अभिव्यक्ति के ख़तरे उठा रहे लेखकों ने महसूस की भूखंड की तपन
अभिव्यक्ति के ख़तरे उठा रहे लेखकों ने महसूस की भूखंड की तपन
(यह विस्तृत रिपोर्ट साथी हरनामसिंह चांदवानी, साथी संतोष खरे, सत्यम सत्येन्द्र पाण्डे, सत्येन्द्र रघुवंशी, शिवशंकर मिश्र सरस, भगवान सिंह निरंजन, सारिका श्रीवास्तव, नीरज जैन, आरती आदि की रिपोट्स और नोट्स की मदद से तैयार की गई। - विनीत तिवारी)
गौरी लंकेश का क़त्ल हुए ज़्यादा समय नहीं बीता है। गौरी की हत्या ने पूरे देश में अमन और इंसाफ़पसंद लोगों को हिला दिया है। दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्याओं के बाद गौरी लंकेश की हत्या से इस तरह की वहशियाना हरक़त के प्रति पूरे समाज में रोष फैला है। इस बात से ग़ुस्सा और भी बढ़ जाता है जब सत्ता में बैठे लोग उन्हें संरक्षण देते हैं जो इन हत्याओं का मखौल बनाना चाहते हैं और अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए शहीद हुए लोगों पर मौत के बाद भी गालीगलौच का कीचड़ उछालते हैं। उस गु़स्से का तापमान प्रगतिशील लेखक संघ के मध्य प्रदेश राज्य सम्मेलन में भी महसूस किया गया।
पहले से ही तय था कि यह सम्मेलन मुक्तिबोध की जन्मशती के उपलक्ष्य में उन्हें समर्पित किया जाएगा। मुक्तिबोध का नाम आते ही सबसे पहले ही जो पंक्तियाँ नारों की तरह दिमाग में कौंधती हैं, वो हैं- ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ और ‘अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।’ इन दोनों पंक्तियों में से पहली पंक्ति तो अपने आप पर, अपने ही साथियों पर सवाल करती है ताकि अपनी पक्षधरता में स्पष्टता रहे, और दूसरी पंक्ति अपना संकल्प बताती है ख़तरों की आशंकाओं के यथार्थ को मूर्त करती हुई।
मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ का 11वाँ राज्य सम्मेलन 2012 में सागर में हुआ था। उसके पश्चात देश के बदले राजनीतिक परिदृष्य में तेजी से जनता के पक्ष में सोचने, लिखने, पढ़ने या कला के किसी और माध्यम में अपने आपको अभिव्यक्त करने वालों पर हमले हुए। उन्हें प्रताड़ित पहले भी किया जाता रहा था। लेकिन इस दफ़ा उन्हें जान से ही मार डाला गया। इसी बेचैनी के बीच विंध्य क्षेत्र के सतना में 12वें राज्य सम्मेलन (16-17 सितम्बर 17) में प्रदेश के 26 जिलों से एकत्र हुए प्रलेस के प्रतिनिधि कलमकारों ने और अन्य लेखकों ने एकताबद्ध होकर कहा कि ‘‘ज़ुल्म के खि़लाफ़ हम मिलकर लड़ेंगे साथी।’’
हाल ही में दिवंगत हुए प्रलेस संरक्षक मंडल के प्रमुख सदस्य श्री चन्द्रकांत देवताले के नाम पर बनाए गए सभागार में लगातार दो दिनों तक विभिन्न विषयों पर वरिष्ठ लेखकों, प्रलेस प्रतिनिधियों ने विचार विमर्श कर राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय विषयों पर प्रस्ताव पारित कर अपनी मंशा जाहिर कर दी कि उभरते फासिज्म के खिलाफ लेखक, पत्रकार, स्वतंत्रचेता झुकने को तैयार नहीं हैं। मुक्तिबोध जन्म शताब्दी को समर्पित 12वाँ राज्य सम्मेलन चन्द्रकांत देवताले की लंबी कविता के शीर्षक ‘‘भूखण्ड तप रहा है’’ के सूत्र वाक्य पर आधारित था। इसी तपिश को सम्मेलन में भली भाँति महसूस किया गया।
