बच नहीं पाएंगे।
O - जाहिद खान
जाहिद खान, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।