आखिर किसान क्यों मर रहे हैं?
आखिर किसान क्यों मर रहे हैं?
25 मार्च की शाम राजस्थान के आपदा प्रबंधन मंत्री गुलाबचंद कटारिया का विधानसभा में दिया बयान राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खी बन चुका था. मंत्री जी ने किसान आत्महत्या पर झुंझला कर कहा, ‘अगर कोई खुद को पेड़ से लटका ले तो इसमें सरकार क्या करे.’ दिल्ली से कोटा रवाना होते समय मेरे दिमाग में भी यही सवाल यही था कि आखिर किसान क्यों मर रहे हैं?
15 मार्च को पश्चिमी विक्षोभ की वजह से हुई ओला वृष्टि ने पूरे प्रदेश की रबी की फसलों को बर्बाद कर दिया. 9 अप्रैल को सरकार द्वारा पेश नुकसान के आंकलन की मानें तो प्रदेश के कुल 21083 गांव इस ओलावृष्टि से प्रभावित हुए. इसमें से 1532 गांव सौ फीसदी खराबे का शिकार हुए. 6227 गावों में 50 से 75 फीसदी नुकसान देखने को मिला. वहीँ 13324 गांव 50 फीसदी या इससे कम प्रभावित रहे. सरकार के आंकलन के अनुसार कुल 8574.74 करोड़ का नुकसान झेलना पड़ा. यह आंकड़ा समर्थन मूल्य के हिसाब से तैयार किया गया था इसलिए इसे एक भ्रामक तथ्य की तरह ही लिया जाना चाहिए. अगर यह आंकलन बाजार भाव से किया जाए तो यह 22500 करोड़ के लगभग बैठता है.
फसल
रकबा
(लाख हैक्टेयर)
अनुमानित पैदावार (लाख मैट्रिक टन)
नुकसान
(फीसदी)
अनुमानित कीमत
(बाजार भाव से )
गेंहूं
29
99
65
9652 करोड़
सरसों
26
34
65
8254 करोड़
जौ
4
13
65
276 करोड़
चना
15
1.27
60
276 करोड़
जीरा
4
2
90
2880 करोड़
सरकारी आंकड़ों और वास्तविक नुकसान के फर्क से आप समझ ही गए होंगे कि इस बार फिर से मुआवजे के नाम पर किसानों को जिल्लत का शिकार होना पड़ेगा. वैसे भी हमारी सरकारों का 59 रूपए के चेक देने का इतिहास रहा है. इस बार जिल्लत को प्रहसन के रूप में दोहराने की भूमिका बांधी जा चुकी है.
राजस्थान में गंगानगर के बाद सबसे ज्यादा धान उपजाने वाला क्षेत्र है हाड़ौती. चंबल और उसकी सहायक कालीसिंध और पार्वती की नहरी परियोजना के जरिए दो लाख हैक्टेयर जमीन पर सिंचाई व्यवस्था है. अरावली और मालवा के पठार के बीच बसा उपजाऊ क्षेत्र जहां किसान आत्महत्या का कोई इतिहास नहीं रहा है. अब तक कोटा, बूंदी और बारां इन तीन जिलों में 30 से ज्यादा किसानों ने या तो आत्महत्या कर ली है या फिर सदमें की वजह से दम तोड़ दिया है. आप गुमराह ना हों इसलिए बता दूं कि सरकारी दस्तावेजों में जिन 34 व्यक्तियों के वर्षाजनित हादसों में मरने का जिक्र है वो इस श्रेणी में नहीं है. सरकार की नजर में दिल का दौरा पड़ना प्राकृतिक मौत है जबकि जहर पीने वाले और फांसी से लटकने वाले लोग पारिवारिक कलह का शिकार हैं.
रबी की फसल सिंचित क्षेत्र के किसानों के लिए ‘पिता का कंधा’ होता है. खरीफ़ की फसल खराब होने पर भी किसान की हिम्मत पस्त नहीं होती. उसे पता होता है कि चंद महीनों बाद ही उसके खेत में गेंहूं की सुनहरी बालियां होंगी जो सारा कर्जा पाट देंगी. इस बार पश्चिमी विक्षोभ ने पिता के इस कंधे को तोड़ डाला. एक के बाद एक किसान दिल और पड़ने से दम तोड़ने लगे. जिनके दिल मजबूत थे उन्होंने जहर खा लिया या पेड़ से लटक गए. तो क्या कहानी इतनी सपाट है?
हरित क्रांति के दौर में पूरे हाड़ौती में नहर सिंचाई परियोजना की शुरुआत हुई. पंजाब से किसान यहां बसाए गए ताकि यहां के लोग नहरों और रासायनिक खादों से खेती करना सीख सकें. इसके बाद किसानों को धीरे-धीरे नकदी फसलों की तरफ धकेला गया. रासायनिक खाद का जम कर प्रयोग किया गया. इस पूरी प्रक्रिया में पारंपरिक फसलों और फसल चक्र की बुरी तरह से अनदेखी की गई. फास्फोरस जैसे कई हानिकारक रासायनिक तत्व मृदा में संतृप्तता के स्तर पर पहुंच गए. नतीजा यह हुआ कि यहां बड़े पैमाने पर बोई जाने वाली सोयाबीन के बीज मिट्टी में मिट्टी बन कर रह गए. यहां लगातार तीन साल से खरीफ़ की फसल में किसानों को नुकसान झेलना पड़ा. इस बार रबी की फसल भी चौपट होने से किसानों की कमर टूट गई.
भूमि सुधार कानूनों के लागू होने का कोई इतिहास यहां नहीं रहा है. ऐसे में बड़े भूस्वामियों की तादाद यहां काफी अच्छी है. ये भूस्वामी अपनी जमीन छोटे काश्तकारों को लीज पर देते हैं. इसे यहां मुनाफा या जवारा कहा जाता है. यह व्यवस्था शोषण के मामले में उत्तर भारत की बटाईदारी व्यवस्था का अगला चरण है. इसमें भूस्वामी काश्तकार को निश्चित दर पर साल भर के लिए अपनी जमीन किराए पर देता है. यहां सात से दस हजार प्रति बीघा मुनाफा वसूला जाता है. यह भुगतान साल की शुरुआत में करना होता है. इस तरह खेती में होने वाले जोखिम से भूस्वामी अपने आप को साफ़ बचा लेता है.
मुनाफे की रकम अदा करने के लिए किसान वित्तीय संस्थाओं से कर्ज लेता है. किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए मिलने वाला बैंक लोन, सहकारी बैंक और महाजन कर्ज के तीन प्रमुख स्त्रोत हैं. सीएसडीएस के कृषि पर हालिया सर्वे से सस्ते दर पर लोन देने के सभी सरकारी दावों की पोल खुल जाती है. सर्वे बताता है कि महज 15 फीसदी किसानों के पास ही किसान क्रेडिट कार्ड है. सहकारी बैंकिंग के हालात यह हैं कि प्रदेश के 29 में से 17 सहकारी बैंक बंद होने के कगार पर हैं क्योंकि रिजर्व बैंक के मानकों के अनुसार इनके पास सात फीसदी का कैपिटल रिजर्व नहीं बचा है. बाकी 12 की भी हालत पस्त है. राज्य सरकार ने इस वित्तीय वर्ष में सहकारी बैंकों के जरिए 1700 करोड़ का कर्ज किसानों को देने की घोषणा की है. इस घोषणा को किस तरह से देखा जाए? किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए बैंक लोन लेते समय सशर्त पूरी फसल का बीमा करवाना होता है. सहकारी बैंक भी कर्ज देते समय दो हैक्टेयर तक का बीमा करते हैं. सीएसडीएस का सर्वे बताता है कि 67 फीसदी किसान फसल बीमा नहीं करवाते हैं. ये 67 फीसदी वो हैं जो कर्ज के लिए स्थानीय महाजन पर निर्भर हैं. ये लोग 24 से 60 फीसदी सालाना की दर से ब्याज देते हैं. यह दर आपके होम लोन और कार लोन से पांच गुना ज्यादा है.
किसानी इस दौर का सबसे जोखिम भरा रोजगार है. अगर राजस्थान की बात करें तो 1981 से 2015 तक प्रदेश के किसानों ने 32 साल अकाल झेला है. इसमें से 15 साल ऐसे हैं जिनमें 32 में से 25 जिले अकाल से प्रभावित रहे हैं. इसके अलावा 2008, 11,13 और 15 में ओले गिरने से रबी की फसल तबाह हुई है. सीएसडीएस के सर्वे के अनुसार 67 फीसदी लोग गांव छोड़ कर जाना चाहते हैं अगर उन्हें शहर में कोई रोजगार मिल जाए. अब आप कहेंगे कि सरकार मुआवजा तो देती है ना. तो पहले इस मुआवजे की प्रक्रिया को समझ लिया जाए.
सबसे पहले पटवारी नुकसान की रिपोर्ट तैयार कर तहसीलदार को भेजता है. तहसीलदार इस रिपोर्ट को क्रॉसचेक करके एसडीएम को भेजता है. एसडीएम इस रिपोर्ट को कलेक्टर के मार्फ़त आपदा प्रबंधन विभाग को भेजता है. विभाग इसे केन्द्रीय गृह मंत्रालय और राज्य सरकार को भेज देती है. गृह मंत्रालय रिपोर्ट को वित्त मंत्रालय भेजता है. वित्त मंत्रालय इसकी जांच कृषि मंत्रालय के जरिए करवाती है. कृषि मंत्रालय की टीम मौके पर जा कर रिपोर्ट क्रॉस चेक करती है संशोधित रिपोर्ट वित्त मंत्रालय को भेजती है. वित्त मंत्रालय इस रिपोर्ट के आधार पर मुआवजा तय करता है. यह मुआवजा रिवर्स प्रोसेस के जरिए कलेक्टर के मार्फ़त किसानों तक पहुंचता है. इस प्रक्रिया के शुरुवाती और अंतिम चरण में किसान को घूस देनी पड़ती है. इस पेचीदगी भरी प्रक्रिया में किसान के हाथ क्या लगता है?