16 सितम्बर को अधिवेशन का शुभारंभ वरिष्ठ लेखक-आलोचक श्री विश्वनाथ त्रिपाठी (दिल्ली) ने किया। उन्होंने अधिवेशन स्थल पर प्रदेश के रचनाकारों, कलाकारों द्वारा प्रदर्शित कृतियों का अवलोकन किया। अधिवेशन सभागार की दीवारों पर टंगे कविता पोस्टर देश के वर्तमान हालात दर्शा रहे थे। बस्ती (उ. प्र.) से आये छायाकार शाहआलम ने छायाचित्रों के माध्यम से चंबल के बीहड़ों में निवासरत ग़रीबों किसानों की दशा-दिशा पर दर्शकों का ध्यान आकृष्ट किया। उज्जैन के चित्रकार मुकेश बिजौले, अशोकनगर के पंकज दीक्षित, इंदौर के अशोक दुबे, रीवा के के. सुधीर के कविता पोस्टरों और शिल्पज्ञ-चित्रकार प्रोफेसर प्रणय की शिल्पकला को भरपूर सराहना मिली। इन्हीं के साथ किताबों की प्रदर्शनी और विक्रय की स्टॉल पर भी सभी लेखक प्रतिनिधि दिलचस्पी लेकर साहित्य से लेकर लेनिन, क्लारा जेटकिन आदि वाम सिद्धांतकारों की पुस्तकें देखते, पढ़ते और खरीदते रहे। चंद्रकांत देवताले सभागृह में हर तरह से कला की सभी विधाओं से प्रगतिशील संस्कृति का शानदार माहौल बना लिया गया था।
सम्मेलन की शुरुआत में अशोकनगर इप्टा ने जनगीत प्रस्तुत किए। स्वागत भाषण देते हुए प्रलेस सतना इकाई के अध्यक्ष श्री संतोष खरे ने आपातकाल के दौरान 41 वर्ष पूर्व 1976 में हुए प्रलेस के राष्ट्रीय सम्मेलन को याद करते हुए कहा कि तब घोषित आपातकाल था और आज अघोषित आपातकाल है। आज फिर लेखकों के सामने अभिव्यक्ति का संकट मुँह बाये खड़ा है। आपने सत्ता की आलोचना की नहीं कि आप देशद्रोही करार दिये जा सकते है। सरकार को ही देश मानने पर मजबूर किया जा रहा है। ऐसे में प्रलेस फिर दमन के खिलाफ मोर्चा लेगा।
उद्घाटन वक्तव्य देते हुए श्री विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि वर्ष 1976 में सतना में ही आपातकाल के दौरान प्रलेस का अधिवेशन हुआ था। उस आपातकाल को तो उठा लिया गया। वर्तमान में अघोषित अपातकाल को कौन हटाएगा? साम्प्रदायिकता अपने विकृत चेहरे को ढंककर संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है। मनुष्य विरोधी हर काम के खिलाफ जो भी हैं, हम उनके साथ हैं। उन्होंने कहा कि जो इस भारत को को तोड़कर एक जैसा बनाना चाहते हैं, वे समझ लें कि यहाँ जीवन में इतना सदभाव घुला मिला है कि वे उसे हमेशा के लिए तोड़ नहीं सकते। जो ताक़तें भारत को सिर्फ़ हिंदुओं का देश बनाना चाहती हैं, वे समझ लें कि वे भी चैन से नहीं रह पाएँगी। उन्होंने ‘एकता’ और ‘एकजैसेपन’ यानी ‘यूनिटी’ और ‘यूनिफॉर्मिटी’ के फ़र्क़ को समझने पर ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध को याद करने का अर्थ ही यह है कि हम देश में संस्कृति का लबादा ओढ़े चले आ रहे फ़रेबियों और हत्यारों के ख़िलाफ़ लामबंद हों। वे लोग न केवल हत्या की संस्कृति फैला रहे हैं बल्कि जिस महिला को उसके विचारों की वजह से मारा गया, उस गौरी लंकेश को अपशब्द भी कहे जा रहे हैं। और उससे भी ज़्यादा शर्म की बात यह है कि ख़ुद प्रधानमंत्री उसके ट्विटर पर फॉलोअर हैं। जनता सब देख रही है। निश्चित है कि वो इसका जवाब देगी।
