अशोक वाजपेयी को तो हक नहीं कि वे कहें कि हिंदी विश्वविद्यालय में कोई काम नहीं हुआ
अशोक वाजपेयी को तो हक नहीं कि वे कहें कि हिंदी विश्वविद्यालय में कोई काम नहीं हुआ

यह नोट मैं बहुत ही दुविधा की स्थिति में लिख रहा हूँ क्योंकि इस से यह ध्वनि अवश्य निकलेगी कि मैं वर्धा, महाराष्ट्र में स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के मौजूदा वाइस चांसलर का पक्ष ले रहा हूँ जिनका कार्यकाल पूरा होने वाला है। दुविधा इसलिए कि मौजूदा वाइस चांसलर साहेब ने जब महिलाओं के बारे में अभद्र टिप्पणी की थी तो मैंने उनको आड़े हाथों लिया था और उनकी निंदा की थी। लेकिन आज ऐसा विषय है कि उनसे रिश्ते अच्छे बनाने की कोशिश करने का आरोप लगने का जोखिम उठाते हुये भी मैं अपनी राय देना अपना कर्तव्य समझता हूँ।
विश्वविद्यालय के नए वाइस चांसलर की तलाश के लिये एक कमेटी बनायी गयी है। इस कमेटी में कपिला वात्स्यायन, प्रबंध विशेषज्ञ और आईआईएम लखनऊ के पूर्व निदेशक डॉ. प्रीतम सिंह और पूर्व आईएएस अधिकारी अशोक वाजपेयी का नाम है। अशोक वाजपेयी के परिचय में उनको सांस्कृतिक प्रशासक और साहित्यकार भी बताया जाता है। सर्च कमेटी ने मौजूदा वाइस चांसलर, विभूति नारायण राय को ही एक और कार्यकाल देने का फैसला कर लिया है। लगता है कि केन्द्र सरकार की यही इच्छा है। इस फैसले में अशोक वाजपेयी साहेब का नोट ऑफ डिसेंट लगा हुआ है। उन्होने कहा है कि मौजूदा वाइस चांसलर को एक और टर्म नहीं दिया जाना चाहिए। उन्होंने आरोप लगाया है कि विभूति नारायण राय के कार्यकाल में विश्वविद्यालय ने कोई तरक्की नहीं की और विश्वविद्यालय से जो उम्मीदें थीं उन पर वह खरा नहीं उतरा। अशोक वाजपेयी का आरोप है कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय को इस वाइस चांसलर ने अंतर राष्ट्रीय क्या, राष्ट्रीय विश्वविद्यालय भी नहीं बना पाया। लिहाजा मौजूदा वाइस चांसलर को नया टर्म नहीं दिया जाना चाहिए।
सर्च कमेटी के सदस्य के रूप में उनको महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के विजिटर की तरफ से नामित किया गया है। विश्वविद्यालय के विजिटर माननीय राष्ट्रपति जी हैं, इसलिए इस बात की सम्भावना पूरी है कि अशोक वाजपेयी मौजूदा वाइस चांसलर को दूसरा कार्यकाल नहीं लेने देंगे। अगर ऐसा होता है तो इससे विश्वविद्यालय की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि 1997 में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना हुयी थी। अशोक वाजपेयी भारत सरकार के एक बड़े अफसर के रूप में इस विश्वविद्यालय की स्थापना से जुड़े रहे हैं। वे इसके पहले वाइस चांसलर भी रहे लेकिन आम तौर पर दिल्ली में ही रहते थे। शायद कभी कभी ही वर्धा तशरीफ़ ले गये हों। बताने वाले बताते हैं कि उनके कार्यकाल में इतने बड़े विश्वविदयालय में कोई खास काम नहीं हुआ लेकिन सम्बंधित लोगों का भत्ता पानी चलता रहा. और सरकारी खजाने से पैसा नियमानुसार निकलता रहा।
यह विश्वविद्यालय संसद के एक एक्ट के तहत स्थापित किया है। इसकी वेबसाईट के कुछ वाक्यांश लेकर बताने की कोशिश की जायेगी कि इसका उद्देश्य क्या रखा गया था। हिंदी भाषा और साहित्य के संवर्द्धन एवं विकास हेतु एक ऐसे आवासीय विश्वविद्यालय की स्थापना प्रस्तावित हुयी थी जो हिंदी भाषा में श्रेष्ठतर क्रियात्मक कार्यदक्षता विकसित करने में समर्थ हो, ताकि इसे एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया जा सके। इसके पहले वाइस चांसलर अशोक वाजपेयी ही थे। विश्वविद्यालय की स्थापना वर्धा में होनी थी लेकिन इन श्रीमानजी ने अपने पूरे कार्यकाल में इसका दफ्तर दिल्ली में ही रखा। वर्धा में कोई काम नहीं हुआ। दूसरे वाइस चांसलर गोपीनाथन साहेब हुये तो उन्होने विश्वविद्यालय का दफतर वर्धा शिफ्ट किया और वहाँ रहने भी लगे। थोड़ा काम-धाम शुरू हुआ। लेकिन विश्वविद्यालय को एक आवासीय विश्वविद्यालय का स्वरूप तो मौजूदा वाइस चांसलर के कार्यकाल में ही मिला। बहुत सारा काम हो रहा है और देश भर से बहुत सारे हिंदी के विद्वानों को वहाँ बुलाया जाता है और वे वहाँ रहकर काम करते हैं।
हो सकता है कि मौजूदा वाइस चांसलर का काम अशोक वाजपेयी को पसंद न आता हो लेकिन उनको यह कहने का हक नहीं नहीं है कि विभूति नारायण राय ने विश्वविद्यालय में कोई काम नहीं किया क्योंकि उसी विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर के रूप में अशोक वाजपेयी साहेब वर्धा में एक ईंट भी नहीं रखवा पाए थे और दिल्ली में रहकर वे सारी सुविधाएँ भोग रहे थे।
शेष नारायण सिंह


