आदिवासियों की बदहाली के लिए पुलिस व माओवादी दोनों ही जिम्मेदार
सलवा जुडूम प्रारूप का विस्थापन व गांव में विभाजन का खतरा पुनः उत्पन्न-
एक प्रतिनिधि मंडल, जिसमें संजय पराते (राज्य सचिव, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी), विनीत तिवारी (जोशी- अधिकारी संस्थान, नई दिल्ली), अर्चना प्रसाद (प्राध्यापक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तथा केन्द्रीय समिति सदस्य, जनवादी महिला समिति) तथा नंदिनी सुंदर (प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय) शामिल थे, ने 12-16 मई 2016 तक बस्तर संभाग के विभिन्न जिलों- बीजापुर, सुकमा, बस्तर तथा कांकेर- का दौरा किया। इस दौरे का मुख्य मकसद उन सामान्य ग्रामीणों की जीवन- स्थितियों का अध्ययन करना था, जो माओवादियों तथा राज्य के युद्ध के बीच फंसे हुए हैं।
वाट्सएप पर प्रसारित कुछ पोस्ट्स हमें प्राप्त हुई हैं, जिनसे अनुमान लगाया जा रहा है कि बस्तर पुलिस संजय पराते, विनीत तिवारी, अर्चना प्रसाद तथा नंदिनी सुंदर को एक फर्ज़ी केस में फंसाने जा रही है।
प्रतिनिधि मंडल की रिपोर्ट निम्नवत् है -
माओवादियों की उपस्थिति तथा राजकीय दमन का स्तर विभिन्न जिलों में अलग-अलग है। वर्तमान में सुकमा जिला, बीजापुर जिले के कुछ क्षेत्र, सुकमा/बस्तर जिले का तोंगपाल/दरभा क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित है, लेकिन सभी जगह पुलिस बलों द्वारा नकली मुठभेड़, बलात्कार और गिरफ्तारियां एक समस्या बनी हुई है। हमने मार्जुम में हुए नकली मुठभेड़, कुमाकोलेंग में माओवादियों द्वारा ग्रामीणों को पीटने तथा उसके बाद पुलिस धमकियों के चलते हुई गिरफ्तारियों व थोक में हुए आत्मसमर्पण की घटना, तालमेंडरी में हुई गिरफ्तारियों तथा कथित बलात्कार के आरोपों, ऐटेबाल्का में बीएसएफ के एक जवान द्वारा किए गए बलात्कार व यौन उत्पीड़न और इसके चलते पीड़ित महिला के बच्चे जनने की पुष्ट घटना और तालमेंडरी, बस्तर, बदरंगी (अंतागढ़) में हुई गिरफ्तारियों का अध्ययन किया है। हमें अतीत में माओवादियों द्वारा की गई हत्याओं की जानकारी भी लोगों ने दी, जिसके कारण माओवादियों के प्रति लोगों का आकर्षण भी कम हुआ है।
नये सलवा जुडूम का आगाज-
अपने अध्ययन-दौरे में हमने पाया है कि सलवा जुडूम के एक नये रुप का उदय हो रहा है। हाल ही में तोंगपाल व दरभा ब्लाक में कांगेर राष्ट्रीय उद्यान के अंदर और आसपास के ग्रामीणों को जिस प्रकार पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर उनका समर्पण करवाया गया है और उसके बाद माओवादियों ने उन्हें बुरी तरह पीटा और धमकाया है, वह स्तब्धकारी और खौफनाक है। यहां पुलिस में जनजागरण अभियान (जो कि सलवा जुडूम का ही मूल नाम है) चलाया है तथा उन्हें धमकाया भी है और इसके साथ ही उन्हें सभी प्रकार के सामान भी दिये हैं। इन सामानों में मोबाइल फोन भी शामिल हैं, ताकि ग्रामीण माओवादियों के बारे में पुलिस को सूचित कर सकें। यह सब सलवा जुडूम के शुरूआती लक्षण जैसे ही हैं। कुमाकोलेंग गांव में मार्च में 50 लोगों को आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य किया गया और अब वे विभिन्न पुलिस तथा सीआरपीएफ शिविरों में रह रहे हैं। 15 अप्रैल को पुलिस/सीआरपीएफ ने कुमाकोलेंग में जनजागरण अभियान चलाया। 17 अप्रैल को माओवादियों ने महिलाओं सहित ग्रामीणों को बुरी तरह से पीटा कि वे अपने गांव के पास सीआरपीएफ कैम्प लगाने की मांग कर रहे हैं। पूरे गांव के दो तिहाई लोग अब पलायन कर चुके हैं और माओवादियों के डर से गांव के बाहर छुपकर रह रहे हैं।
पड़ोसी सौतनार पंचायत में माओवादियों को गांव से बाहर रखने के लिए ग्रामीण तीर धनुष व कुल्हाड़ियों के साथ पिछले तीन माह से रात को पहरा दे रहे हैं। पिछले दिनों माओवादियों ने इस गांव के लोगों के साथ मुखबिरी के आरोप में मारपीट तथा हत्यायें की थीं। ग्रामीणों ने बताया कि पुलिस ने उनके गांव में शिविर लगाने से इंकार कर दिया है और उन्हें कहा है कि यदि वे पहरा देते रहेंगे तो माओवादी उनसे दूर रहेंगे। इस प्रकार उन्हें उनकी किस्मत पर माओवादियों के पहला निशाना बनने के लिए छोड़ दिया गया है। हम इस बात के प्रति अत्यधिक चिंतित हैं कि इस प्रकार का घटना विकास सलवा जुडूम की तरह ही बड़े पैमाने पर विस्थापन तथा विभाजन की प्रक्रिया को बढ़ावा देगा। हम सभी पक्षों से अपील करते हैं कि वे आदिवासी आबादी के सर्वोत्तम हितों के लिए काम करें।
लेकिन पुलिस इस समस्या के शांतिपूर्ण तथा ईमानदार समाधान में कोई दिलचस्पी नहीं रखती। यह इस तथ्य से साबित होता है कि उसने एक ‘ब्रेकिंग न्यूज’ को गढ़कर प्रसारित किया है कि हमारे अध्ययन समूह ने ग्रामीणों को माओवादियों का साथ देने को कहा है और हमने ग्रामीणों को धमकी दी है कि यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो माओवादी उनके गांव को जला देंगे। उसने एक झूठी रिपोर्ट भी थाने में हमारे खिलाफ दर्ज की है। हम महसूस करते हैं कि बस्तर के लोगों की भलाई के लिए एक सम्यक संवाद प्रक्रिया तथा विकास के एक जनतांत्रिक माॅडल की जरूरत है। वर्तमान संदर्भ में, न तो राज्य और न ही माओवादी इस अनिवार्य आवश्यकता को संबोधित कर रहे हैं।
अपने अध्ययन के आधार पर हमारे निम्न प्रारंभिक निष्कर्ष हैं —

