असम में उल्फा राज और बंगाल में उग्र हिंदुत्व बांग्लादेश के हालात और मुश्किल बना रहे
असम में उल्फा राज और बंगाल में उग्र हिंदुत्व बांग्लादेश के हालात और मुश्किल बना रहे
दो करोड़ बांग्लादेशी शरणार्थी सीमापार घुसने के इंतजार में
पलाश विश्वास
रंग बिरंगे आतंकवादी हमले अब इस दुनिया को रोजनामचा लाइव है। न्यूयार्क 9/11 के ट्विन टावर विध्वंस के बाद यह दुनिया अप इंसानियत का मुल्क नहीं है और सभ्यता अविराम युद्ध या फिर गृहयुद्ध है। तेलकुओं की आग से धधक रही है पृथ्वी और सोवियत संघ के विभाजन से लेकर ब्रेक्सिट तक विभाजन नस्ली रंगभेदी अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद है तो वही आतंकवाद है और फासिज्म का राजकाज भी वहीं। जम्हूरियत और इंसानियत दोनों जमींदोज है तो फिजां कयामत बहार है।
असम में अल्फा केसरिया राज है और बंगाल में संघ परिवार का कैडर भर्ती अभियान चल रहा है। यह संजोग है कि कोलकाता में बांग्लादेस हाईकमीशन पर हिंदू जागरण मंच और हिंदू संहति मंच के प्रदर्शन और सीमा पर नाकेबंदी के साथ ही गुलशन ढाका में आतंकी हमला हो गया है।
भारत में हिंदुत्व का धर्मोन्मादी कार्यक्रम अपनाकर हम बांग्लादेश को तेजी से अपने शिकंजे में ले रहे इस्लामिक बाग्लादेश राष्ट्रवाद और इस्लामिक स्टेट का मुकाबला तो कर ही नहीं सकते बल्कि हमारी ऐसी कोई भी हरकत बांग्लादेश के दो करोड़ अल्पसंख्कों को कभी भी शरणार्थी बना सकती है।
हमारी हर क्रिया की प्रतिक्रिया बांग्लादेश में कई गुमा ज्यादा आवेग और वेग के साथ होती है और ऐसे हालात में वहां धर्मनरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों के लिए भी भारत की तरह अल्पसंख्यकों का रक्षाकवच बन पाना निहायत मुश्किल है।
भारत में सत्ता का केंद्रीयकरण हो चुका है और सत्ता यहां निरंकुश है तो इसके मुकाबले बांग्लादेश में सत्ता अस्थिर डांवाडोल है और वहां विपक्ष में मजहबी धर्मोन्माद भारत के सत्ता पक्ष के धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद से कहीं मजबूत है।
इसके अलावा जैसे रंगबिरंगे बजरंगियों पर न संघ परिवार और न भारत सरकार और न कानून व्यवस्था को कोई नियंत्रण है, उसी तरह बांग्लादेश में वहां की प्रधानमंत्री, सरकार और कानून व्यवस्था का कोई नियंत्रण पक्ष विपक्ष के धर्मोन्मादी आतंकी तत्वों पर नहीं है।
इसके उलट हिंदुओं की बेदखली के अभियान में आवामी लीग के कार्यकर्ता और नेता रजाकर वाहिनी और जिहादियों के मुकाबले किसी मायने में कम नहीं है। हम सिलसिलेवार हस्तक्षेप पर ऐसी रपटें भी लगाते रहे हैं।
यह संकट सुलझाने के लिए राजनीति से ज्यादा कारगर राजनय हो सकती है और फिलवक्त वह दिशाहीन है।
भारतीय राजनीति के रंग में राजनय डूब गयी है या कारपोरेटहितों के मुताबिक कारोबार ही राजनय है, ऐसा कहा जा सकता है।
इसलिए भारत से बाहर भारतीय हितों के मद्देनजर हमारी राजनय सिरे से फेल है और बांग्लादेश ही नहीं, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका समेत इस महादेश में और बाकी दुनिया में भारतीय विदेश मंत्रालय, विदेशों में भरतीय दूतावास और कुल मिलाकर भारतीय राजनय प्राकृतिक संसाधनों की खुली नीलामी और अबाध पूंजी बेलगाम मुनाफावसूली के अलावा किसी काम की नहीं है।
