जहां तक भाजपा की बात है तो उसके सामाजिक चिंतन से आंबेडकर का मूल विरोध है, तो कांग्रेस के राजनीतिक चिंतन से।
सवा सौवीं जयंती वर्ष(2015) के मौके पर राजनीतिक दलों में बाबा साहेब भीमराव रामजी आंबेडकर को अपनाने की होड़ मची हुई है। यह देखकर अच्छा भी लगता है और चिंता भी होती है। अच्छा इसलिए लगता है कि आंबेडकर की सामाजिक लोकतंत्र की विचारधारा अगर राजनीतिक दलों ने अच्छी तरह से अपना ली तो देश में जातिगत भेदभाव और आर्थिक असमानता मिट जाएगी। ऊपर से संविधान में विशेष महत्त्व दिए गए स्वाधीनता और बंधुत्व जैसे प्रधान मानवीय मूल्यों को अगर बाबा साहेब के आदर्शों के अनुरूप अपनाया गया तो इस देश को सैकड़ों सालों तक कायम रहने से कोई रोक नहीं सकता।
लेकिन आंबेडकर से लगातार टकराने, फिर अपनाने और फिर दरकिनार कर देने के बाद आज अगर कांग्रेस पार्टी उन्हें अपनाने की कोशिश कर रही है तो सवाल उठता है कि कहीं यह महज वोट की राजनीति की बाध्यता तो नहीं है? या गांधी नेहरू की विरासत वाली कांग्रेस पार्टी में अपने जनाधार के विस्तार के लिए महापुरुषों की कमी पड़ गई है? निश्चित तौर पर कांग्रेस पार्टी आज इतिहास के सबसे गंभीर संकट से गुजर रही है क्योंकि उसने यह मान लिया है कि नेतृत्व की प्रतिभा की आपूर्ति महज एक परिवार से हो सकती है। वह यह भी भूल गई कि एक परिवार दो तीन पीढ़ियों से आगे साहसी, कल्पनाशील और प्रतिभाशाली नेतृत्व नहीं दे पाता। उसकी गर्भनाल सूख जाती है और फिर जो नेतृत्व पैदा होता है वह या तो बीच-बीच में कोपभवन में जाता है या फिर महीने भर के लिए भूमिगत हो जाता है। कांग्रेस की अपनी इस प्रवृत्ति के कारण उसकी स्थिति यह हो गई है कि वह उन पंडित जवाहर लाल नेहरू तक को बचा नहीं पा रही है जिन पर उनकी 125 वीं जयंती बीतते-बीतते न सिर्फ केंद्र में संघ परिवार के राजनीतिक संगठन ने सत्ता जमा ली बल्कि उसने सुभाष बोस के परिवार की जासूसी के बहाने उन पर सबसे करारा हमला बोला है। अब सवाल यह है कि 14 अप्रैल को बाबा साहेब की जन्मस्थली मध्य प्रदेश के महू में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की रैली और साल भर के सेमिनार, सम्मेलन व अन्य कार्यक्रम क्या कांग्रेस के प्रति दलितों में आकर्षण पैदा कर पाएंगे?
यह सवाल इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि एक तरफ सत्ता से बाहर बैठी कांग्रेस अपने लुंज पुंज नेतृत्व के सहारे आंबेडकर और उनके समर्थकों से जुड़ने की कोशिश में अपने राजनीतिक पाप का प्रायश्चित करने में लगी है, तो दूसरी तरफ दिल्ली की सत्ता पर पूर्ण बहुमत के साथ काबिज भाजपा नीत एनडीए अपने वैचारिक, सांगठनिक और सरकारी लाव लश्कर के साथ आंबेडकर पर कब्जा करने में लगी है। हालांकि मुंबई में बंद पड़ी इंडस मिल्स के परिसर में आंबेडकर स्मारक बनाने का फैसला यूपीए सरकार ने लिया था लेकिन आंबेडकर जयंती पर उस परियोजना का शुभारंभ करने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जा रहे हैं। उधर संघ के मुखपत्र आर्गनाइजर और पांचजन्य ने आंबेडकर जयंती पर दो सौ पेज का विशेषांक लाने का फैसला किया है। वे इस विशेषांक की पांच लाख प्रतियां छाप रहे हैं। बताया जाता है कि इस अंक में आंबेडकर के इस्लाम के प्रति आक्रामक रुख को विशेष तरजीह दी जाएगी। मान सकते हैं कि संघ परिवार आंबेडकर का राष्ट्रीय स्तर पर हिंदूकरण करने की जोरदार तैयारी में है। हालांकि यह प्रक्रिया बहुत पुरानी है और नब्बे के दशक से ही गोपाल गुरु जैसे बुद्धिजीवी महाराष्ट्र में आंबेडकर के हिंदूकरण के प्रति सचेत करते रहे हैं। यह जानना दिलचस्प है कि 1927 में आंबेडकर व्दारा मनुस्मृति के जलाए जाने और 'एनीहीलेशन आफ कास्ट’ व 'रिडल्स