आँखे खोलिए और दूसरे पक्ष को भी सुनिए “दिल्ली वाली मालीवाल जी!”
आँखे खोलिए और दूसरे पक्ष को भी सुनिए “दिल्ली वाली मालीवाल जी!”
आँखे खोलिए और दूसरे पक्ष को भी सुनिए “दिल्ली वाली मालीवाल जी!”
“दिल्ली महिला आयोग की नवनियुक्त अध्यक्ष स्वाति मालीवाल के समक्ष यौनकर्मियों के आंदोलन और उनकी स्थिति को बयान करता एक खुला पत्र”
सेवा में
श्रीमती स्वाति मालीवाल
अध्यक्ष,
महिला आयोग, दिल्ली
सबसे पहले विवादास्पद परिस्थितियों से सफलता पूर्वक अपनी नैया बाहर निकालने और राज्य महिला आयोग के सर्वोच्च पद पर पदासीन होने की क्रांतिकारी शुभकामनाएं। अपने पहले दौरे में आपने दिल्ली के रेड लाइट इलाके जीबी रोड को चुना, इससे वहां की महिलाओं में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ कि महिला आयोग की नवनियुक्त अध्यक्षा उनके सुरक्षित और अधिकारपूर्ण जीवन की वकालत करेंगी। लेकिन आपने उनके विषयों को तो उठाया मगर उनकी स्थिति को चश्मे के एक लैंस से देखते हुए आपने बेबाकी से आरोप जड़ दिया कि उनके साथ बलात्कार होता है।
मुझे इसमें कोई संदेह नही कि आपको बलात्कार और सहमति से यौन संबंध के बीच का अंतर भली भांति पता होगा। आपसे कुछ मूलभूत सवालों के बाद तथ्यों पर आना चाहूंगा।
क्या आपने वहां काम करने वाली यौनकर्मियों से बातचीत के आधार पर अपना ये क्रांतिकारी बयान दिया?
क्या आपको मालूम है कि वर्तमान में दिल्ली में कितने पुनर्वास केंद्र हैं और उनकी क्या स्थिति है?
क्या आपने जानने की कोशिश की कि वहां कि कितनी महिलाएं स्वेच्छा से पुनर्वास चाहती हैं?
क्या आपने जानने की कोशिश की कि ट्रैफिकिंग और सेक्सवर्क में क्या समानता है?
क्या आपको मालूम है कि देश की सरकार राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के माध्यम से कितना पैसा कंडोम पर खर्च कर रही है?
क्या आपको मालूम है कि देश में हजारों की संख्या में यौनकर्मियां राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम में पीयर एड्यूकेटर की भूमिका एक स्वास्थ्यकर्मी के तौर पर निभा रही हैं?
चलिए सवाल उठाना तो हम समाजसेवियों या पत्रकारों का काम है। खैर अब बात हो जाए कुछ आंकड़ों और जमीनी हकीकतों की, जिसे शायद आपके साथ जीबी रोड का दौरा करने वालों ने नही बताया होगा।
आंकड़े के अनुसार दुनिया भर में करीब 33 मिलियन लोग एचआईवी संक्रमित हैं वहीं भारत में इनकी संख्या तकरीबन 2.1 मिलियन है।
दुनिया भर में एचआईवी की जांच, जागरूकता और रोकथाम के लिए स्वास्थ्य कार्यक्रमों के तहत अरबों रूपये खर्च किया जा रहा है। भारत में भी इस दिशा में क्रांतिकारी प्रयासों की श्रृंखला देखने को मिलती है।
एचआईवी की रोकथाम के लिए यौनसंबंध बनाने के दौरान कंडोम प्रयोग करने की सलाह दी जाती है। इसके लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार और राज्य सरकारों द्वारा अपने स्तर पर विज्ञापनों द्वारा प्रचार किया जाता है।
इतना ही नही राष्ट्रीय एड्स निंयत्रण कार्यक्रम के तहत देशभर में कंडोम को निःशुल्क या सोशल मार्केटिंग के जरिए वितरित किया जाता है। इसका ही परिणाम है कि एचआईवी के ग्राफ में कमी तो आई ही है उसके साथ ही यौन संक्रमित रोगों से बचाव के उपाय खोजने और उनके प्रचार में भी सफलता मिली है।
और आपको जानकार शायद आश्चर्य हो सकता है कि National AIDS Control Organisation (NACO) ने एचआईवी के ग्राफ में गत वर्षों की अपेक्षा आने वाली कमी में सबसे बड़ा योगदान यौनकर्मियों का बताया है। वो ना सिर्फ अधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम में ‘पीयर एड्यूकेटर’ की भूमिका निभाते हुए एचआईवी से बचने का प्रचार कर रही हैं बल्कि समाज को भी इस दिशा में जागरूक कर रही हैं।
लेकिन ये सोचना हमारे लिए काफी दुखद है कि आपने कंडोम की संख्या से ये अनुमान लगाया कि दिल्ली के रेड लाइट इलाके जीबी रोड पर यौनकर्मी महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहा है।
राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के लिए ये एक सफलता है कि यौनकर्मियां अपने स्वास्थ्य को लेकर इतनी गंभीर हैं कि वो यौनसंबंध बनाते समय कंडोम का प्रयोग करती हैं। ये उन्हें यौन संक्रमित रोगों से तो बचाता ही है इसके साथ ही अनचाहे गर्भ से भी सुरक्षा देता है। सफलता ये है कि यौनकर्मियां अपने रेगुलर पार्टनर के साथ भी अब कंडोम के साथ यौन संबंध बनाती हैं। और अपने क्लाइंट को भी बिना कंडोम के यौन संबंध बनाने के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नुकसान के बारे में भी बताती हैं।
