आदिवासियों का हक मार रहीं सरकारी एजेंसियाँ
आदिवासियों का हक मार रहीं सरकारी एजेंसियाँ

Tribals inhabited on forest land are forcibly removed and harassed : Union Ministry of Tribal Affairs
खनन और विकास परियोजनाओं के नाम पर राज्य सरकारों की विभिन्न एजेंसियों द्वारा आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के अधिकारों की अनदेखी पर चिंता जाहिर करते हुए आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्रालय (Union Ministry of Tribal Affairs) ने बीते दिनों राज्यों के मुख्य सचिवों को एक पत्र लिखा। इसमें उसने स्वीकार किया है कि जंगल की जमीन पर आबाद आदिवासियों को जबरिया हटाया और तंग किया जा रहा है।
इस साल यह दूसरी बार है जब मंत्रालय ने आदिवासियों के अधिकारों के हनन को लेकर राज्यों के प्रमुख सचिवों को पत्र लिखा है।
इससे पहले मंत्रालय ने इस मुद्दे को लेकर मई में राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र लिखा था और उनकी कार्यशैली पर सवाल खड़ा किए थे। इससे यह लाजिमी है कि जल, जंगल और जमीन के अधिकार के मुद्दे पर आदिवासियों, बुद्धिजीवियों और राजसत्ता की सोच को विश्लेषित किया जाए।
Who has the first right over natural resources?
जल, जगंल और जमीन के अधिकार को लेकर दशकों से आंदोलन चल रहे हैं और बार-बार यही सवाल खड़ा होता है कि प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक किसका है?
आदिवासियों के हितों के लिए काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और पूर्व आईएएस अधिकारी बीडी शर्मा का मानना है कि प्राकृतिक संसाधनों पर राज्य नहीं, समाज का अधिकार है। आदिवासी इस परंपरा को मानने वाले लोग हैं। इसलिए इसपर पहला हक उनका है।
बीडी शर्मा सरकार की कार्यशैली पर भी सवाल खड़ा करते हैं। उनका कहना है कि धरती भगवान ने बनाई, हम भगवान के बच्चे, फिर सरकार बीच में कहां से आ गई?
जंल, जंगल और जमीन के अधिकार को लेकर बीडी शर्मा के इस तर्क का अब आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्रालय ने भी समर्थन किया है।
पिछले दिनों राज्यों के मुख्य सचिवों को लिखे अपने पत्र में मंत्रालय ने कहा है कि जंगल पर पहला अधिकार आदिवासियों का है और उनकी कीमत पर इसे महज धन बनाने या पर्यटन की दूसरी गतिविधियों के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों को लिखे पत्र में मंत्रालय ने साफ कहा है कि जमीन से जुड़े मामलों का निपटारा और पुनर्वास होने से पहले आदिवासियों को दावे वाली उनकी जमीनों से बेदखल नहीं किया जाए।
There is a conspiracy going on to mass grab the lands of tribals and farmers
मंत्रालय की यह चिंता अनायास नहीं है। इसकी वाजिब वजहें भी हैं। इन दिनों देश के विभिन्न इलाकों में आदिवासियों और किसानों की जमीनों को बड़े पैमाने पर हड़पने की साजिश चल रही है, जिसमें सरकारी एजेंसियों के नुमाइंदों से लेकर उद्योगपति और सफेदपोश सभी शामिल हैं। औद्योगीकरण और सार्वजनिक उपक्रम स्थापित कर क्षेत्र का विकास करने के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीनों को बाजार मूल्य से काफी कम कीमत पर उनसे खरीदा जा रहा है। फिर इन जमीनों को बाजारमूल्य पर पूंजीपतियों को बेच दिया जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड आदि राज्यों में इस तरह के दर्जनों मामले सामने आ चुके हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र आदि राज्यों में विकास परियोजनाओं के नाम पर जंगल की जमीनों को बड़े पैमाने पर खाली कराया जा रहा है। इस प्रक्रिया में अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006, वन संरक्षण अधिनियम (Forest Protection Act), पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (Environment Protection Act), प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के विभिन्न प्रावधानों समेत मानवाधिकारों की अनदेखी की जा रही है।