सरकार के द्वारा तय किए मापदंडों के अनुसार असिंचित भूमि के लिए 1088रु.,सिंचित भूमि के लिए 2160रु., और डीजल पम्प द्वारा सिंचित भूमि के लिए 3000 रूपए अधिकतम मुआवजा प्रति बीघा दिया जा सकता है. अधिकतम का मतलब है जब आपकी फसल सौ फीसदी ख़राब हुई हो. इस मुआवजे के हकदार आप तभी बनते हैं जब पूरी तहसील में पचास फीसदी नुकसान हुआ हो. जब प्रीमियम के लिए खेत को इकाई मान कर पैसा वसूला जाता है तो बीमा के भुकतान के लिए तहसील को इकाई मानने के पीछे का तर्क समझ से परे है.
इसके अलावा किसान क्रेडिट कार्ड पर कर्ज लेने के लिए किसानों को सशर्त बीमा करवाना पड़ता है. इसका प्रीमियम बैंक कर्ज देने से पहले काट लेते हैं. फसल बीमा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियां काफी सक्रीय हैं. इन कंपनियों के लिए पटवारी द्वारा पेश की गई रिपोर्ट की जगह कूड़ेदान है. ये अपने वेदर स्टेशन के जरिए नुकसान का आंकलन करती है. यह प्रक्रिया पूरी तरह से अवैज्ञानिक, भ्रामक और किसानों की आँख में धूल झोंकने के लिए अपनाई गई है. अक्सर वेदर स्टेशन बंद हालात में पाए जाते हैं. इनका अंदाजा इस बात से लगता है कि पिछले 6 साल में 1800 करोड़ रूपए किसानों से वसूले गए हैं जबकि बीमा की अदायगी का औसत महज 50 करोड़ रूपए प्रति वर्ष है.
अब दस हजार रूपए प्रति बीघा मुनाफा की दर के आंकडे को मजबूती से दिमाग में बैठा लीजिए. इसके बाद पुलिस की निगरानी और लाठीचार्ज के बीच खाद की एक बोरी के लिए घंटों लाइन में लगने की जिल्लत को भी जोड़ लीजिए. तीन गुनी दर पर खरीदे गए बीज, और चार महीने की मेहनत को भी जोड़ लीजिए. इस पूरे तंत्र को रामनगर के वरुण बैरागी बड़े सपाट लहजे में बयान करते हैं. ‘जब फसल कटने का समय आता है तो भाव अचानक गिर जाते हैं. जो गेंहू हम 1200 रूपए में बेचते हैं वो दो महीने बाद ढाई हजार के भाव से बिकता है. जब हमें बीज की जरुरत होती है तो भाव सात हजार पर चले जाते हैं.” बहरहाल प्रधानमंत्री ने इस साल के लिए मुआवजे की रकम में पचास फीसदी बढ़ाने की घोषणा कर दी है.
इधर इस बार के पश्चिमी विक्षोभ ने मौसम विज्ञानियों की चिंता बढ़ा दी है. फरवरी और मार्च के महीने में औसतन 3-4 पश्चिमी विक्षोभ गुजरते हैं. इनका प्रभाव सिमित ही रहा है. इस बार 20 दिन में 10 विक्षोभ रबी की पूरी फसल रौंदते हुए निकल गए. अगर अप्रैल के अंत तक मौसम ऐसा ही रहा तो मानसून के महीने भर की देरी से आने की संभावना बन जाती है. ऐसे में अगली खरीफ़ की फसल पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं.
स्वामीनाथन कमिटी ने 2006 में सिफारिश की थी कि लागत में 50 फीसदी लाभांश जोड़ कर समर्थन मूल्य तय किया जाए. स्वामीनाथन कमिटी की सिफारिश लागू करना बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र का सबसे चमकीला हिस्सा था. अब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा पेश कर कहा है कि इस दर पर समर्थन मूल्य नहीं दिया जा सकता. इसके अलावा केंद्र ने सर्कुलर जारी कर राज्य सरकारों को हिदायत दी है कि समर्थन मूल्य पर बोनस देने वाले राज्यों से केंद्र कोई खरीददारी नहीं करेगा. ‘जय जवान,जय किसान’ का नारा एक बार फिर से दिल्ली की सियासत में जवान हो चुका है.
जो सवाल मैं दिल्ली से ले कर चला था उसका सबसे सटीक जवाब दिया स्थानीय किसान बलदेव सिंह ने. ‘आप पर लाखों का कर्ज हो और आपकी साल भर की कमाई चोरी हो जाए तो आप क्या करेंगे? सोच कर देखिए अगर यह लगातार तीन साल से हो रहा हो तो?’
कोटा से झांसी की ट्रेन पकड़ते समय खबर मिली कि 50 वर्षीय एक किसान 10 बीघे की कटाई में मिले डेढ़ क्विंटल गेंहू को देख कर खेत में गश खा कर गिर गया. अस्पताल पहुंचना तो दूर खेत से घर पहुंचने के दरम्यान ही उसने दम तोड़ दिया. उसका नाम भी प्राकृतिक मौत के खाते में दर्ज कर दिया जाएगा.
विनय सुल्तान