इन हिंदुइज्म’ जैसे ग्रंथ लिखने को भूल कर संघ परिवार के लोग उनके 'पाकिस्तान आर पार्टिशन आफ इंडिया’ जैसे ग्रंथ को ही प्रचारित करते हैं। इसके अलावा वे उनके धर्म परिवर्तन की व्याख्या सावरकर के उस बयान के आधार पर करते हैं कि बाबा साहेब ने हिंदू धर्म से बाहर निकलने की लंबी छलांग लगाने के बजाय ऊंची छलांग लगाकर उसकी आध्यात्मिक ऊंचाई छू ली है। हिंदी इलाके के एक राजनीतिक शास्त्री इस सवाल का इस तरह से जवाब देते हैं कि बाबा साहेब ने 'रिडल्स इन हिंदुइज्म’ जैसी किताब लिखकर अगर सवर्ण हिंदुओं को पीड़ा पहुंचाई थी तो उन्होंने पाकिस्तान वाली किताब लिखकर उस पर मरहम लगा दिया। हिंदुत्ववादी विमर्श का यही मर्म है। यही कारण भी है कि 2014 के चुनाव में उदित राज, रामविलास पासवान और दूसरे दलित नेताओं ने भाजपा का साथ दिया। जीतन राम माझी का नीतीश कुमार का साथ छोड़ भाजपा की ओर लुढ़कना भी उसी तरह की घटना है। महज वे ही नहीं साथ दे रहे हैं बल्कि दलित बौद्धिकों की बड़ी जमात भाजपा की तरफ आकर्षित हुई है। रामदास आठवाले जैसे नेता तो पहले से ही उसके साथ हैं। उसकी वजह सत्ता, संसाधन और अहमियत भी हो सकती है पर ऐसा हुआ है।
लेकिन अब उन्हीं दलित नेताओं में एक प्रकार की बेचैनी है। उनमें से कई लोग मंत्री बनना चाहते थे। जो नहीं हो सका। या फिर उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा मिला और वे कैबिनेट चाहते थे। वे महज सांसद बन कर रह गए या फिर पार्टी के पदाधिकारी बन कर संतोष करना पड़ा। इन्हीं स्थितियों के बीच यह आवाजें भी उठ रही हैं कि एनडीए के बहुजन नेता न घर के न घाट के। इसी असंतोष के चलते उदित राज जैसे भाजपा सांसद ने ईसाइयों पर हमले और घर वापसी पर विरोध जताया है। देखना है कि आंबेडकर जयंती का 125वां वर्ष मना रही भाजपा और संघ परिवार के नेता दलित नेताओं की कितनी बात सुनते हैं या दलित नेता बाबा साहेब की संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की कितनी हिफाजत कर पाते हैं?
महात्मा गांधी, फुले, बाबा साहेब आंबेडकर,भगत सिंह, सुभाष, नेहरू और पटेल जैसे महापुरुषों को अपनाने की होड़ में कोई बुराई नहीं है। अगर इसे राजनीतिक दल सच्चे मन से करते हैं तो उनमें कुछ नैतिक बदलाव और त्याग की भावना आएगी। उनकी राजनीतिक और सामाजिक समझ को नया आयाम मिलेगा। लेकिन सवाल यह है कि आंबेडकर के सामाजिक और राजनीतिक चिंतन को क्या महज वोट के लिए अपनाया जा रहा है या वास्तव में भारत में सामाजिक लोकतंत्र लाने के लिए? जहां तक भाजपा की बात है तो उसके सामाजिक चिंतन से आंबेडकर का मूल विरोध है, तो कांग्रेस के राजनीतिक चिंतन से। शायद यही वजह है कि 68 साल की आजादी के बाद भी भारत में दलितों की स्थिति में वह बदलाव नहीं आया जो आना चाहिए था। भले ही आंबेडकर के चिंतन पर आधारित होने का दावा करने वाली बहुजन समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रांत में प्रादुर्भाव और पराभव हुआ और महाराष्ट्र में तमाम छोटे-छोटे आंबेडकरवादी दल उठे और बिखर गए।
बाबा साहेब ने 1927 में महाड के चावदार झील से दलितों को पानी पीने का हक देने के लिए आंदोलन चलाया और उसी साल उन्होंने मनुस्मृति जलाई। उन्होंने 1930 में नासिक के कलाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए तकरीबन 150000 लोगों के साथ मार्च किया लेकिन पुजारियों ने मंदिर के पट बंद कर दिए। उसके बाद विचार और कर्म के स्तर पर और संवैधानिक स्तर पर आरक्षण से लेकर उन्होंने सामाजिक न्याय के तमाम प्रयास किए और संविधान में आर्थिक लोकतंत्र की भी व्यवस्था नीति निदेशक तत्वों के माध्यम से की। क्योंकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाबा साहेब आधुनिक भारत के सबसे बड़े अर्थशास्त्री थे। स्वयं अमर्त्य सेन उन्हें अपने अर्थशास्त्र का पिता कहते हैं।