सभी जिलों का सीआरपीएफ/बीएसएफ/आईटीबीपी शिविरों के जरिये भारी सैन्यीकरण हुआ है और सामान्य रुप से हर पांच किलोमीटर तक विशेषकार रावघाट क्षेत्र में हर दो किलोमीटर की दूरी पर सुरक्षा बलों के कैम्प लगे हुए हैं। इन शिविरों की स्थापना पूरी तरह से पांचवी अनुसूची, पेसा तथा आदिवासी वनाधिकार कानून 2006 का उल्लंघन करके की गई है। इन शिविरों के लिए ग्राम सभा की कोई अनुमति नहीं ली गई है। इन स्थलों पर खेती करने वाले लोगों को वहां से भगा दिया गया है- उनके वनाधिकारों को मान्यता दिये बगैर। पर्यावरण का भी भारी विनाश किया गया है।
राज्य का पूरा जोर सघन खनन व औद्योगिकीकरण के दृष्टिकोंण से केवल सड़क निर्माण पर है और वह आम जनता के कल्याण व अधिकारों के बारे में चिंतित नहीं है।
कुछ जगहों पर इन शिविरों के कारण सुरक्षा का अहसास पैदा हुआ है और माओवादियों की उपस्थिति में गिरावट आई है, लेकिन अधिकांश जगहों में सुरक्षा बलों के शोषण व दमन के कारण ग्रामीणों के बीच असुरक्षा व भय का वातावरण ही पैदा हुआ है।
इन चारों जिलों में ग्रामीणों ने बताया कि बड़े पैमाने पर लोगों को गिरफ्तार किया गया है। इन ग्रामीणों के पास कानूनी प्रक्रिया की कोई जानकारी नहीं है और वे वकीलों को ऊंची फीस देने के लिए बाध्य हो रहे हैं। कानून का उपयोग पीड़ित ग्रामीणों को न्याय देने व शांति स्थापित करने के बजाय उन्हें प्रताड़ित करने के हथियार के तौर पर किया जा रहा है। इससे उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। राज्य की जेलें अपनी क्षमता के बाहर आदिवासियों से ठसाठस भरी हुई हैं।
ग्रामीणों की जीवन-स्थितियां भुखमरी के स्तर पर है। उनकी औसत आमदनी प्रति परिवार प्रतिमाह 1000-2500 रुपयों के बीच है, जिसका अधिकांश तेंदूपत्ता तोड़ाई तथा आंध्रप्रदेश जाकर मजदूरी करने से आता है।
अकाल की भयावहता के बावजूद मनरेगा का क्रियान्वयन लगभग नदारद है। बहुत सी जगहों में ग्रामीणों ने शिकायत की है कि उन्हें सात साल पहले मनरेगा में किये गये कामों की मजदूरी आज तक नहीं मिली है।
इस पृष्ठभूमि में सैन्यीकरण के लिए, सुरक्षा बलों को प्रोत्साहन देने के लिए, आत्मसमर्पण तथा कथित नागरिक कार्यक्रमों के लिए जो विशाल राशि खर्च की जा रही है, वह नागरिकों के कल्याण के लिए आबंटित राशि का आपराधिक दुरूपयोग है। माओवादी भी सड़क निर्माण की इजाजत न देने तथा पंचायत फंडों के दुरुपयोग के लिए जिम्मेदार है। लेकिन उन क्षेत्रों में भी जहां माओवादियों की उपस्थिति नहीं है, हमें विकास के कोई सुबूत नहीं मिले।