श्रोताओं में प्रलेस के वरिष्ठ संरक्षक मंडल सदस्य जो बारहवें राज्य सम्मेलन के संरक्षक भी थे और जो विंध्य क्षेत्र के लोकप्रिय प्रगतिशील लेखक रहे हैं, श्री देवीशरण ग्रामीण भी अपनी अस्वस्थता और आयु के बाद भी नागौद से सतना आये थे और अगली कतार में ही बैठे थे। उनसे मंच पर चढ़ते न बना तो विश्वनाथ जी ख़ुद नीचे उतरकर उनसे गले मिलने चले गए। न केवल देवीशरण ग्रामीण जी की आँखें ख़ुशी से भीगी थीं बल्कि सभागृह में मौजूद सभी लोगों की आँखों में अपने दो बुजुर्ग लेखकों का परस्पर सम्मान, प्यार और संगठन के प्रति प्रतिबद्धता देखकर गीलापन था। ख़ुद विश्वनाथ जी 88 वर्ष की आयु में जबलपुर से सतना तक का सड़क से सफ़र करके आये थे और कह रहे थे कि प्रलेस के साथियों से मिलकर मेरा जीवन रस बढ़ जाता है, इसलिए मैं तो अपने स्वार्थ से आया हूँ।
जनवादी लेखक संघ के प्रदेश महासचिव श्री मनोज कुलकर्णी ने लेखकों की एकजुटता पर जोर देते हुए कहा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर फासिज़्म हमारे सामने है। ग़रीबों और अमीरों के बीच खाई बढ़ती जा रही है। देश के सभी आर्थिक संसाधनों पर एक प्रतिशत से भी कम औद्योगिक घरानों का कब्ज़ा हो गया है। जनता की समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए सत्ता द्वारा साम्प्रदायिक विद्वेष को बढ़ावा दिया जा रहा है। धार्मिक बहुसंख्यकवाद के नाम पर अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों को प्रताड़ित किया जा रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी और निजता का अधिकार छीना जा रहा है। जन संस्कृति मंच के महासचिव श्री प्रेम शंकर ने कहा- अब वही जीवित रह पाएगा जो सत्ता के झूठ को स्वीकारेगा। लेखक संगठन अपने अतीत के मतभेदों को स्थगित रखकर एकजुट हों। आज देश में विराट सांस्कृतिक मोर्चा बनाने की जरूरत है। प्रलेस के प्रांतीय अध्यक्ष श्री राजेन्द्र शर्मा ने कहा कि प्रेमचंद का साहित्य पुनः निशाने पर है। हिन्दी साहित्य संस्थान से गोदान को हटा दिया गया है। दक्षिणपंथी प्रेमचंद से डरते हैं।
अंत में सागर सम्मेलन के बाद से प्रलेस, मध्य प्रदेश के दिवंगत हुए साथी लेखकों सर्वश्री श्यामसुंदर मिश्र (जबलपुर), श्री महेंद्र वाजपेयी (जबलपुर), सुश्री नुसरत बानो रूही (भोपाल), श्री गोविंदसिंह असिवाल (भोपाल), श्री प्रेमशंकर रघुवंशी (हरदा), श्री के. के. श्रीवास्तव (दमोह), श्री हशमत छतरपु (छतरपुर) गेंदालाल सिंघई (अशोकनगर), श्री गिरधर शर्मा (गुना) और श्री चंद्रकान्त देवताले (इंदौर) को श्रृद्धांजलि अर्पित करते हुए दो मिनट का मौन रखा गया।
