अर्गला : एक पुरुष के अंतर्मन में मची उथल-पुथल
शब्द | हस्तक्षेप Review of Anil Pushkar's novel Argala लेखक की ईमानदार साफगोई इस उपन्यास की जीवंतता में रंग भर देती है जब रति जैसी पात्र को वह कल्पना की उपज नहीं मानते।

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अनिल पुष्कर के उपन्यास अर्गला की समीक्षा
बहुश्रुत लेखक अनिल पुष्कर का सद्यः-प्रकाशित उपन्यास अर्गला एक नयी तरावट वाली लिखावट है। यह स्त्री की देह का चटपटा विमर्श नहीं है, न ही अलगाव और जुड़ाव का कोई सस्ता ताना-बाना है। जैसा आज हर दस उपन्यास में नौ में इसी किस्म की रुदाली और उसका महिमामंडन पढ़ने को मिलता है। आज हिन्दीभाषी सभ्यता के तमाम संकट देह विमर्श से अलग नहीं हो पा रहा है। इस भेंड़चाल से अलग हटकर स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर लोकेत्तर विमर्श की पहल नेकनामी की गुंजाइश काम जोखिम ज्यादा है। स्त्री का होना और न होना, स्त्री होकर भी गरिमाविहीन रहना समाज की सोच और संस्कार का 'विशाल' और 'महान' प्रकटीकरण है। फिर स्त्री को प्रकृति कहने की उदारता मन से नहीं उपज पाती है। लेकिन अनिल पुष्कर लीक से अलग हटकर, शब्दों के जरिये जिस साधना में लीन दीखते हैं वह स्त्री मन को भांप सकने का अप्रतिम प्रयास साधारण नहीं है। इस असाधारण लेकिन मुख़्तलिफ़ अनुभव को सहेजें तो जैसे गूंगे का गुड़ स्वाद वाली बात समझ में आती है।
लेखक की ईमानदार साफगोई इस उपन्यास की जीवंतता में रंग भर देती है जब रति जैसी पात्र को वह कल्पना की उपज नहीं मानते। बल्कि ऐसा लगता है कि उनके-हमारे या किसी के साथ एक साधारण सी लड़की अपनी सहजता भरी जीबड़ेगी जीते हुए असाधारण बन जाती है। यही एक पात्र के होने की प्रासंगिकता है। साथ में लेखक के ऊपर मजबूत होता एक पाठक का विश्वास है। कितना अच्छा लगता है हमारे बीच के चेहरे किसी उपन्यास की बनावट और बुनावट में समायोजित दिखते हैं। हमारे समाज के सच, उसकी सुंदरता, उसके संतुलन या बदसूरत अथाह से रूबरू होते वे पात्र शब्दों के जरिये हमारे पुण्य-अपुण्य-विवेक केसाथ अनुरक्त हो जाते हैं। उपन्यास की कथावस्तु, उसके पात्र, पात्रों के कथोपकथन एक साधारण विवरण के साथ मौजूद नहीं हैं बल्कि लेखक की गंभीर प्रयोगधर्मी मानसिक सृष्टि उसके मंसूबे को अलहदा होने के रास्ते तय करती है।
इस उपन्यास में अनिल की प्रयोगधर्मी की प्रवृत्ति संबंधों की देहरी पर पसरी धूप की लकीरें खींचना या उसकी गरमाहट के बूते दिन गुजार लेना नहीं है बल्कि वह नुक्कड़ नाटक के वृत्त और उसी वृत्त में सक्रीय तमाम पात्र उस कालखंड की ओर लिए चलते हैं जहाँ आज का मौजूदा दौर इंसानियत और हैवानियत का कॉकटेल गटक रहा है। भला आज कोई लेखक धर्म और नैतिकता के विमर्श की विपदा क्यों ओढ़ना चाहेगा ? लेकिन रति के वक्तव्य में कोई आरोप नहीं है कि पंडित-पंटूलों ने इन दोनों शब्दों के मार्फ़त समाज का बंटाधार किया है बल्कि यह एक तेजाबी सत्य है। यह एक बानगी है लेकिन सच यही है मौजूदा दौर की सचाईयों के बूते अनिल पुष्कर ने उधेड़ा है, यह भविष्य का उनका निजी संकट साबित हो सकता है।
उपन्यास के विचार-मंथन पक्ष में सत्य-नीति और आचरण के साथ एक नर का दो मादाओं के बीच अनुभवों का द्वन्द वैयक्तिक हो जाता है। सच में संबंधों के मामले में स्त्री की गंभीरता बनावटी नहीं होती बल्कि बेहद वाजिब और सहज लगती है। किन्तु एक पुरुष के अंतर्मन में मची उथल-पुथल उसका अधूरापन है जो अति आत्मविश्वास से भरा लगता है। चित्रा हो या रति- इनकी दृढ़ता कितनी सलोनी लगती है लेकिन नायक का विचलन उसके चरित्र के अंधेरे खोखल में आत्महीन हो उठता है। क्या यह एक नर पात्र का रेखांकन है या संबंधों के मामले में स्त्री के समक्ष एक पुरुष ऐसे ही डांवाडोल हो जाता है। इसी प्रवाह के बीच रेहाना का चरित्र और उससे जुड़ी घटनाएं यकायक सन्न कर देतीं हैं। क्या स्त्री अस्मिता पर चोट पहुंचाती सभ्यता इतनी निष्ठुर और निठुर हो सकती है? ज़िन्दगी को जीने, उसे समझने और बताने को लेकर अमरीकी कॉमिक स्ट्रिप के प्रसिद्ध चित्रकार विलियन ब्लोड ने क्या खूब कहा है कि 'यदि अच्छी चीज़ें हमेशा बनी रहती हैं, तो क्या हम इसकी सराहना करेंगे कि वे कितनी मूल्यवान हैं?'
अर्गला उपन्यास ज़िन्दगी के साथ चलनेवाली अच्छी-बेहतर और बेहतरीन चीजों और पात्रों का एक गुच्छा है और जो गलत है वह समाज तथा सभ्यता पर लगी हुई कालिख है। हिंदुस्तान की ज़मीन पर रचा गया एक ऐसा उपन्यास है जिसे हिंदी साहित्य का अभिनव प्रयोग कहने में गुरेज नहीं। कमाल है, इस उपन्यास में कोई प्रमुख या विशेष पात्र नहीं है लेकिन उपन्यास का प्रवाह और उसका ट्रीटमेंट विलक्षणता भर सकने में समर्थ है। लेखक की यही सतर्कता उसे सफलता देने में सार्थक होगी। कुछ भी कहिये, सच तो यही है कि मनुष्य की मुक्ति प्रेम से और प्रेम में है।
अमरेंद्र किशोर, नई दिल्ली