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में एक उद्योग घराने को जंगल की जमीन हस्थानांतरित करने के लिए उच्चतम न्यायालय के आदेशों की अनदेखी भी कर दी गई है, जिसका खामियाजा इस इलाके में रहने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों को भुगतना पड़ रहा है।
इसका लब्बोलुआब यह है कि डोलो स्टोन, सैंड स्टोन, लाइम स्टोम, मोरम, कोयला, चूना, लौह अयस्क आदि खनिज संपदा के दोहन और उद्योगघरानों को फायदा पहुंचाने के लिए आम नागरिक के अधिकारों की बलि चढ़ाई जा रही है, जिसमें राज्य सरकारों की एजेंसियों की बड़ी भूमिका है। इसका सबसे अधिक नुकसान खनिज संपदा से परिपूर्ण इलाकों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों को भुगतना पड़ रहा है जो वहां के मूल निवासी हैं। हालांकि वे निष्कपट संस्कृति और जागरुकता के अभाव में मूल निवासी होने का दस्तावेज सरकारी पुलिंदों में दर्ज नहीं करा सके और ना ही सरकारी एजेंसियों के नुमाइंदों ने ईमानदारी से उनके दस्तावेज तैयार करने की कोशिश की। रही-सही कसर विकास परियोजनाओं की स्थापना ने पूरे कर दिए, जिसकी वजह से उन्हें अपने मूल स्थान से दूसरी जगह विस्थापित होना पड़ा। कागजी पुलिंदों के महत्व की अज्ञानता आज उन्हें भारी पड़ रही है। भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबे सरकारी नुमाइंदे उन्हें प्रताड़ित कर रहे हैं। इसका उदाहरण उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, मिर्जापुर, चंदौली, लखीमपुर खीरी, बहराइच, गोरखपुर, चित्रकुट, सहारनपुर आदि जिलों समेत मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, आंध प्रदेश में आसानी से देखा और समझा जा सकता है।
उत्तर प्रदेश में वन विभाग की टीम ने करीब 50 हजार आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों पर विभिन्न धाराओं के तहत मुकदमा पंजीकृत करा रखा है, जिसकी वजह से हजारों लोगों को जेल की हवा खानी पड़ी है और हजारों लोग अभी भी अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिए न्यायालयों का चक्कर लगा रहे हैं।
राबर्टसगंज वन क्षेत्र के चुर्क रेंज में आने वाले सिलहटा और राजपुर गांव के करीब डेढ़ सौ आदिवासी और अन्य परंपरागत वन निवासी हाल ही में गिरफ्तारी से बचने के लिए उच्च न्यायालय इलाहाबाद से आदेश प्राप्त किया है, जिसके लिए उन्हें हजारों रूपये गंवाने पड़े। जबकि 15 लोगों को जेल की हवा खानी पड़ी थी। अभी भी वे वन विभाग द्वारा दर्ज कराए गए मुकदमों से बाहर निकलने के लिए अदालतों का चक्कर लगा रहे हैं।
गौरतलब है कि देश में संसद द्वारा पारित अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 (The Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act, 2006) लागू है, लेकिन इसके तहत प्राप्त दावों का निस्तारण किए बिना ही वन विभाग के नुमाइंदे जंगल की जमीन पर काबिज आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों को वहां से बेदखल कर रहे हैं।
आंकड़ों पर गौर करें तो उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून के तहत ग्रामसभा स्तर पर करीब एक लाख दावे प्राप्त हुए थे, जिनमें से 66 हजार से ज्यादा दावों को खारिज कर दिया गया। इन खारिज दावों में तीस हजार से ज्यादा दावे अन्य परंपरागत वन निवासियों के थे। अभी भी करीब पंद्रह हजार दावे लंबित हैं। पूरे राज्य में करीब दस हजार लोगों को ही वनाधिकार कानून के तहत पट्टे मिल पाए हैं, जिनमें बड़े पैमाने पर कानून के प्रावधानों को उल्लंघन किया गया है।
