"आप" की सरकार बन गई तो यूपी और बिहार में भाजपा को रोकने वाला कोई मां का लाल नहीं
"आप" की सरकार बन गई तो यूपी और बिहार में भाजपा को रोकने वाला कोई मां का लाल नहीं
जनपथ- अभिषेक श्रीवास्तव की रिपोर्ताज, दिल्ली विधानसभा चुनाव पर ग्राउण्ड जीरो रिपोर्ट,- "आप" की सरकार बन गई तो यूपी और बिहार में भाजपा को रोकने वाला कोई मां का लाल नहीं
नई दिल्ली (दिल्ली विधानसभा चुनाव पर ग्राउण्ड जीरो रिपोर्ट)। हस्तक्षेप के साथी पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव लगातार दिल्ली विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र दिल्ली और आस-पास घूम रहे हैं। उनकी पारखी नज़र आम आदमी का चेहरा और मनोभाव पढ़ रही है। तीसरी कड़ी में जनपथ- "आप" की सरकार बन गई तो यूपी और बिहार में भाजपा को रोकने वाला कोई मां का लाल नहीं
समरेंद्रजी यूएनआइ के पुराने पत्रकार हैं। कई बरस बाद मिले थे। वे मंदिर पर जुटे मजमे का हिस्सा थे, हालांकि सुलतान भाई से उनका कोई पूर्व परिचय नहीं था। इतनी देर में रेडियो वालों ने चुनावी चर्चा निपटा ली थी। उनके परस्पर परिचय के बाद हम लोग बतियाने लगे। पंडितजी भी आकर खड़े हो गए। हाजी साहब जा चुके थे। उस इलाके में सफाई करने वाली दो बेलदार औरतें भी रेडियो पर अपनी बात कहने के बाद वही जमी हुई थीं। दोनों काफी खुश थीं। मैंने पूछा, "क्या माहौल है?" "भइया, अबकी तो केजरीवाल।" मैंने पूछा, "आप लोग नई दिल्ली की ही वोटर हैं?" "हां भइया, ये जितने लोग यहां दिख रहे हैं सब यहीं के वोटर हैं। सब केजरीवाल के वोटर।" "और ये स्मैकिये?" "कुछ के पास वोटर कार्ड होंगे। कई तो यहीं अपना घर बनाकर रहते हैं। ये सारे केजरीवाल के हैं।" पंडितजी ने जुगुप्सा में मुंह बिचकाया। बोले, "भाई साहब, एनजीओ वालों के कारण ही ये साले यहां पड़े रहते हैं और हमें दिक्कत करते हैं।" औरतें कुछ बड़बड़ाते हुए निकल गईं। मैंने समरेंद्रजी से चाय पीने चलने को कहा, तो उन्होंने बताया कि अभी पार्टी की मीटिंग हो रही है यहां। "कौन सी पार्टी?" "अरे अपनी पार्टी है... राष्ट्रीय हस्तक्षेप पार्टी।" हम लोग चलने को हुए तो सुलतान भाई ने टीप मारी, "एक बात तो है भाई साब... ये बिहारी जहां कहीं भी रहते हैं, हस्तक्षेप जरूर करते हैं।"
(समवेत् स्वर में हंसी के ठहाके)
