आंबेडकर के मूलगामी सपने को आगे बढ़ाओ
प्रकाश कारात

डा0 बी आर आंबेडकर की 125वीं सालगिरह, इस 14 अप्रैल को पड़ी। इस मौके पर देश भर में उनके जीवन और कार्य की चर्चा हुई। इस असाधारण हस्ती के जीवन और काम के जिन पहलुओं को रेखांकित किया जा रहा है उनमें जातिविरोधी योद्धा, दलितों के मुक्तिदाता, समाज सुधारक, संविधान के निर्माता और महिलाओं के अधिकारों के अलमबरदार जैसे पहलू खास हैं। इसके साथ ही साथ, आंबेडकर की विरासत के लिए चुनौती भी पेश की जा रही है और सांप्रदायिक-संकीर्णपंथी ताकतें उसे गड़प करने की भी कोशिशें कर रही हैं।
इस मुकाम पर यह जरूरी है कि आंबेडकर के मूलगामी जनतांत्रिक सपने को और सच्चे जनतंत्र के आधार के रूप में सामाजिक मुक्ति के उनके संदेश को बचाया जाए। इसकी वजह यह कि आंबेडकर सबसे बढक़र तो एक मूर्तिभंजक थे, जिन्होंने उस असमानतापूर्ण समाज व्यवस्था पर हल्ला बोला था, जिसकी रीढ़ शोषणकारी जाति व्यवस्था है। इस संदर्भ में आंबेडकर को महज एक समाज सुधारक मानना नाकाफी होगा। अपने अनेक समकालीनों के विपरीत, वह न तो जाति व्यवस्था को सुधारने का लक्ष्य लेकर चल रहे थे और न हिंदू धर्म को सुधारने का लक्ष्य लेकर। वह जाति व्यवस्था और हिंदू धर्म, दोनों की भर्त्सना करते थे। 1925 में ही आंबेडकर ने मनुस्मृति दहन दिन का आयोजन किया था जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति को जलाया था। वह गांधीजी के अस्पृश्यताविरोधी अभियान को, सवर्णों के हित साधने का तथा वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने का ही औजार मानते थे। जाति व्यवस्था तथा उसको थामे रहने वाली ब्राह्मïणवादी व्यवस्था के खिलाफ आंबेडकर का समझौताहीन संघर्ष, उनके मूलगामी जनतांत्रिक दर्शन से ही उत्प्रेरित था।
उनके राजनीतिक तथा दार्शनिक झुकावों को देखते हुए, आंबेडकर को एक उदारतावादी जनतंत्रवादी कहा तो जा सकता है, फिर भी उन्हें इसी रौशनी में देखना सही नहीं होगा। कुछ लोग आंबेडकर को, ‘‘संवैधानिक जनतंत्रवादी’’ कहकर भी सराहते हैं, लेकिन यह भी उनके साथ अन्याय ही करना है। आंबेडकर की मूलगामिता, पूंजीवादी उदारवाद की सीमाओं को पार करने वाली मूलगामिता थी। उन्होंने आगाह किया था कि जब तक सामाजिक तथा आर्थिक समानता नहीं आती है, देश में जो संवैधानिक तथा राजनीतिक जनतंत्र कायम किया जा रहा है, सतही ही बना रहेगा। उनका आर्थिक कार्यक्रम परंपरागत पूंजीवादी नियम-कायदों से बहुत आगे तक जाता था। अर्थव्यवस्था पर शासन के नियंत्रण की उनकी पैरवी का जब इस आधार पर विरोध किया गया कि इससे ‘स्वतंत्रता’ बाधित होगी, आंबेडकर ने इसका जवाब देते हुए कहा था:

