अलविदा भरत आचार्य!
अलविदा भरत आचार्य!
‘निशांत’ Nishant के एक वरिष्ठ साथी भरत आचार्य Bharat Acharya हम से जुदा हो गए। जनवरी 24, 2019 को दिल का दौरा heart attackपड़ने की वजह से उनका देहांत हो गया। वे मात्र 57 वर्ष के थे। उनकी मौत से ‘निशांत’ ने पिछले चार दशकों के प्यारे साथी को खो दिया और मैं ने एक छोटे भाई को।
‘निशांत’ के वे नाटक जिनमें भरत आचार्य ने अभिनय किया
भरत ‘निशांत’ में आने से पहले मेरे छात्र थे और फिर यह रिश्ता साथी रंगकर्मी theater और भाई का हो गया। भरत एक परम्परागत गुजराती बिज़नेस परिवार से आते थे, लेकिन एक ऐसा समाज जहाँ इंसान-इंसान का शोषण न करे, बनाने का जज़्बा उनमें किसी से कम नहीं था। उन्होंने ‘निशांत’ की देश के विभिन्न हिस्सों में हुई सैंकड़ों प्रस्तुतियों में हिस्सा लिया। जिन कुछ नाटकों के नाम याद आ रहे हैं वे थे: जंगी राम की हवेली, गिरगिट, गड्ढा, इन्क़िलाब ज़िंदाबाद, ब्रह्म का स्वांग, सरकारी सांड, सब से सस्ता गोश्त, हवाई गोले, तमाशा, साधारण लोग, हवाला के हवाले वतन साथियों, उठ जाग मेरी बहना और टुकड़ा नहीं पूरी रोटी लेंगे।
दो बड़े सांस्कृत/नाट्य अभियान जिनमें उन्होंने अहम भूमिका निभायी वे थे 1984 के सिखों के क़त्ल-ए-आम के खिलाफ और 1998 में जब गुजरात में ईसाईयों, उनकी शिक्षा/धार्मिक संस्थाओं पर हिन्दुत्वादी टोली दूर हमले किये जा रहे थे तो वे ‘निशांत’ और प्रगतिशील महिला संगठन की साझी उस टीम में शामिल थे जो हालात को जानने गयी थी।
हिंदुत्व फासीवाद के खिलाफ नाटक
‘निशांत’ के साथियों ने पचासों जगह हिंदुत्व फासीवाद के खिलाफ नाटक किए। इस अभियान के बाद हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की गयी जिस का शीर्षक था 'गुजरात: साम्प्रदायिक हमलों की चपेट में अल्पसंख्यक। आरएसएस की धार्मिक सफ़ाए की प्रयोगशाला से एक रिपोर्ट' । यह रिपोर्ट तीनों भाषाओं में नेट पर उपलब्ध है।
भरत सच-मुच में एक साहसी साथी थे जो शरीर को चुस्त रखने में कोई कोताही नहीं बरतते थे। दिल्ली से बाहर के दौरों में पूरी टीम को सुबह 5 बजे उठ ही जाना पड़ता था क्योंकि भरत की धमाकेदार कसरत शुरू हो गयी होती थी। हम सब लोग मिलकर एक बार चम्बा से बरासता भरमौर ट्रेक करते हुए मणिमहेश (जिसे छोटा कैलाश भी कहा जाता है) गए। रास्ते में कई जगह ऐसा लगा कि लौटना पड़ेगा लेकिन भारत भाई पर तो जूनून सवार था। बहुत खतरे उठाने के बाद मणिमहेश पहुँच गए और आगे आने वाले खतरों के बारे में सोच ही रहे थे कि अचानक देखा के भरत भाई कपड़े उतार कर आधी जमी झील में कूद गए हैं, हालाँकि जिस तेज़ी से गए थे उस से भी तेज़ी से बाहर आना पड़ा क्योंकि पिघली बर्फ में डुबकी लगा ना लगभग नामुमकिन था। यह सिर्फ भरत ही कर सकते थे। ऐसे ही कितने क़िस्से गंगोत्री और कुफरी की यात्राओं के हैं।
भरत साथियों की ज़रूरतों के प्रति बहुत संवेदनशील थे। ‘निशांत’ में वो ही थे जिन के पास दुपहिया गाड़ी थी, रिहर्सल ख़तम होने की बाद उन साथियों को घर छोड़ना जिन के जगहों तक ट्रांस्पोर्ट उपलब्ध नहीं थी, भरत ने अपने ज़िम्मे लिया हुआ था। इस के एक लगातार लाभ भोगी मनोज वाजपेयी भी थे। यह भरत ही थे जिन्होंने मुझे मोटरसाइकिल और मोटर कार चलाना सिखाया।
पिताजी (श्री हिम्मत भाई आचार्य दिल्ली गुजरती समाज के संस्थापकों में से एक) के देहांत के बाद पिछले काफ़ी समय से ‘निशांत’ की प्रस्तुतियों में तो हिस्सा नहीं लेते थे, लेकिन एक जीवंत सम्बन्ध बना हुआ था। वे जब परिवार के साथ प्रीत विहार जाकर बस गए तो नियमित रूप से सुबह दौड़ने जाते। उन्होंने यह देखा कि कई जगह समाज विरोधी तत्व सरकारी ज़मीन पर या सार्वजानिक पार्कों में धार्मिक चिन्ह (जैसे कि मूर्तियां, पत्थर) रख कर क़ब्ज़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। अब इसे रोकना भरत की दौड़ का हिस्सा बन गया। धमकियों के बावजूद वे इस काम में लगे रहे और लोगों को सचेत करते रहे।
‘निशांत’ के साथी उनकी पत्नी, बेटे, दीदी, छोटे भाई, भाभी और भतीजे के दुःख में बराबर के शरीक हैं।
प्यारे भरत! तुम शरीरिकक तौर पर हमारे साथ नहीं हो, लेकिन एक दोस्त, भाई, रंगकर्मी और साहसिक साथी, जिस ने पत्थर दिल दुनिया को बदलने का सपना देखा के तौर पर हमेशा साथ रहोगे।
लाल सलाम साथी !
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