गोल मार्केट में बंगला फूड पर पूड़ी-सब्ज़ी खाने के बाद हम सुलतान भाई के घर चाय पीने बैठ गए। गोल मार्केट के पास बने सरकारी क्वार्टरों में उनका एक किराये का फ्लैट है। कई साल से वे यहीं रह रहे हैं। रह-रह कर मकान बदलते रहते हैं। किराया अब भी दिल्ली के हिसाब से काफी कम है। गोल मार्केट में रहने की वजह यह है कि कई साल से सुलतान भाई अखबारी पत्रकारिता छोड़कर गोल मार्केट के चौराहे पर मौजूद पॉपुलर केमिस्ट के यहां प्रबंधकीय सेवाएं दे रहे हैं। कभी निकले और फिर बंद हो गए जेवीजी टाइम्स और कुबेर टाइम्स के लिए काम करने के बाद उन्हें लगा कि अखबार के भीतर रहकर इज्जत नहीं मिल सकती, बाहर से लिखकर ज्यादा इज्जत कमायी जा सकती है। इसीलिए आजीविका का साधन उन्होंने दवा की दुकान को बनाया और व्यंग्य व लेख आदि लिखते रहे। उनका दूसरा उपन्यास "शिनाख़्त" छपने को तैयार पड़ा है। इज्जत तो सुलतान भाई ने खूब कमायी, लेकिन पैसा नहीं कमाया। बच्चे अलबत्ता अच्छी-अच्छी जगह इंजीनियरी-डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहे हैं। अब उम्र के पांचवें दशक के अंत में पॉपुलर केमिस्ट का सहारा भी छिनने की आशंका खड़ी हो गयी है। दुकान बस बिकी नहीं है, यही गनीमत है। सारा स्टॉक खत्म है। कभी सवा लाख प्रतिदिन की बिक्री करने वाली इस दुकान में आज रोज ढाई हज़ार का माल बमुश्किल बिक पाता है। सुलतान भाई के चेहरे पर हालांकि कोई खास शिकन नहीं है। रात 11 बजे तक वे संगम विहार और तुगलकाबाद में आम आदमी पार्टी के दो उम्मीदवारों की मीटिंगें करवाते रहे और सो नहीं पाए हैं, फिर भी ताज़ादम हैं।
तीसरे माले पर स्थित उनके फ्लैट की सीढि़यां नापते वक्त मैंने देखा कि हर दरवाज़े में नूपुर शर्मा का चुनावी परचा खोंसा हुआ था। उसमें पूरा बायोडेटा लिखा था। जन्म 1985... जानकर हैरत हुई। मैंने कहा, "भाई साब, तीस साल से कम की उम्र में ये लड़की चुनाव में खड़ी हो गयी। आपको सामाजिक काम करते हुए इतने बरस हुए, आप कभी चुनाव में नहीं खड़े हुए। आपको बहुत पहले लड़ लेना चाहिए था।" घर में घुसते हुए वे बोले, "छोड़ो यार... एक समय था कि संगम विहार और तुग़लकाबाद में मेरे कहे बगैर एक काम नहीं होता था। आज भी हर दूसरे दिन बुलावा आ जाता है। मुझे ये सब नहीं करना। करना होता तो बहुत पहले कर लिए होते।" चाय आती है। मैं कुछ पूछने को होता हूं कि उनका फोन आ जाता है। कहीं से बुलावा है मीटिंग के लिए, वे उसे टाल रहे हैं। फोन रखने के बाद मैंने पूछा, "सच बताइए, आप तो पूरी दिल्ली देख रहे हैं इतने बरस से, क्या केजरीवाल सरकार बना लेगा?"
"बंधु, केजरीवाल की सरकार अगर बन गई तो जान जाओ कि यूपी और बिहार में भाजपा को रोकने वाला कोई मां का लाल नहीं होगा फिर।"
"वो कैसे? और अगर ऐसा ही है तो आप आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों का प्रचार क्यों कर रहे हैं?"