अगर केवल सोनभद्र की बात करें तो यहां 56 हजार से ज्यादा दावे खारिज किए जा चुके हैं। जिन लोगों को जमीन के पट्टे मिले हैं, उनके दावों और आवंटित जमीन में काफी अंतर है। इतना ही नहीं, कुछ दबंग प्रकृति के लोग इनकी जमीनों पर कब्जा किए हुए हैं और सरकार के नुमाइंदे भी उनकी नहीं सुन रहे। इन हालातों में सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली में जल, जंगल और जमीन के मुद्दे को लेकर संघर्ष तेज होने की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। अगर भविष्य में ऐसा होता है तो इसके लिए सरकारी एजेंसियां ही जिम्मेदार होंगी क्योंकि वे जिम्मेदारी से वनाधिकार कानून में उल्लिखित साक्ष्यों पर गौर नहीं कर रही हैं।
अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 के प्रावधानों के तहत जनजातीय कार्य मंत्रालय की ओर से 1 जनवरी, 2008 को जारी अधिसूचना पर गौर करें तो वनाधिकारों की मान्यता के साक्ष्यों में गजेटियर, जनगणना, सर्वेक्षण और बंदोबस्त रिपोर्टों, मानचित्र, उपग्रहीय चित्र, कार्य योजनाओं, प्रबंध योजनाओं, लघु योजनाओं, वन जांच रिपोर्टों, वन्य अभिलेखों, अधिकारों के अभिलेखों, पट्टा या लीज, सरकार द्वारा गठित समितियों, आयोगों की रिपोर्टों, सरकारी आदेशों, अधिसूचनाओं, परिपत्रों, संकल्पों. अर्द्ध न्यायिक या न्यायिक अभिलेखों आदि को शामिल किया गया है। इनके अलावा उन रूढ़ियों और परंपराओं के अनुसंधान अध्ययनों एवं दस्तावेजीकरण को भी साक्ष्य के रूप में मान्यता दी गई है जो किन्हीं वनाधिकारों के उपयोग को स्पष्ट करते हैं। इसमें भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण जैसी ख्यातिप्राप्त संस्थाओं द्वारा रूढ़िजन्य विधि का बल भी शामिल है। तत्कालीन रजवाड़ों या प्रांतों या ऐसे अन्य मध्यवर्तियों से प्राप्त अभिलेखों को भी साक्ष्य माना गया है जिसके अंतर्गत मानचित्र, अधिकारों का अभिलेख, विशेषाधिकार रियायतें हैं। कुएं, कब्रिस्तान और पवित्र स्थल जैसी पुरातंता को स्थापित करने वाली पारंपरिक संरचनाओं, गृह, झोपड़ी और भूमि में किए गए स्थाई सुधारों जैसे बंध और चैकडेम बनाना आदि, भूमि अभिलेखों में उल्लिखित या पुराने समय में गांव के वैध निवासी के रूप में मान्यताप्राप्त विशिष्ट लोगों के पुरुखों का पता लगाने वाली वंशावली, दावेदार से भिन्न बुजुर्गों का कथन भी साक्ष्य के रूप में स्वीकार है। इसके बावजूद वन समितियों के प्रतिनिधि मतदाता पहचान-पत्र, राशनकार्ड, पासपोर्ट, गृहकर रसीदें, मूल निवास प्रमाण-पत्र आदि दस्तावेजों के आधार पर ही निर्णय लेते हैं। पूर्व में गठित आयोगों अथवा सर्वेक्षणों का अध्ययन करने की जहमत नहीं उठाते।
In Sonbhadra, the district administration does not issue the original residence certificate.
अगर सोनभद्र की बात करें तो यहां जिला प्रशासन मूल निवास प्रमाण-पत्र जारी ही नहीं करता है। सभी लोगों को सामान्य निवास प्रमाण पत्र ही जारी किया जाता है, जिससे यहां के आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों को उनका वनाधिकार नहीं मिल पा रहा। ऐसा ही हाल चंदौली जिले का है, जहां आदिवासियों की भारी आबादी को अनुसूचित जाति में शामिल कर दिया गया है, जबकि उनकी समाजिक स्थिति ठीक सोनभद्र के आदिवासियों की तरह ही है। कोल, कंवर, बादी, मुसहर, उरांव आदि को यहां की सरकार आदिवासी मानती ही नहीं है। ऐसे में वनाधिकार कानून के लिए उन्हें तीन पीढ़ियों का दस्तावेज लाना नामुमकिन साबित हो रहा है। इसके अलावा अशिक्षित आदिवासियों में उपरोक्त साक्ष्यों की जानकारी का भारी अभाव है, जिससे वे अपने अधिकार से वंचित हो जा रहे हैं। दूसरी ओर उन्हें सरकारी एजेंसियों के उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्रालय द्वारा राज्यों के मुख्य सचिवों को लिखा गया पत्र उनके संघर्ष को नई धार दे सकता है, जिसकी अगुआई प्रख्यात बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता कर रहे हैं।
शिव दास प्रजापति
The Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act, 2006, is a key piece of forest legislation passed in India on 18 December 2006. It has also been called the Forest Rights Act, the Tribal Rights Act, the Tribal Bill, and the Tribal Land Act.