उद्घाटन सत्र के बाद प्रलेस महासचिव श्री विनीत तिवारी ने अपने वक्तव्य में सागर सम्मेलन के बाद से अब तक के प्रमुख कार्यों की सूची प्रस्तुत की और मध्य प्रदेश प्रलेस द्वारा 11 लेखकों के प्रतिनिधिमंडल की शहीद लेखकों डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, कॉमरेड गोविंद पानसरे और प्रोफ़ेसर एम. एम. कलबुर्गी के गृहनगरों की ओर इन लेखकों के परिजनों से मिलने और एकजुटता ज़ाहिर करने के मक़सद से की गई यात्रा के बारे में बताया। उन्होंने प्रदेश में लगाये गए प्रदेश स्तरीय कविता, कहानी और विचार शिविरों के बारे में जानकारी दी। उन्होंने ये भी कहा कि आज बेशक हम पहले से ज़्यादा भी हैं और पहले से अधिक सक्रिय भी, लेकिन फ़ासीवाद की चुनौती का सामना करने के लिए हमें और अधिक सक्रियता की ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि यदि आज स्वतंत्र विचारों की रक्षा नहीं की गई तो देश में उदारवादी चेहरों का अकाल पड़ जाएगा। उन्होने प्रलेस सचिव मंडल सदस्य श्री बाबूलाल दाहिया द्वारा किसानों की हत्या के विरोध में प्रदेश सरकार के पुरस्कार को ठुकराकर प्रतिरोध की परंपरा को आगे बढ़ाने की सराहना की, साथ ही अपने सचिव मंडल, कार्यकारी दल और विशेष रूप से संगठन को आगे बढ़ाने में सुश्री सुसंस्कृति परिहार, सुश्री सारिका श्रीवास्तव और सुश्री आरती के प्रयासों को रेखांकित किया। श्री तिवारी ने कहा कि सत्ता के संरक्षण के कारण ही कलबुर्गी, दाभोलकर, पानसरे के हत्यारों को अब तक नहीं पकड़ा जा सका और अब गौरी लंकेश के क़त्ल को भी पारिवारिक मामला या नक्सलवादियों का नाम लेकर भरमाया जा रहा है। उन्होंने वर्ष 2015 में विश्व हिन्दी सम्मेलन में लेखकों की उपेक्षा और केन्द्रीय मंत्री की अपमानजनक टिप्पणी और व्यापम घोटाले का भी उल्लेख किया। अपने वक्तव्य में श्री विनीत तिवारी ने सरदार सरोवर बाँध के विस्थापितों के प्रति एकजुटता व्यक्त करते हुए उनके आंदोलन का समर्थन किया। इसका महत्त्व इसलिए भी था कि अगले ही दिन यानि 17 सितंबर को मोदी अपने जन्मदिन पर सरदार सरोवर बाँध का पूर्ण कहकर उद्घाटन करने वाले थे जबकि 40 हज़ार परिवारों के पुनर्वास और मुआवजे का निपटारा अभी तक बाक़ी है। लोगों को डुबोने, किसानों को आत्महत्याओं के लिए मजबूर करने और फिर जनता के सारे असंतोष की दिशा एक दूसरे पीड़ित समूहों की ओर मोड़ने और उन्हें आपस में लड़वाने का फ़ासीवाद का तरीक़ा नया नहीं है लेकिन लेखकों को इसे फिर से लोगों के सामने उजागर करना होगा। उन्होंने अपने वक्तव्य की समाप्ति में कहा कि ‘लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है।’
दोपहर बाद विचार सत्र में मुक्तिबोध के संदर्भ में ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ विषय पर साहित्य एवं राजनीति के अंतर्संबंधों को टटोला गया। सत्र की शुरुआत में दमोह की साथी सुश्री सुसम्मति परिहार ने मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ कविता का अंश ‘ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धांतवादी मन’ गाकर प्रस्तुत किया। प्रमुख वक्ता प्रो. गार्गी चक्रवर्ती (दिल्ली) ने कहा कि आपातकाल में राज्य के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों पर कार्यवाही होती थी। अब आम जनता को निशाना बनाया जा रहा है। जब सावरकर ने हिंदू राष्ट्र की कल्पना की थी तो रबींन्द्रनाथ ठाकुर ने उसका