उनके इन प्रयासों के बावजूद अगर आज देश में हर चौथा व्यक्ति छूआछूत का पालन करता है तो यह स्थिति बेहद सोचनीय है। उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि छूआछूत महज ब्राह्मणों के साथ-साथ देश के सभी धर्मों और जातियों में है। यानी जाति की गुलामी काफी व्यापक है और उसके हिस्से समाज के सभी तबके हैं। एनसीईआर और यूनिवर्सिटी आफ मार्लिन की तरफ से देश के 42,000 घरों में किए गए सर्वे के अनुसार देश के 27 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में छुआछूत की प्रथा में जकड़े हुए हैं। इस प्रथा का पालन सबसे ज्यादा ब्राह्मण 52 प्रतिशत, गैर ब्राह्मण सवर्ण 24 प्रतिशत करते हैं, लेकिन छूआछूत मानने वालों में ओबीसी भी 33 प्रतिशत हैं। अनुसूचित जातियों में छूआछूत 15 प्रतिशत और जनजातियों में 22 प्रतिशत है। यह प्रथा हिंदुओं में 30 प्रतिशत, सिखों में 23 प्रतिशत, मुस्लिमों में 18 प्रतिशत, जैनियों में 35 प्रतिशत और ईसाइयों में 5 प्रतिशत तक पाई जाती है।
अगर राज्यों के आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो चार बार बहुजन समाज पार्टी के शासन में रहे उत्तर प्रदेश में यह प्रथा 43 प्रतिशत और तमाम वामपंथी और समाजवादी आंदोलनों का गढ़ रहे बिहार में 47 प्रतिशत है। छुआछूत की सबसे ऊंची दर मध्य प्रदेश में 53 प्रतिशत है जो कि संघ परिवार की प्रयोगशाला है। हिमाचल और छत्तीसगढ़ क्रमशः उसके आसपास 50 प्रतिशत और 48 प्रतिशत बताए जाते हैं। लेकिन शुक्र मनाइए कि महात्मा फुले और आंबेडकर की कर्मभूमि महाराष्ट्र में छुआछूत महज 4 प्रतिशत है। केरल और पश्चिम बंगाल में यह क्रमशः 2 प्रतिशत और 1 प्रतिशत है। निश्चित तौर पर इन उपलब्धियों के पीछे अगर आंबेडकर और फुले के सामाजिक आंदोलनों का योगदान रहा तो वामपंथी दलों के आंदोलन के भी प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता। आर्थिक और शैक्षणिक तरक्की के भी आंकड़े दलितों के विरुद्ध हैं। अगर 37 प्रतिशत दलित गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं तो 54 प्रतिशत बच्चे कुपोषित और 45 प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। देश में हर दिन तीन दलित महिलाओं से बलात्कार होता है, दो दलितों की हत्या होती है और उनके दो मकान जलाए जाते हैं। दूसरी तरफ अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम में सजा पाने की दर सिर्फ 15.71 और लंबित मुकदमों की दर 85 प्रतिशत है।
जाहिर है कि बाबा साहेब का पुण्य स्मरण तभी हो सकेगा जब भारतीय समाज में छूआछूत पूरी तरह से खत्म हो, दलितों पर अत्याचार बंद हो और उनकी आर्थिक और सामाजिक बराबरी सुनिश्चित हो। संभवतः भाईचारे की यही शर्त है, क्योंकि उसका भी कायम होना संविधान और बाबा साहेब की सच्ची भावना है। अब देखना है कि बाबा साहेब राजनीतिक दलों की खींचतान में फंस कर थक जाते हैं या वे फिर अपने अथक बेचैनी के साथ इस मायाजाल को झटक कर उठ खड़े होते हैं और यह साबित करते हैं कि वे संविधान लेखन में हिंदुओं के औजार नहीं थे(जैसा कि वे कहते हैं कि जब हिंदुओं को वेद की रचना करनी हुई तो वेदव्यास को बुलाया जो कि ब्राह्मण नहीं थे और जब महाकाव्यों की रचना करनी हुई तो वाल्मीकि को बुलाया जो कि अछूत थे और जब संविधान रचना हुआ तो मुझे बुलाया) बल्कि संविधान उनके चितंन का एक जीवंत दस्तावेज है जो कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश को लंबे समय तक संभाल सकता है।
अरुण कुमार त्रिपाठी
अरुण कुमार त्रिपाठी, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं।