मीडिया पहुँच में विस्तार की सीमा
राजसत्ता जिस सामाजिक समूह के हाथों में रहेगी, मीडिया भी उसी सामाजिक समूह के हाथों में रहेगा
देवेन्द्र कुमार

आज मीडिया की पहुँच में विस्तार की चर्चा जोरों पर है, पर मीडिया पहुँच में यह विस्तार अर्थव्यवस्था में बदलाव का प्रतिफल व बाजार की मजबूरी है, उदारीकरण व वैश्वीकरण की देन है। इस मीडिया पहुँच में विस्तार के कारण वैश्विक ग्राम की संकल्पना को साकार रूप लेते दिखलाया जा रहा है, पर सच्चाई यह है कि सामाजिक पहुँच के मामले में मीडिया का दायरा अभी भी तंग है। यह अभी भी अपने पुराने सामाजिक समीकरणों के जकड़न में जकड़ा है। इसके रंगरूप में परिवर्तन तो हुये हैं और हो भी रहे हैं, नये चमक-दमक और चासनी के साथ इसे परोसा तो जा रहा है पर यह अभी भी समाज के हर वर्ग की पीड़ा, उसकी जटिलता और सामाजिक विशिष्टता को सामने नही ला पा रहा है। नये कलेवर और रंग-रूप के बाबजूद भी इसकी आत्मा अभी भी मूल रूप से सामन्ती और अभिजातीय ही है।

पसरते बाजारवाद व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के वर्चस्व ने न सिर्फ हमारे सामाजिक ताने-बाने को विखराव के कगार पर ला खड़ा कर दिया है वरन् मीडिया को भी उपभोक्ता-उत्पादन का एक साधन बना दिया है। परन्तु यहाँ यह भी ध्यान रहे कि तमाम प्रतिस्पर्धा एवम् बाजार पर कब्जा जमाने के होड़ के बाबजूद मीडिया अपना सामन्ती व अभिजातीय चरित्र को छोड़ना नहीं चाहता। इसी लिये ग्रामीण समाज की घटनाओ का, वहाँ आ रहे सामाजिक परिर्वतन को, सामाजिक संरचना में आ रहे बदलाव को ये अपने वर्गीय हित और स्वार्थ के अनुरूप ही प्रस्तुत करते हैं। यहाँ यह बात याद रहे कि मीडिया आज जिस सजगता से भ्रष्टाचार के मसलों को उठा रहा है, उस के पीछे भी एक राजनीति है। जहाँ ग्रामीण समाज के भ्रष्टाचार में पहले एक विशिष्ट वर्ग की ही वर्चस्व था, वह टूटा है और भ्रष्टाचार पर काबिज समूह से इतर समूहों की भागीदारी बढ़ी है। क्या आज से बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व किसी दलित-आदिवासी युवक का ठेका-पट्टा लेने या अभिकर्ता बनने की बात सोची भी जा सकती थी। पर ग्रामीण समाज में यह परिदृष्य आज आम है।

इसमें दो मत नहे कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक अभिशाप है। पर सच्चाई यह भी है कि जब तक इस भ्रष्टचार पर किसी एक समूह का वर्चस्व रहता है तब तक इसे पूजा समझ इसकी उपसाना की जाती है पर ज्योंही इसमें दूसरे वंचित-शोषित समूहों की हिस्सेदारी-भागीदारी बढ़ती है, हाय-तौबा का दौर शुरू हो जाता है। इसे भ्रष्टचार के रूप में चिह्नित किया जाने लगता है। क्या भ्रष्टाचार में सभी समूहों की बढ़ती भागीदारी-हिस्सेदारी को लोकतन्त्र का विस्तार या दबाव नहीं कहा जा सकता।

ग्रामीण समाज की सामाजिक संरचना, चरित्र एवम् सोच में जो बदलाव आया है, मीडिया उसको सामने नहीं लाता, क्योंकि इससे उसके वजूद को खतरा है। मीडिया पर काबिज सामाजिक अभिजनों की यह पूरी कोशिश है कि मीडिया पर उसका जो वर्चस्व व एकाधिकार है उसके कोई सुराग पैदा नहीं हो, वह उसके हाथों से सरक कर दूसरे के हाथों में नहीं चला जाये। इसलिए ये मीडिया में वैसे सामाजिक समूहों के प्रवेश पर अघोषित रोक लगाते हैं, जो इनके सामन्ती अभिजातीय वर्चस्व में दरार पैदा कर दे। नहीं तो क्या कारण है, जहाँ आर्थिक रूप से कमजोर उच्च-जातियों को आरक्षण देने की बात की जा रही है और मीडिया में बड़े ही तथ्यपरक ढँग से इसकी अनिवार्यता को उठाया जा रहा है, इसकी सामाजिक उपादेयता सामने लायी जा रही है, उच्च-जातियों में कमजोर समूहों की इस अनारक्षण की स्थिति को प्रतिभा का हनन बतलाया जा रहा है वहीं मीडिया कभी इस बात को सामने नहीं लाता कि खुद मीडिया में भी दलित, वंचित, शोषित समूहों को आरक्षण प्रदान किया जाये। इसमें भी सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े व वंचित समूहों की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिये नियम-परिनियम निर्धारित किया जाये। आखिर कितने दलित-पिछड़े व आदिवासी मीडिया में हैं। वे तो मात्र उपभोक्ता हैं और उत्पादनकर्ता है मुट्ठी भर उच्च-जातियाँ। इतिहास में पहली बार किसी उत्पादन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को उच्च-जातियों ने अपने हाथों में रखा है और किसी भी कीमत पर इसे अपने हाथों से सरकने नहीं देना चाहता। किसी को राजदार- भागीदार बनाना नहीं चाहता तो इसके कुछ कारण हैं। उनकी कुछ मजबूरियाँ और स्वार्थ हैं।

