आपदाओं का कोई बॉर्डर नहीं होता
आपदाओं का कोई बॉर्डर नहीं होता
हिंसा और घृणा की भाषा ही अब मातृभाषा | The language of violence and hate is now the mother tongue
आपदाओं का कोई बार्डर होता नहीं है। हिमालय में प्राकृतिक और मनुष्यनिर्मित आपदाओं से हिमालय के उत्तुंग शिखरों के आर पार इस एशिया महादेश के तमाम देश भौगोलिक सीमाओं को तोड़ मरोड़कर प्रभावित होते रहते हैं।
हम बाढ़, भूकंप, अकाल और भुखमरी के शरीकान हैं तो हम कयामत के दावेदार भी हैं।
बांग्लादेश का एक बहुत खरतरनाक सबक है कि अलगाव संप्रभुता, स्वतंत्रता, मातृभाषा, नागरिक और मानवाधिकार, समता और न्याय की कोई गारंटी नहीं है।
कश्मीर के संदर्भ में कहा जा सकता है कि वहां विभाजित कश्मीर के भारतीय और पाकिस्तानी हिस्सों में जैसे स्वतंत्रता की मांग जोरों पर है तो वहां भी फिर एक बांगलादेश बन जाने की प्रबल संभावना है और कश्मीर अगर अलग बांग्लादेश बना तो उसके नतीजे भी बांग्लादेश के इतिहास से किसी मायने में अलहदा होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
The decisive solution to the problems cannot be another partition or another separation.
जाहिर है कि समस्याओं का निर्णायक समाधान एक और बंटवारा या एक और अलगाव हो ही नहीं सकता।
15 अगस्त 1947 से लगातार हम उस अभूतपूर्व विभाजन की विरासत जी रहे हैं और सारा महादेश लहूलुहान है।
पूर्वी भारत और पूर्वोत्तर इस वक्त बाढ़ के शिकंजे में हैं और हिमालय में मानसून प्रलयंकारी है। बाढ़, भूकंप, भूस्खलन, अकाल और भुखमरी, जलसंकट और महामारी जैसी आपदाएं घात लगाये बैठी हैं। किसी भी आपदा में सारा महादेश का नक्शा एकाकार हो सकता है।
मसलन उत्तर बंगाल में बाढ़ के चपेट में सीमावर्ती जिले हैं तो इन जनपदों से होकर तीस्ता तिब्बत के ग्लेशियर और झीलों से उतरकर बांग्लादेश को बहाती रहती है।
तिब्बती, भूटिया, लेप्चा, गोरखा, तमांग जैसे जनसमुदाओं की बसावटों से गुजरते हुए सिक्किम होकर सिलिगुड़ी के पास मैदानों में उतरकर महारण्य का हिस्सा बनकर पद्मा और ब्रह्मपुत्र की तरह बांग्लादेश निकल जाती है।
यूपी बिहार असम से लेकर बांग्लादेश तक दियारों का जो सिलसिला है, उसके मुकाबले तीस्ता से जुड़े दियारे और सीमा के आर-पार गलियारे तीस्ता से सबसे ज्यादा जुड़ते हैं।
तीस्ता के ये दियारे (teesta river rafting) ज्यादातर जंगलात के बीच होने से बेहद उपजाऊ हैं तो वहां घनी आबादी भी है।
हम जब बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों या सीरिया या मध्यपूर्व और अफ्रीका के जनसैलाब और उनकी गगन घटा गहरानी समस्याओं पर चर्चा कर रहे हैं और धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के शिकंजे में फंसे बांग्लादेश से आने वाले करीब ढाई करोड़ नये शरणार्थियों की बात कर रहे हैं, तभी भारतीय इलाकों में तीस्ता तट के बाढ़पीढ़ित बांग्लादेश में शरण ले रहे हैं।
इसी तरह नेपाल या उत्तराखंड के भूंकप की जड़ें कहां-कहां तक बारूदी सुरंग की तरह भीतर ही भीतर सुलग रही हैं, हमें उसका कोई अंदाजा नहीं है।
हम यह भूल रहे हैं कि राजनीति ही सीमा तय नहीं करती है, बल्कि प्रकृति और आपदाएं भी सीमाएं बनाती बिगाड़ती रहती हैं।
इसीलिए हम इंसानियत के मुल्क के बंटवारे के लिए इंसानियत को ही लहूलुहान करने पर आमादा हैं।
धम्म और पंचशील की जगह हिंसा और घृणा की विचारधारा ने ले ली है।
जापान में जैसे विकलांगों के सफाये की युद्धघोषणा के साथ एकदम घरेलू हथियार चाकू से निर्मम नरसंहार हो गया, उसके बाद इस दुनिया में मनुष्यता और सभ्यता के भविष्य को लेकर खतरे का खुलासा सिलिसलिवार करने की कोई जरूरत नहीं है।
बुद्धमय भारत का अवसान (The end of the wise India) किसी पराजा वृहद्रथ की हत्या के बाद पुष्यमित्र शुंग के राजसूय भिक्षु वध अभियान से नहीं हुआ और न मनुस्मृति की रचना से।
हम यह अक्सर ही भूल जाते हैं।