विरोध किया था। सांप्रदायिकता के प्रवेश के कारण ही रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1905 के बंग-भंग आंदोलन से दूरी बना ली थी। उनका उपन्यास ‘गोरा’ एक तरह से इसी पृष्ठभूमि को स्पष्ट करता है। दक्षिणपंथी लोग आज भी रबीन्द्रनाथ ठाकुर को मौका मिलते ही पाठ्यक्रमों से बाहर करना चाहते हैं। जिन्होंने भारत की आज़ादी की लड़ाई से अपने आपको दूर रखा और अंग्रेजों की चाटुकारिता की, उन्होंने ही गाँधीजी को मारा, रबीन्द्रनाथ ठाकुर को बदनाम करने की कोशिश की और आज फिर हिंदू राष्ट्रवाद को हथियार बनाकर लोगों के हक़ की आवाज़ उठाने वालों या सच्चाई बताने वालों का क़त्लेआम कर रहे हैं। हम भारतीय राष्ट्रवादी हैं, हिन्दू राष्ट्रवादी नहीं। साम्प्रदायिक विचारधारा अब फ़ासीवाद की शक्ल लेती जा रही है। फ़ासीवाद के खिलाफ ही प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ था। उसके खिलाफ लड़ना आज भी ज़रूरी है।
अलीगढ़ से आये वेदप्रकाश ने कहा कि मध्यवर्ग बदल रहा है। सत्ता का भय कायम है। लोग झुकने के लिए तैयार बैठे हैं। चारों ओर चापलूसी का माहौल है। आम आदमी के मन में राजनीति का गंदा चेहरा स्थापित कर दिया गया है। इस सबमें शिक्षण संस्थानों और मीडिया की भूमिका भी बहुत ही नकारात्मक है। हमें हमारी प्रगतिशील विरासत को आज के संदर्भों से जोड़कर लोगों के समक्ष ले जाने की ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ से आये वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे ने कहा कि हर व्यक्ति की पक्षधरता होती है। मनुष्य विरोधी कार्यों के ख़िलाफ़ लड़ने वालों के साथ हम खड़े हैं। अध्यक्ष मंडल सदस्य वरिष्ठ कहानीकार-उपन्यासकार श्री रमाकांत श्रीवास्तव ने कहा कि सत्य पर कोड़े बरसाये जा रहे हैं और अधिकांश बुद्धिजीवी खामोश हैं, जबकि सच के साथ खड़ा होना लेखकों का दायित्व है। उन्होंने परसाई को उद्धृत करते हुए कहा कि जब एक व्यक्ति दूसरे को मार रहा हो तो आप दोनों के प्रति समान भाव नहीं रख सकते। आपको पक्ष लेना होता है। उसी चयन से हमारी पॉलिटिक्स तय होती है। अध्यक्ष मंडल सदस्य वरिष्ठ कहानीकार-उपन्यासकार श्री सुबोध श्रीवास्तव ने कहा कि हमारे राम-राम को बड़ी धूर्तता से षड्यंत्र करके आरएसएस-भाजपा ने जय श्रीराम में बदल दिया है। हमें लोंगों को यह समझाना ज़रूरी है कि हमारे राम गाँधी के राम थे, न कि जिनके नाम पर मंदिर-मस्ज़िद के फ़साद खड़े करके क़त्लेआम और नफ़रत फैलायी जा रही है। सामाजिक कार्यकर्ता एवं कटनी इकाई के अध्यक्ष श्री नंदलाल सिंह ने कहा कि संगठन के सभी सदस्यों को वैचारिक रूप से प्रखर बनाने की ज़रूरत है ताकि हम राजनीति के आगे चलने वाली मशाल की वो भूमिका निभा सकें जो प्रेमचंद ने हमारे लिए निर्धारित की थी। शहडोल के वरिष्ठ साथी श्री सुरेश शर्मा ने कहा कि ये जानते हुए भी कि हमारी लड़ाई लंबी है और हम इसे लड़ते जाएँगे, लड़ने के तरीकों में कुछ बदलाव लाने की दिशा में हमें सोचना चाहिए। इस सत्र का संचालन सचिव मंडल सदस्य श्री तरुण गुहा नियोगी ने किया।
शाम