इसी लिए जिस ‘‘मीडिया एम्सपलोजन’’ की बात की जा रही है, मीडिया पहुँच में विस्तार का जो शोर-गुल किया जा रहा है, उससे आम आदमी को, शोषित-वंचित समूहों एवम् तबकों को लाभ पहुँचने के आसार नहीं लग रहे हैं। निश्चित रूप से इन समूहों का मीडिया तक पहुँच बढ़ी है पर इसका कारण इनकी क्रय क्षमता में हुआ इजाफा है और मीडिया उनकी इस बढ़ती क्रय क्षमता का अपने हित में प्रयोग चाहता है। मीडिया की दृष्टि पढ़ने-लिखने में बढ़ती उनकी रूचि में है। दलित, वंचित जातियों में एक बन्द दायरे से बाहर निकल दुनिया को देखने समझने की उत्सुकता जागी है। पर मीडिया में कोई बदलाव नहीं आ रहा। मीडिया अभी भी सामाजिक अभिजनों का एक टूल है, जिसका इस्तेमाल वह अपने सामाजिक किलेबन्दी को मजबूत करने में, उसमें आ रहे सुराखों को दुरूसत करने में कर रहा है।

सच्चाई यही है कि जिस सामाजिक समूह के हाथों में राजसत्ता रहेगी, मीडिया भी उसी सामाजिक समूह के हाथों में रहेगा। उससे स्वतन्त्र इसका अपना कोई वजूद हीं है। मीडिया की कथित स्वतन्त्रता मात्र इतनी है कि शासक समूहों के आपसी अन्तर्विरोधों, संघर्षों एवं सामाजिक विभाजनों को सामने ला सकता है और ला रहा है और अभी इसकी उपादेयता है और सीमा भी अगर मीडिया अपनी इस सीमा को तोड़ दे तो निश्चित रूप से एक सामाजिक क्रांति की सरजमीन तैयार हो सकती है। पर तब मीडिया पर एक विशिष्ट वर्ग के आधिकार का क्या होगा? पर इतना निश्चित है कि जैसे-जैसे राजसत्ता पर दूसरे समूहों की भागीदारी बढ़ेगी वैसे-वैसे मीडिया पर भी उस समूहों का प्रभाव बढ़ेगा और तब वहाँ तमाम अवरोधों को पार कर अपनी हिस्सेदारी भागीधारी को सुनिश्चित कर लेगा। वैसे मीडिया पर काबिज सामाजिक अभिजन इस प्रक्रिया का विरोध करेंगे पर इतिहास की एक अपनी अटूट-अविराम धारा होती है वह अपनी ही धुन में लीन अपना काम करते रहता है जिसे न तो रोका जा सकता है और न बदला नहीं होते। क्या इतिहास से सबक ले मीडिया पर काबिज अभिजन अपने सोच व दृष्टि में कोई बदलाव लायेंगे।

अब समय आ गया है कि मीडिया अपनी सामाजिक संरचना में परिवर्तन लाये और अपनी विश्वसनीयता में नित्य-प्रति दिन हो रहे क्षरण को रोक कर अपनी पहुँच की सीमा को विस्तारित करे। तब ही मीडिया में दूसरे सामाजिक समूहों की भागीदारी बढ़ेगी। मीडिया की प्रतिष्ठा पुर्नस्थापित होगी और मीडिया पहुँच की सीमा में विस्तार।

देवेन्द्र कुमार, लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। मगध विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एम.ए., एल एल बी, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई से पत्रकारिता की डिग्री। क्षेत्रीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों, पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर आलेखों का प्रकाशन, बेव मीडिया में सक्रिय व लेखन। छात्र जीवन से ही विभिन्न जनमुद्दों पर सक्रियता। विभिन्न सामाजिक संगठनों सें जुड़ाव।