जैसे बहुजनों को खुद को हजारों साल से गुलामी की मिथ्या विरासत के बहाने गुलामी जीने में मजा आता है और वे भारतभर में सन सैंतालीस के पहले और बाद, आज तक किसानों, आदिवासियों और हां, दासी शूद्र स्त्रियों के आंदोलन का जारी इतिहास को अनदेखा करके बदलाव का कोई ख्वाब ही देखना नहीं चाहते।
कमसकम बंगाल में ग्यारहवीं सदी तक मनुस्मृति शासन या वर्ण व्यवस्था का कोई चिन्ह मात्र नहीं था।
आर्यावर्त के महान चक्रवर्ती सम्राट गौड़ विजय में लगातार मुंह की खाते रहे हैं।
कर्नाटकी क्षत्रिय राजा विजयसेन ने बंगाल को जीता और उनके बेटे बल्लाल सेन ने बंगाल में वैदिकी धर्म का प्रवर्तन किया तो इसके बावजूद पूर्वी बंगाल में महायन बौद्धधर्म के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में थे।
पूर्वी बंगाल से त्रिपुरा से लेकर अरुणाचल तक फैल गये चकमा शरणार्थी अब भी बौद्ध हैं और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक आबादी में एक बड़ा हिस्सा अब भी बौद्ध है।
यहीं नहीं, बांग्लादेश में धर्मांतरण हिंदुत्व से भी नहीं हुआ, बांग्लादेश के आज के मुसलमानों के पूर्वज महायान बौद्ध ही थे।
वही बांग्लादेश अब इस्लामी राष्ट्रवाद (Islamic Nationalism) के शिकंजे में बांग्ला मातृभाषा का झंडा छोड़कर जिहाद की जुबान बोल रहा है, ठीक वैसे ही जैसे भारत तीर्थ पर इस वक्त गोरक्षकों का आधिपात्य और वर्चस्व हिंसा और घृणा का निरंकुश उत्सव है।
बुद्धमय पृथ्वी का नक्शा अब भी भारत के बिना जस का तस है हालांकि चीन में धर्म का बोलबाला नहीं है लेकिन तिब्बत पूरी तरह बुद्धमय है। इसी तरह जापान समेत दक्षिण पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म का पराभव अभी हुआ नहीं है।
फिर भी हम कह नहीं सकते कि महात्मा गौतम बुद्ध के धम्म और पंचशील का क्या हुआ।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम और भारत की सांस्कृतिक विरासत, भारतीय आस्था धर्म निर्विशेष जिस सत्य और अहिंसा, शांति और प्रेम, सहिष्णुता और सद्भाव, विविधता और बहुलता की निरंतरता है, अबाध पूंजी प्रवाह और निरंकुश मुक्तबाजार के बावजूद वह जारी है और तमाम मुश्किलात और कयामती फिजां के बावजूद भारत तीर्थ हजारों सालों से ऐसा ही है, जिसे सत्ता और फासिस्ट राजकाज से सिरे से बदला नहीं जा सकता।
गौतम बुद्ध के अनुयायियों का धर्म बौद्ध धर्म का भूगोल विश्वव्यापी कभी नहीं रहा और बंगाल को छोड़कर उसके अवसान के बाद करीब दो हाजार साल हम जी चुके हैं पुशत दर पुश्त लेकिन भारतीय मूल्यबोध जाति धर्म नस्ल की विविधता और बहुलता के बावजूद फिर वहीं गौतम बुद्ध के पंचशील और धर्म हैं।
इसी वजह से राजनीतिक उथल पुथल और अलगाववादी तत्वों की भारतविरोधी गतिविधियों से भारतीय संस्कृति को कोई गंभीर खतरा अब भी नहीं है।
सीमाओं में फेरबदल और अस्मिताओं के उत्थान पुनरूत्थान और पराभव के बावजूद इतिहास की धारा अबाध है।
इसी भारतीय मूल्यबोध की जड़ें मार्टिन लूथर किंग के सपनों में भी हैं तो दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ निर्णायक जीत की जमीन भी वही है। हालांकि अमेरिका में या दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ मनुष्यता और सभ्यता के अविराम संघर्ष के तमाम योद्धा धर्म से बौद्ध कतई नहीं थे।
उसी तरह भारत में धर्म बहुसंख्यकों या अल्पसंख्यकों का या बहुजनों का जो भी हो, हमारी जड़ें फिर वही गौतम बुद्ध की तर्कहीन क्रांति, सत्य, अहिंसा, समानता और न्याय की अवधारणाओं में है और भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सबकुछ वही है।
विचलन लेकिन उस परंपरा से बहुत तेजी से होने लगा है।
जैसे महायान बौद्धों की मातृभूमि की भाषा अब जिहाद है उसी तरह भारत में जिहाद की भाषा बोलने वाले सिर्फ मुसलमान नहीं है और अमेरिका में जो श्वेत जिहादी रंगभेदी साम्राज्यवाद का मुख्यालय है, वहा का धर्म भी हिंदुत्व, इस्लाम या बौद्ध नहीं है।
तेल अबीब में भी हजारों साल की उत्पीड़ित मनुष्यता यहूदियों की संघर्षगाथा की जमीन पर अरब और इस्लाम विरोधी युद्ध नहीं लड़ा जा रहा है, जिस युद्ध के हम बजरिये अमेरिकी बंधुत्व अंशधारक हैं।
सबिता बिश्वास