इसलिए दीर्घावधि हल के लिए बस्तर के लोगों के पूर्ण अलगाव को रोके जाने के लिए यह जरूरी है कि अंतरिम आधार पर कुछ ऐसे कदम उठाये जायें जो लोगों में विश्वास पैदा कर सकें। हमारा सुझाव है कि सभी पक्ष निम्नलिखित कदम उठायें-
राजनैतिक पार्टियां-

एक सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल बस्तर का और विशेषकर अंदरूनी गांव का दौरा करें तथा समस्या के समाधान की दिशा में सभी संबंधित पक्षों के साथ व्यापक विचार-विमर्श की शुरूआत करें।
ये पार्टियां मांग करें कि राज्य और केन्द्र सरकार सीपीआई (माओवादी) सहित सभी राजनैतिक दलों के साथ बातचीत की शुरूआत करें तथा एक समग्र योजना बनायें जिसमें आम जनता की जरूरतों व विकास-आवश्यकताओं को मान्यता दी जाये।

न्यायपालिका से -

सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एक उच्चस्तरीय न्यायिक जांच गठित की जाये, जो माओवादियों द्वारा और राज्य प्रायोजित संगठनों, पुलिस व सुरक्षा बलों द्वारा वर्ष 2005 से अब तक हुई सभी मुठभेड़ों, गिरफ्तारियों, आत्मसमर्पणों, बलात्कारों व अन्य अत्याचारों की जांच करे।
न्यायपालिका की निगरानी में सभी प्रकरणों में दोषियों को सजा दी जाये तथा दोनों पक्षों द्वारा उत्पीड़ित लोगों को मुआवजा दिया जाये।

केन्द्र व राज्य सरकारों से-

सभी शिविर हटाये जायें।
पुलिस प्रशासन द्वारा ग्रामीणों की थोक में की जा रही नकली गिरफ्तारियों, नकली मुठभेड़ों, बलात्कारों व अन्य अत्याचारों पर रोक लगायें।
राज्य सभी पत्रकारों, वकीलों, शोधकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं व अन्य लोगों को इस क्षेत्र की स्थिति के आंकलन के लिए स्वतंत्र रुप से घूमने की इजाजत दें।
लोगों के वनाधिकार और भूमि अधिकारों को मान्यता दें।
ग्राम सभा की पूरी जानकारी व सहमति के बिना खनन सहित किसी भी परियोजना को क्रियान्वित न किया जाये।
सरकारी योजनाओं के अधीन कराये जा रहे सभी कार्यों का जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाये। विशेषतौर से, मनरेगा को क्रियान्वित किया जाये तथा सभी लंबित बकायों का तत्काल भुगतान किया जाये।

माओवादियों से-

माओवादी सभी विकास कार्यों की इजाजत दें।
वे चुनावों में भाग लेने सहित सभी राजनैतिक गतिविधियों की इजाजत दें।
वे लोगों को पीटना तथा कथित मुखबिरों की हत्यायें बंद करें।
वे बातचीत की प्रक्रिया में शामिल होने की अपनी इच्छा का प्रदर्शन करें।

Bastar police is trying to implicate CPI Com Vinit Tiwari, Nandini Sundar and JNU Pro. Archana Prasad in a fabricated case who were on a fact finding mission to some villages. On the basis of a false complaint allegedly filed by villagers (who have signed in English astonishingly, complaint attached) Bastar police is going to file FIR soon. A wat'sap message is also attached confrming the same.