ये देश के स्वास्थ्य कार्यक्रम की सफलता का नतीजा है, ना कि इससे अंदाजा लगाया जाए कि देश का स्वास्थ्य कार्यक्रम बलात्कार के लिए प्रेरित कर रहा है।
क्या कहता है कानून और विशेषज्ञ
सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस मार्केंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच ने क्रिमिनल अपील नंबर 135 की सुनवाई करते हुए 14 फरवरी, 2011 को फैसला सुनाया था कि यौनकर्मियां भी इंसान हैं और किसी भी व्यक्ति को ये अधिकार नही कि उनके खिलाफ हिंसक कार्रवाई को अंजाम दिया जाए। यौनकर्मियों को भी देश के संविधान की धारा 21 के तहत सम्मान से जीवन जीने का अधिकार है।
डॉ सी. रंगराजन ने अपनी रिपोर्ट Commission on AIDS in ASIA में उल्लेख किया है कि यौनकर्मियों को किसी भी तरह की हिंसा से निपटने के लिए कानूनी मदद, हिंसा से बचने के लिए सुरक्षित आश्रय और उनके बच्चों को क्रेच की सुविधा देनी बहुत जरूरी है।
रंगराजन कमिटी की रिपोर्ट कहती है कि सरकार को उन सभी विधायी नियमों और अन्य अड़चनों को हटा देना चाहिए जो यौनकर्मियों को अपना संगठन बनाने और संगठित होकर अपने विकास और सदृढ़ता की तरफ बढने से रोकती है।
जस्टिस जे. एस. वर्मा कमिटी की रिपोर्ट भी महिला के सम्मानजनक जीवन जीने की तरफ इशारा करती है। रिपोर्ट के अनुसार कानून को महिला की पहचान और उसके सम्मान के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। कानून की वजह से ऐसा कोई प्रयास नही होना चाहिए जिसकी वजह से किसी भी महिला का जीवन कलंकित हो।
UN Agencies और दुनियाभर में यौनकर्मियों के आंदोलन पर अगर नज़र डालें तो ये देखने में आता है कि ट्रैफिकिंग और यौनकार्य दोनों अलग-अलग हैं। वैश्विक स्तर पर इस बात की मांग जोर पकड़ रही है कि अपनी मर्जी से यौनकार्य में आने वाली महिलाओ को जबरदस्ती इस कार्य से निकालना या उन पर होने वाले अत्याचारों को नज़रअंदाज करना, क्या किसी भी देश का संविधान या कानून इस तरह के जबरन प्रयासों को स्वीकार करेगा? यौनकर्मियों के आंदोलन का ये अहम बिंदु रहा है कि अपनी इच्छा से यौनकार्य में आने वाली महिलाओं को जबरन उनके काम से बाहर निकालना उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन ही नही बल्कि उन पर अत्याचार भी है। यौनकर्मियां किसी भी तरह की मानव तस्करी या ट्रैफिकिंग के खिलाफ हैं और इसी दिशा में ट्रैफिकिंग को रोकने के लिए एशिया के सबसे बड़े रेड लाइट इलाके सोनागाछी में यौनकर्मियों द्वारा चलाया जा रहा सेल्फ रेग्युलेट्री बोर्ड (SRB) इसका प्रमाण है कि यौनकर्मियां अपने स्तर पर ट्रैफिकिंग को रोकने का प्रयास कर रही हैं। सरकार और प्रशासनिक व्यवस्थाओं को ट्रैफिकिंग जैसी अमानवीय और बर्बर कृत्य को रोकने के लिए यौनकर्मी संगठनों को साथ में लेकर काम करना चाहिए, ना कि उनके खिलाफ राज्य पोषित हिंसात्मक तंत्र गठित करके।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 14 फरवरी, 2011 के आदेश में ये भी कहा कि यौनकर्मियों का किसी भी तरह का पुनर्वास बलपूर्वक या जबरदस्ती से ना होकर उनकी इच्छा के अनुसार होना चाहिए।
यौनकर्मियों के साथ होने वाली हिंसा, भेदभाव, स्वास्थ्य संबंधी विषयों, उनके बच्चों की शिक्षा और नीति निर्माण करने में उनके योगदान पर चर्चा के विषय आज के समय की मांग है उनका संवैधानिक हक है, ना कि यौनकर्मियों के आंदोलन और देश की सेहत को सुधारने में उनके योगदान को नज़रअंदाज करके उन्हें अपराधी बनाने की मानसिकता का समर्थन करना।
महिला आयोग की अध्यक्ष होने के नाते आपसे आशा की जाती है कि आप लाखों यौनकर्मियों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए तत्परता से विचार करेंगी और आपके बयान के बाद समाज के इस बेहद संवेदनशील और उपेक्षित वर्ग को जो पीड़ा हुई है, कम से कम उस पर आप खेद जरूर प्रकट करेंगी।
इस खुले पत्र का लेखक
अमित कुमार
यौनकर्मियों और उपेक्षित महिलाओं के संघर्षों की श्रृंखला का सहयोगी।