‘‘यह स्वतंत्रता किसे और किस के लिए है? जाहिर है कि यह स्वतंत्रता, जमींदारों लगान बढ़ाने की, पूंजीपतियों के लिए काम के घंटे बढ़ाने और मजदूरी की दरें घटाने की स्वतंत्रता है।’’
आंबेडकर, महिलाओं के अधिकारों के अविचल योद्धा थे। आजादी के बाद बने पहले मंत्रिमंडल के विधिमंत्री की हैसियत से उन्होंने ‘हिंदू कोड बिल’ प्रस्तुत किया था, जो महिलाओं को संपत्ति पर अधिकार और विरासत का अधिकार देता था। खुद कांग्रेस के अंदर से और हिंदू पुराणपंथ की ताकतों के प्रतिरोध के सामने आंबेडकर ने, इस मुद्दे पर समझौता करने के बजाए, मंत्रिपद छोडऩा ही ज्यादा पसंद किया।
भाजपा और संघ की जोड़ी आंबेडकर को हड़पने की बढ़-चढक़र कोशिशें कर रही है। इसके लिए वे बड़े भोंडे तरीके से आंबेडकर के विचारों तथा लेखन को विकृत कर रहे हैं। इसके लिए उनके लेखन से संदर्भ से काटकर छांट-छांटकर कुछ उद्घरण पेश करने की तिकड़म का सहारा लिया जा रहा है। आंबेडकर को एक हिंदू समाज सुधारक और इस्लाम के कट्टर विरोधी के रूप में पेश किया जा रहा है। इसके लिए उनके हिंदू धर्म का त्याग करने और बौद्घ धर्म में धर्मांतरण करने की भी लीपापोती करने की कोशिश की जाती है। मकसद यही है कि आंबेडकर को, हिंदू महानों की संघ की चित्रशाला में एक दलित चित्र के तौर पर टांग दिया जाए।
सचाई का इससे बढक़र निरादर नहीं हो सकता है। आंबेडकर, हिंदू महासभा और आरएसएस की विचारधारा के पूरी तरह से खिलाफ थे। वास्तव में उन्होंने तो यह भी लिखा था कि,

‘‘अगर कहीं हिंदू राज सच में आ गया, तो यह देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी।’’
आंबेडकर की नजरों में स्वतंत्रता, समता तथा भाईचारा, किसी भी सभ्य समाज के लिए सबसे वांछित सिद्धांत थे। उनके हिसाब से तो वर्णाश्रम धर्म की धारणा और हिंदू शास्त्र, सिरे से लगाकर उक्त सिद्धांतों के खिलाफ पड़ते थे। मुसलमानों तथा अन्य अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाली सर्व-हिंदू गोलबंदी में दलितों को खींचे जाने की कोशिशें का आंबेडकर ने डटकर कड़ा मुकाबला किया होता।
हमारे देश के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान, मुक्ति की तलाश में अनेक धाराएं तथा विचारधाराएं सामने आयी थीं। कम्युनिस्टों और आंबेडकर के बीच भी दृष्टिकोण और विचारधारा की अनेक भिन्नताएं थीं। इसके बावजूद, दोंनों के बीच बहुत दूर तक साझा भी था क्योंकि ये दोनों ही धाराएं, स्वतंत्रता तथा स्वाधीनता के आधार के रूप में, आर्थिक व सामाजिक मुक्ति के लिए संघर्ष कर रही थीं।
यह जरूरी है कि आंबेडकर को, उनके मूलगामी मुक्तिदायी सपने से काटकर, महज आरती की तस्वीर बनाने की कोशिशों से बचाया जाए। अनेक दलित नेता भी इसके दोषी हैं कि वे आंबेडकर को ऊंचे आसान तो रखते हैं, लेकिन उनकी विरासत को आरक्षण तथा कोटों की राजनीति तक सीमित कर देते हैं, जो उन्हें सत्ताधारी राजनीति का पिछलगा बना देता है। आंबेडर के संदेश के विशद मुक्तिदायी विस्तार और उसकी सार्वभौमिकता को, दलित तथा जातिवरोधी आंदोलनों प्रवाहित होना चाहिए। सामाजिक मुक्ति का ऐसा मंच, भारत में वर्ग संघर्ष का भी अभिन्न अंग है। यही भारत में कम्युनिस्टों के लिए आंबेडकर की चिर-प्रासंगिकता है।
आज जब सांप्रदायिकता तथा नवउदारवाद के झंडों के तले प्रतिक्रिया की ताकतें अपना बल बढ़ा रही हैं, संघर्ष की उक्त दो धाराएं-वामपंथी आंदोलन तथा आंबेडकरवादी आंदोलन-आपस में मिल रही हैं। इस वृहत्तर एकता को अगर आगे ले जाना है, तो आंबेडकर के वास्तविक महत्व तथा विरासत को पहचानना होगा तथा आत्मसात करना होगा।