हालात इसलिए अग्निगर्भ है और भारतीय नागरिक इसीलिए कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं।
वे कौन से मुसलमान हैं जो पाक रमाजान माह में नमाज, रोजा और इफ्तार के अमन चैन के बाजाये कत्ल-ए-आम में मशगूल हैं।
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद की यह कथा व्यथा है जो निहायत दलित आत्मकथा नहीं है। यह इस महादेश तो क्या, पूरी दुनिया का सच है।
ढाका के राजनयिक इलाके गुलशन में आतंकी हमला, मुठभेड़ और फिर सबकुछ ठीकठाक का रोजनामचा है, मुंबई इसका भोगा हुआ यथार्थ है तो दिल्ली में चाणक्यपुरी या व्ही आईपी जोन में अभी हमला नहीं हुआ पर भारतीय संसद में हमला हो गया है और देश में कोई भी ठिकाना, कोई भी शहर, कोई भी धर्मस्थल और कोई भी नागरिक अब सुरक्षित नहीं है।
हमले किसी भी वक्त कहीं भी हो सकते हैं तो यह समस्या सिर्फ बांग्लादेश की नहीं है।
जब कोई सुरक्षित नहीं है ऐसे में हम मुक्तबाजारी कार्निवाल में अपनी छीजती हुई क्रयशक्ति और गहराते रोजगार आजीविका संकट, कृषि संकट, उत्पादन संकट और हक हकूक के सफाये के दौर में कैसे सुरक्षित हो सककते हैं, फुरसत में ठंडे दिमाग से सोच लीजिये।
बंगाल की आबादी नौ करोड़ हैं और इनमें कमसकम तीस फीसद मुसलमान हैं और बड़ी संख्या में गैरबंगाली हैं जो कोलकाता और आसनसोल दुर्गापुर शिल्पांचल से लेकर सिलिगुडीड़ी से लेकर दार्जिलिंग कलिम्पोंग तक में गैरबंगाली आबादी बहुसंख्य है।
इस हिसाब से बंगाल में हिंदू तीन करोड़ भी होगे या नहीं, इसमें शक है इसके विपरीत उत्तर प्रदेश और असम, छत्तीसगढ़ और ओड़ीशा में दलित हिंदू विभाजन पीड़ित शरणार्थी, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्र के शरणार्थी और बाकी देश में बंगाली हिंदू दलित विभाजन पीड़ित शरणार्थी दोगुणा तीन गुणा ज्यादा है, जो बंगाल के इतिहास भूगोल से बाहर विभिन्ऩ राज्यों के सत्तावर्ग और राजनीतिक दलों के गुलाम हैं। हमने लगातार उनसे सपर्क बनाये रखा है और हम उन्हें गोलबंद करने का जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं।
हमारा बंगाली विभाजन पीडित शरणार्थियों से निवेदन है कि बंधुआ वोट बैंक बने रहकर उनका कोई भला नहीं हुआ है और वे आदिवासियों की तरह एकदम अलगाव में है। इसलिए बाकी जनता के साथ गोलबंदी से ही उन्हें इस नरकयंत्रणा से मुक्ति मिल सकती है।
ऐसा हम दलितों, पिछड़ो, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों से भी कह रहे हैं कि हम अब अकेले जिंदा रह नहीं सकते इस नरसंहारी अश्वमेध समय में जबकि राजनय, राजनीति और अर्थव्यवस्था में हमारा हस्तक्षेप असंभव है और लोकतंत्र का अवसान है। समता और न्याय के लक्ष्य बहुत दूर हैं।
सच यह है कि 1947 से बंगाली हिंदू शरणार्थियों की संख्या बिना नागरिकता, बिना नागरिक और मानव अधिकारों के लगातार बढ़ती रही है। राजधानी दिल्ली और मुंबई में कोलकाता से ज्यादा शरणार्थी है और उत्तर भारत के हर छोटे बड़े शहर में उनकी भारी तादाद है तो देश भर में मेहनत मशक्कत के तमाम कामकाज में वे ही लोग हैं।
1977 में पराजय झेल चुकी इंदिरा गांधी से पिताजी पुलिनबाबू के बहुत अच्छे ताल्लुकात थे। हम होश संभालते ही पिताजी की अविराम सक्रियता की वजह से किसान आदिवासी आंदोलन के अलावा शरणार्थी समस्या से भी दो दो हाथ करते रहे हैं और देश भर के शरणार्थियों की समस्या हमें बचपन से सिलसिलेवार मालूम है।
पिताजी से हमेशा हमारी बहस का यही मुद्दा रहा है कि सिर्फ बंगाली शरणार्थी के बारे में ही क्यों, हम बाकी लोगों को लेकर आंदोलन क्यों नहीं कर सकते और क्यों शरणार्थी समस्या का स्थाई हल नहीं निकाल सकते।
अपनी जुनूनी प्रतिबद्धता के बावजूद, सबकुछदांव पर लगाकर सबकछ खो देने के बावजूद वे कुछ खास करने में नाकाम रहे और शरणार्थी समस्या और आतंक की समस्या अब एकाकार है और यह भारत के अंदर बाहर के सभी शरणार्थियों, सभी दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के जीवन मरण की समस्या है, बाकी नागरिकों के लिए भी। लगता है कि लडाई शुरु करने से पहले ही हम पिता की तरह फेल हैं।
इंदिराजी से पिताजी की हर मुलाकात से पहले उन्हें हमने बार बार आगाह किया कि वे उनपर दबाव डालें कि भारत सरकार की शरणार्थी नीति में पुनर्वास के अलावा भारतीय राजनय और राजनीति की दिशा दशा बदलने के लिए वे पहल करें।
इंदिरा गांधी तब इंदिरा गांधी थीं और तब बंगाली शरणार्थी आज की तरह संगठित भी नहीं थे। हम नहीं जानते कि गदगद भक्तिभाव के अलावा पिताजी अपने संवाद में दबाव डालने की स्थिति में थे या नहीं, क्योंकि उनके पास धन बल बाहुबल जनबल कुछ भी नहीं था।
वे अपने हिसाब से देश भर में जहां तहां दौड़ लगाते लगाते रीढ़ के कैंसर से दिवंगत हो गये 2001 में और तब से हम देख रहे हैं कि हालात लगातार बेकाबू होते जा रहे हैं और हमारे अपने लिए भी जिंदा रहना, सक्रियबने रहना कितना मुश्किल है।
1971 की तरह फिर बांग्लादेश से शरणार्थी सैलाब फूटा तो बंगाल में उनके लिए मरीचझांपी नरसंहार के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
भारत के दूसरे राज्यों में ही वे मरने खपने पहुंचेंगे और उन राज्यों में उनकी जो गत होगी सो होगी, उन राज्यों का क्या होगा, यह हसीना वाजेद की फौरी और स्थाई समस्याओं से भारी दीर्घकालीन समस्या हमारी है।
हम लगातार बताते रहे हैं कि बांग्लादेश में हालात कितने अग्निगर्भ है। पिछले साल आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अल्पसंख्यकों की बेदखली के लिए हत्या, लूटपाट, संघर्ष के अलावा 490 महिलाओं के साथ बलात्कार की वारदातें हुई हैं।
गौरतलब है कि बांग्लादेश में अब भी हिंदू, ईसाई, आदिवासी और बौद्ध समुदायों के करीब दो करोड़ अल्पसंख्यक हैं और वे लगातार निशाने पर हैं। भारत में कहीं भी कुछ घटित होता है तो उसकी तीखी प्रतिक्रिया यही होती है कि तुरंत बांग्लादेश में साफ्ट टार्गेट अल्पसंख्यकों पर हमले शुरु हो जाते हैं।
ऐसे व्यापक हमले हजरत बल प्रकरण के बाद 1964 के आसपास हुए जबकि 1960 में पूरे असम बांगाल खेदओ आंदोलन हुआ और फिर 1971 में भारत में 90 लाख शरणार्थी आ गये।
बांग्लादेश की आजादी की उपलब्धि के बावजूद उस घटना की छाप हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्ता में गहरी पैठी हुई है और 1971 से हमें निजात मिली नहीं है। जिसकी फसल हम अस्सी के दशक में बार-बार काटते रहे हैं और बम धमाकों में हमारी सबसे प्रिय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 31 अक्तूबर 1984 को हत्या हो गयीं और सिखों का नरसंहार हो गया।
