अराजकता की राजनीति या राजनीति की अराजकता
अराजकता की राजनीति या राजनीति की अराजकता
मनोहर गौर
पहले केजरीवाल... और अब नीतीश कुमार। डेढ़ माह के भीतर दो राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जनता को अधिकार दिलाने के नाम पर अपनी पूरी सरकार के साथ धरना दिया। दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जनवरी के अंतिम सप्ताह में दिल्ली के पांच पुलिस वालों को बर्खास्त करने की मांग को लेकर भरी ठंड में अपनी पूरी सरकार के साथ रेल भवन के सामने धरने पर बैठे थे। उनके एक मंत्री के साथ कथित पुलिसिया दुर्व्यवहार से नाराज केजरीवाल ने धरना दिया था। 32 घंटे बाद ही उन्हें उनकी औकात पता चल गई थी और धरना समाप्त करना पड़ा था। अब खबरें आई हैं कि गलती तो उनके मंत्री यानी मिस्टर भारती की ही थी। अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जनता के हित (?) में पटना के गांधी मैदान में धरने पर बैठे। मांग-बिहार को विशेष दर्जा दिलाने की। आरोप-केंद्र सरकार पर भेदभाव का। कहा-सीमांध्र प्रदेश को 24 घंटे में विशेष राज्य का दर्जा दिया जा सकता है तो बिहार को क्यों नहीं ?
यह सही है कि नीतीश कुमार पिछले कई महीनों से बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की मांग कर रहे हैं। इस संबंध में उन्होंने केंद्र के अनेक नेताओं से बात की। आंदोलन किए गए। पार्टी की ओर से रैलियां की गर्इं। जुलूस-मोर्चे निकाले गए। एक समय लगा भी कि अब बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा, मगर मामला राजनीति की गलियों में जाकर कहीं खो गया। इसमें सवाल यह भी है कि आज की स्थिति में क्या बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की जरूरत है? नीतीश कुमार ने जब बिहार की बागडोर संभाली थी तब बिहार की हालत सचमुच बहुत खराब थी। नीतीश कुमार के कार्यकाल में बिहार में तेजी से विकास हुआ है और बिहार अब बीमारू राज्यों की सूची से बाहर भी हो गया है। आंकड़ों पर भरोसा करें तो बिहार ने विकास के मामले में देश के दूसरे राज्यों को पीछे छोड़ दिया है। वहां ही प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी हुई है। ऐसे में इस मांग का औचित्य क्या है? अकेले बिहार ही नहीं, बल्कि ओड़िशा सहित देश के आधा दर्जन से अधिक राज्यों की यही मांग है। ऐसे में केवल बिहार को ही विशेष राज्य का दर्जा देना केंद्र सरकार के लिए आसान तो नहीं ही है।
सीमांध्र का मामला अलग है। वहां एक राज्य का विभाजन हुआ है और ऐसे में विशेष पैकेज दिया जाना जरूरी तथा जायज भी माना जा सकता है। अगर राज्य अपने संसाधन जुटाने की दिशा में कार्य करने की बजाय केवल केंद्र की मदद की राह ही तकते रहेंगे तो वे कभी विकास के रास्ते पर आगे बढ़ ही नहीं पाएंगे।
दरअसल, केजरीवाल हों या नीतीश, किसी को जनता से कोई लेना-देना नहीं है। दोनों की ही नजर अप्रैल में होने वाले लोकसभा चुनाव पर है। दोनों अपनी छवि चमकाने और चुनाव में ले जाने के लिए एक अदद मुद्दे की तलाश में यह सब करते रहे हैं। फिर उनके धरने से आम जनता को कितनी ही परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े। परेशानियां का सामना दिल्ली में भी उसी आम जनता को करना पड़ा था जिनका नाम केजरीवाल हर सांस में लेते रहे हैं और पटना में भी वही हुआ, जिसके सहारे नीतीश लोकसभा की वैतरणी पार करने की बात कर रहे हैं। यही कारण है कि दोनों नेता मुख्यमंत्री होने के बावजूद धरने पर बैठने में कोई गुरेज नहीं करते।
केजरीवाल के धरने पर बैठने के समय तो इस पर मीडिया में भारी चर्चा भी हुई थी कि क्या किसी मुख्यमंत्री को इस तरह धरने पर बैठना चाहिए? इस बार ऐसी कोई चर्चा भी नहीं हुई। दिल्ली में आप पार्टी और पटना में जदयू नहीं, बल्कि पूरी की पूरी सरकार धरने पर बैठी।
मुख्यमंत्री किसी एक पार्टी का नहीं, बल्कि पूरे राज्य का प्रतिनिधि होता है। फिर सवाल उठता है कि क्या किसी राज्य का मुख्यमंत्री अपनी पार्टी के साथ इस तरह धरने पर बैठ सकता है? क्या जनता ने उसे इसीलिए चुना है कि वह सरकार चलाने की अपनी जिम्मेदारी को छोड़ अपनी पार्टी को जिताने के लिए धरना देता रहे, मोर्चा निकालता रहे? लोकतंत्र में केंद्र के खिलाफ कोई राज्य सरकार इस तरह से धरना दे यह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। हो भी नहीं सकता।
केजरीवाल ने जिस अराजकता की राजनीति की शुरुआत डंके की चोट पर की थी उसका अनुकरण करने में नेताओं को लगता है कि बड़ा मजा आ रहा है। अब केजरीवाल के अनेक कदमों का अनुकरण किया जा रहा है। राहुल गांधी चुनावी घोषणापत्र बनाने के लिए घूम-घूमकर जनता के विचार जान रहे हैं। भाजपा भी जनता से विचारों और मतों को अहमियत दे रही है। और यह सब बिना सोचे-समझे किया जा रहा है कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? उसका जनता पर क्या असर होगा? मगर जनता देख रही है। वह सोच भी रही है और नतीजा भी देगी, चाहे जिसके हक में हो।


