अभिव्यक्ति की आजादी पर नए खतरे
अभिव्यक्ति की आजादी पर नए खतरे
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केंद्र सरकार 16 दिसंबर 1876 को बने 'नाट्य प्रदर्शन अधिनियम’ को खत्म करने जा रही है। गुलामी के दौर में बना यह डेढ़ सदी पुराना कानून अंग्रेजी सत्ता ने अपनी हिफाजत के लिए बनाया था। वायसराय नार्थब्रुक के समय में अमल में लाए गए इस कानून को थॉमस बेरिंग ने तैयार किया था। नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876 में कहा जो कहा गया है उसका लब्बोलुआब ये है कि कि ऐसे नाटक, प्रहसन, तमाशे, नृत्य-नाटिका, जो भारतीय जनता में आजादी की भावना उस वक़्त जगाते थे, उन्हें राजद्रोह मानकर बैन किया जाए। दरअसल, अंग्रेज कला की ताकत को पहचान गए थे और उन्हें अपनी सत्ता खोने का डर सताता था। 1870 के बाद राष्ट्रवाद की भावना की अभिव्यक्ति वाले कई नाटक आए जिनमें अंग्रेजों के शासनकाल के दमन चक्र को बैन किया गया था। 'चक्र दर्पण’, 'गायकवाड दर्पण’, गिरीश चंद्र घोष के लिखे 'सिराज उद दौला’ और 'मीर कासिम’, दीनबंधु मित्रा का लिखा 'नील दर्पण’ ऐसे कई नाटकों को मानहानिकारक और राजद्रोह वाला बताकर इन पर प्रतिबंध लगाया गया था। यह ब्रिटिश राज में अभिव्यक्ति की आजादी पर चोट थी। जाहिर है आजादी के 70 साल बाद ऐसे कानून की कोई उपयोगिता नहीं है, इसलिए इसे खत्म करने का मोदी सरकार का फैसला सही है। केंद्र सरकार पिछले तीन वर्षो के दौरान 1200 पुराने और अप्रचलित कानूनों को ख़त्म कर चुकी है।
यह दिलचस्प संयोग है कि सरकार एक ओर डेढ़ सौ साल पुराने उस कानून को खत्म कर रही है, जो जनता को अभिव्यक्ति के अधिकार से वंचित करता था और दूसरी ओर देश में अब भी माहौल ऐसा बना हुआ है कि लोग खुलकर अपनी राय प्रकट नहीं कर पा रहे हैं। हाल ही में तीन प्रसंग ऐसे हुए हैं, जो अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार पर सवालिया निशान लगाते हैं।
तमिलनाडु में तिरुनेलवेली में एक परिवार को आत्महत्या करने से रोकने में सरकार के नाकाम रहने पर कार्टूनिस्ट जी बाला ने मुख्यमंत्री पलनीसामी की आलोचना वाला कार्टून बनाया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि अब बाला को जमानत मिल गई है और उनका कहना है कि, मैंने कोई हत्या नहीं की, कोई पछतावा नहीं और कार्टून के माध्यम से सरकार की नाकामी को उजागर करना जारी रखूंगा। यह कार्टूनिस्ट बाला की हिम्मत है कि वे अब भी अपने काम को जारी रखने का ऐलान कर रहे हैं। लेकिन क्या सरकारों में और नेताओं में अपनी आलोचना सहने की हिम्मत बाकी नहीं रह गई है? बाला के पहले भी लेखकों, रंगकर्मियों, कार्टूनिस्टों, विचारकों पर ऐसे राजनीतिक प्रहार होते रहे हैं। इससे पहले दलित लेखक और विचारक कांचा इलैया को तेलुगू में प्रकाशित अपनी किताब समाजिका स्मगल्लेरू कोमाटोलू में आर्य वैश्य समुदाय पर टिप्पणी करने की वजह से विरोध का सामना करना पड़ा ही, सरकार ने भी उनका साथ नहीं दिया, उल्टा उन्हें ही नजरबंद कर दिया। यह मामला अब भी शांत नहीं हुआ है। इधर अभिनेता कमल हासन को एक तमिल पत्रिका में अपने साप्ताहिक लेख में हिंदू आतंकवाद का मुद्दा उठाने पर तीखा विरोध झेलना पड़ रहा है। उन्हें जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं। कुछ ऐसा ही हाल फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली का है, जिन्होंने पद्मावती फिल्म का निर्माण किया है। इस फिल्म को बनाने के दौरान भी राजस्थान में उनके साथ हिंसा हुई थी, सेट पर तोड़-फोड़ की गई थी और अब जबकि फिल्म रिलीज़ करने का वक्त आ गया है तो यह विरोध और तेज हो गया है।
देश के अलग-अलग हिस्सों में अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडराते इस खतरे को रोकने के लिए सरकार क्या करती है, यह देखने वाली बात है। वैसे अभी प्रधानमंत्री मोदी ने एक अखबार के कार्यक्रम में कहा कि मीडिया को अपनी आजादी और ताकत का गलत इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। मीडिया को अपनी विश्वसनीयता बना कर रखनी चाहिए। लेकिन एक सवाल मोदीजी से कि क्या आप यहां मीडिया की जगह यानी आपने जो नसीहत मीडिया को दी है उसकी जगह सरकार शब्द का इस्तेमाल करके भी यही बात दोहरा सकते हैं?