उनका बेटा राजीव गांधी संघ परिवार के समर्थन से प्रधानमंत्री तो बने लोकिन श्रीलंका में शांति सेना भेजने की कीमत उन्हें भी बम धमाके में अपनी जान गवांकर अदा करनी पड़ी। अस्सी के दशक में ही असम में उल्फाई तत्वों की अगुवाई में छात्र युवा आंदोलन हुए और असम और त्रिपुरा में खून का समुंदर उमड़ने लगा।
अब वही असम अल्फा के हवाले है।
बाबरी विध्वंस के बाद बने हालात का दस्तावेज तसलिमा नसरीन का उपन्यास लज्जा है, जिनने अपने हालिया स्टेटस में भारत में गोमांस निषेध के संघ परिवार के आत्मघाती आंदोलन का हवाला देकर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद पर तीखे प्रहार किये और गुलशन में हुए हमले के दौरान जब नई दिल्ली में सभी भारतीयों के सुरक्षित होने के दावे किये जा रहे थे, तभी तसलिमा ने ट्विटर पर संदेश दे दिया कि गुलशन में भारतीय किशोरी संकट में है, जिसे भारतीय राजनय आखिर कार बचा नहीं सकी।
आप हस्तक्षेप को देख लीजिये, हम लगातार हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी और असमिया में भी सरहदों के आर पार कयामती फिजां के बारे में आपको आगाह करते रहे हैं। तसलिमा नसरीन पिछले तेइस साल से बांग्लादेश के हालात और अल्पसंख्यक उत्पीड़न की वजह से भारत में सबसे मशहूर शरणार्थी हैं तो सीमा पार से शरणार्थी सैलाब थम ही नहीं रहा है। अब दो करोड़ और इंतजार में हैं।
साल भर में कितने ब्लागरों, लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की हत्या बांग्लादेश में होती रहती है और वहां धर्मनिरपेश लोकतांत्रिक ताकतों की गोलबंदी कितनी और कैसी है, हम लगातार बताते रहे हैं।
असम चुनावों के बाद अल्फा का रंग केसरिया हो जाने के बाद असम में केसरिया अल्फाई राजकाज से गुजराचत नरसंहार से वीभत्स नरसंहारी माहौल सीमा के आर पार कैसा है, हम लगातार बता रहे हैं। लगता है कि आपने गौर नहीं किया।
पहले खाड़ी युद्ध से हम लगातार इस देश के अमेरिकी उपनिवेश बनने की चेतावनी देते रहे हैं और संपूर्ण निजीकरण और संपू्र्ण विनिवेश के विरुद्ध अपनी औकात के मुताबिक देशभर में जनमोर्चे पर सक्रिय रहे हैं।
ताजा हालात ये है कि असम में अल्फा के राजकाज में भारत चीन युद्ध के बाद अरुणाचल की चीन से लगी सीमाओं पर जैसे चटगांव से बेदखल चकमा शरमार्थियों को ढाल के बतौर बसाया गया है, भारत बांग्ला सीमा सील कर देने के ऐलान के बावजूद बीएसएफ की मदद से सीमापार से हिंदू दलितों को असम के मुस्लिम बहुल इलाकों में बसाया जा रहा है ताकि उनका इस्तेमाल भविष्य में मुसलमानों के खिलाफ दंगा फसाद में बतौर ढाल और हथियार किया जा सके।
हम हिटलरशाही की बात खूब करते हैं और यह हिटलरशाही क्या है, थोड़ा असम के डीटेंशन कैंपों में घूम लें तो पता चलेगा। यह भाजपा या संघ परिवार का कारनामा मौलिक नहीं है। कापीराइट कांग्रेसी मुख्यमंत्री तरुण गोगोई का है। जिनने नागरिकता कानून के तहत अस में दशकों से रह रहे, सरकारी सेवा में काम कर रहे लोगों को कट आफ ईअर के लिहाज से संदिग्ध विदेशी होने के जुर्म में डीवोटर करके सपरिवार इन कैंपों में डालना शुरु किया और अब संघ परिवार के निशाने पर हैं असम के तमाम मुसलमान तो अल्फा की नजर में हैं बीस लाख हिंदू शरणार्थी औऱ भारत के दूसरे राज्यों से असम आकर दशकों से आजीविका कमा रहे लोग।
हम इस नये असम के नजारे देखते हुए भी नजरअंदाज करते रहे हैं।


