आज की कविता – प्रतिनिधि स्वर, सपना चमड़िया की कविताएं - I
आज की कविता – प्रतिनिधि स्वर, सपना चमड़िया की कविताएं - I
सपना चमड़िया की कविताएं
पिछले दो दशकों में हिन्दी कविता उभर रही अस्मिताओं के कारण ज़्यादा लोकतान्त्रिक हुई है। साथ ही इन अस्मिताओं ने अपने खिड़की-दरवाजे खोले हैं और एक अर्थ में इनका भी लोकतान्त्रीकरण हुआ है। अस्मिता की वास्तविक समझ इस बात पर निर्भर करती है, कि उसे कितने बड़े सन्दर्भ में देखा-समझा जा रहा है। स्त्रीवाद अगर परिवार को सन्दर्भ बनाता है तो चीजें बहुत मूर्त रूप में सामने आएँगी और उन सत्ताओं से लड़ना भी आसान होगा। पर संभवतः यह छाया को पीटना होगा जिससे समस्या का हल नहीं मिलेगा। पर जब स्त्रीवाद लैंगिक संरचना को मज़बूत करने वाले सूत्रों को पकड़ना शुरू करता है तो चीजें बहुत विस्तृत (कई बार नज़र की जद से छूटती हुई), अंतर्विरोधी और अमूर्त होती जाती हैं। अनगिनत परिच्छेदी अस्मिता व पहचानों का संजाल मिलता है। यहाँ उसे गहन सांस्कृतिक विमर्श में उतरना पड़ता है और उसे मिलता है कि पूरी दुनिया ही पुंसवाद के महीन तारों से बुनी गई है। अब वह चीजों को उसकी द्वंदात्मकता में पकड़ना शुरू करती है और अन्य अस्मिताओं के साथ समंजित होती हुई सूक्ष्म वास्तविक सत्ताओं तक पहुँच संभव कर लेती है। आज स्त्रीवाद का सन्दर्भ परिवार से निकल वैश्विक संरचना तक फैल चुका है। वह जानती है कि इस वर्गीय संरचना के अंदर मुक्ति संभव नहीं।
इस संरचना को ‘रिप्लेस’ किए बिना मुक्ति की चाहत बँधी नाव में चप्पू मारना होगा। अतः यह आवश्यक है कि इस संरचना के खिलाफ़ संघर्षरत ताक़तों से जुड़ा जाए। इस तरह यह लड़ाई बहु-विमीय होगी। इस समझ से ही आज स्त्रीवाद वैश्वीकरण विरोधी एक सशक्त आवाज के रूप में विकसित हुआ है। इसने वैश्वीकरण के जेंडर निरपेक्षता के दावे को झुठलाते हुए, इसकी ‘सेकसिस्ट टेंडेंसीज़’ और पुंसवादी सोपानक्रम को मज़बूत करने वाली सबसे बड़ी ताक़त के रूप में दिखाया। स्त्रीवादी किसी भी तरह के शोषण व दमन को पितृसत्ता के ‘प्रोटोटाइप’ की तरह लेते हुए अपने को विस्तृत संघर्ष से जोड़ता है। एक वक्तव्य में सपना चमड़िया लिखती हैं-
“धीरे-धीरे हम समाज और राजनीति के बड़े दायरे को अपनी कविताओं में समेटने की कोशिश करते हैं। जो लेखिकाएँ ऐसा नहीं कर पातीं वो सिर्फ़ ...एक तरह के भाववाद के संजाल में फँसी रहती हैं। मैंने इसे तोड़ने की कोशिश की है”।
इस तरह का भाववाद न केवल दुनिया से कटा हुआ होगा बल्कि स्त्री मुक्ति की भी संकीर्ण समझ को दर्शाता है। सपना जी इसे ठीक से समझती हैं। उनका वक्तव्य सिर्फ़ कहने के लिए कहना नहीं है, उनकी कविताएँ इसे प्रमाणित करती हैं। इनमें सिर्फ़ सामाजिक-जातिगत अन्याय के पहाड़ को खोदते और प्रेम की ऊष्मा से भरे दशरथ माझी ही नहीं हैं। इनमें अनवर चाचा हैं, इसमें गुजरात और अफ़गानिस्तान की माएँ हैं, अस्ति-नास्ति के बीच फँसा कश्मीर है, पल-छिन हिंसा के शिकार हम हैं। और साथ ही लड़ने का ताप भी है। यहाँ अनवर चाचा के प्रति वैष्णवी सदाशयता नहीं है। अनवर चाचा सदाशयता की माँग भी नहीं करते, वे अपने ठेठ पन में प्यार करते हैं और वही चाहते भी हैं। इस कविता में बाल कविता-सी सहजता है (हालाँकि सांस्कृतिक संदर्भों के कारण यह अपने अन्दर उथल-पुथल से भरी हुई है)। इसका कारण यह है कि बिहू भी इसकी एक विमा है। कहे में यह कविता कवयित्री की है पर देखे में बिहू की। झूठ और प्रपंच पर प्रेम तब विजयी होता है जब बिहू कहती है-
“मैं अपनी किताब का मुँह
चाकलेट से भर देना चाहती हूँ”।
जारी....
-आशीष मिश्र युवा आलोचक हैं।


