मसीहुद्दीन संजरी

उत्तर प्रदेश की राजनीति में आज समाजवादी पार्टी वहीं खड़ी है जहां एक ज़माने में कांग्रेस थी जब उसने साम्प्रदायिक वोटों के लिए बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया था। हालांकि कि वोट भाजपा बटोर ले गई और कांग्रेस आज तक अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है।

भाजपा की नीति और नीयत किसी से छुपी हुर्इ नहीं है।

बसपा, अब तक तो सपा और भाजपा के तालमेल से उपजी दंगों की राजनीति की प्रतिक्रिया को संभालने में नाकाम रही है या उसे कैश नहीं कर पा रही है।

प्रदेश की सिद्धांतविहीन, विचारविहीन साम्प्रदायिक–जातीय लुंजपुंज राजनीति में जहां हर समाज के लिए चुनावी समर में कई लेमनचूस टाइप वादे–मुआहदे किए जाते हैं, उसमें भी मुसलमानों को देने के लिए कुछ नहीं दिखा है।

बसपा को शायद इंतेज़ार है कि साम्प्रदायिक छीछड़े की ताक में बिल्ली एक से दो (भाजपा और सपा) हो गई है, इसलिए सेक्यूलिरिज़्म बचाने (जिसकी ज़िम्मेदारी भी अब मुस्लिमों की है और मजबूरी भी) लिए वह उसकी गोद में आ गिरेगा।

एक रास्ता सिद्धान्तों और विचारों से सुसज्जित वामपंथ हो सकता था जहां सम्मान के साथ मुसलमान अपनी नव सेक्यूलरिज्म के साथ जा सकता था, लेकिन वामपंथी प्रदेश की राजनीति में बहुत कमज़ोर है और मुड़ के इतिहास में उनके पास यह बताने के लिए भी कुछ नहीं है कि उनके साथ मुसलमानों का उद्धार हो सकता है।