सुलतान भाई हंसे, "मेरी छोड़ो यार... मैं तो दोस्त-मित्रों के बुलाने पर चला जाता हूं अपने इलाके में। उन्हें लगता है कि सुलतानजी के साथ इलाके में जाने से फ़र्क पड़ेगा, तो मैं भी चला जाता हूं। मेरा किसी पार्टी-वार्टी से क्या लेना-देना। लेकिन ये जान लो कि लोकसभा चुनाव में जो यूपी और बिहार में हुआ था, वहां के विधानसभा चुनाव में बिलकुल वही रिपीट होगा अगर दिल्ली में केजरीवाल की सरकार बन गई तो... अभी हाजी साहब से यही सब बातें तो हो रही थीं। मैं तो देख रहा हूं न, कि किस तरह मुसलमान झर के आम आदमी पार्टी के पास आ रहे हैं। ये बहुत खतरनाक है।"
यह बात मेरे लिए नई नहीं थी। मैं जिन इलाकों में बीते दो-तीन दिनों में गया था, वहां कुछ इसी तरह की बातें पढ़े-लिखे मुसलमान कर रहे थे। मटियामहल, बल्लीमारान, ओखला, सीलमपुर आदि क्षेत्रों में स्थापित मुस्लिम चेहरों पर इस बार हार का खतरा मंडरा रहा है। चांदनी चौक में घूमते वक्त मुझे एक भी दुकानदार ऐसा नहीं मिला जिसने कहा हो कि हारुन यूसुफ़ जीत जाएंगे। मतीन अहमद और शोएब इक़बाल की हार को लेकर भी ऐसे ही क़यास लगाए जा रहे हैं। दरीबा में साड़ी की दुकान लगाने वाले मिश्राजी उन्नांव के मूल निवासी हैं और करीब दो दशक से यहां रह रहे हैं। दो दिन पहले वे कह रहे थे कि दिल्ली से इस बार पुराना मुसलमान नेतृत्व गायब हो जाएगा। मैंने पूछा था कि यूपी के बारे में क्या खयाल है। वे बोले, "यूपी में तो भाजपा ही आएगी, चाहे दिल्ली में कोई भी जीते।" यह बात मुझे सुलतान भाई से मिलने के पहले उतनी समझ में नहीं आई थी क्योंकि अपनी बिरादरी के जितने लोगों से हम रोज़ाना मिलते-जुलते हैं, सब एक ही रट लगाए हुए हैं कि मोदी की लहर को रोकने के लिए ज़रूरी है कि दिल्ली में केजरीवाल जीत जाए। लोग कह रहे हैं कि यूपी और बिहार में इससे भाजपा का मनोबल टूटेगा और उसका विजय रथ फंस जाएगा। पढ़े-लिखे लोगों के बीच यह धारणा बहुत आम है।
दरअसल, आम मुसलमान वोटरों के लिहाज से देखें तो मामला इसका उलटा है। दिल्ली के चुनाव का असर यूपी और बिहार पर अगर पड़ेगा, तो वह सिर्फ और सिर्फ मुस्लिमों के वोटिंग पैटर्न के संदर्भ में होगा। जिस तरह से यहां आम आदमी पार्टी के पक्ष में एकतरफ़ा रुझान मुसलमानों का दिख रहा है, अगर केजरीवाल ने सरकार बना ली तो यह संदेश बहुत दूर तलक जाएगा कि भाजपा विरोधी राजनीतिक धड़े में केजरीवाल दांव लगाने के लायक है। सुलतान भाई कह रहे थे, "याद करो पिछले साल क्या हुआ था। यूपी और बिहार से मुसलमान नेताओं का तांता लगा हुआ था आम आदमी पार्टी के दफ्तर के बाहर। जबरदस्त समर्थन था। यह हाल था कि बनारस में सिर्फ महीने भर के काम से इस पार्टी ने तीन लाख वोट बंटोर लिए, सारे के सारे मुसलमानों के। मुस्लिम वोट बंट गया, हिंदू वोट भाजपा के पक्ष में कंसोलिडेट हो गया।" इसका मतलब यह हुआ कि अगर केजरीवाल यहां सरकार बना लेते हैं, तो यूपी और बिहार का मुस्लिम मतदाता 'आप' और स्थानीय पार्टी के बीच बंट जाएगा जिसका फायदा भाजपा को होगा। अगर केजरीवाल हार जाते हैं तो शायद मुस्लिमों को यह समझ में आए कि थक-हार कर उसे यूपी में समाजवादी पार्टी के साथ और बिहार में महागठबंधन (आरजेडी/जेडीयू) के साथ ही जाना होगा, और कोई विकल्प नहीं। ऐसे में मुस्लिमों का एकतरफ़ा वोट भाजपा की गाड़ी को फंसा सकता है।
अभी एक दिन पहले लेखक विष्णु खरे से ई-मेल के माध्यम से दिल्ली के चुनावों के संबंध में मेरी बात हो रही थी। मैंने यह थ्योरी उनके सामने रखी थी। उन्होंने इस पर कहा था कि इसमें "मुसलमानों को भुच्च समझने की स्वीकृति है"। उन्होंने पूछा था कि आखिर यूपी-बिहार का मुसलमान "दिल्ली को भेड़चाल क्यों बनाएगा?" मैंने तकरीबन यही सवाल सुलतान भाई से पूछा था। वे मुस्करा कर बोले, "देखो, मुसलमानों के साथ एक दिक्कत बड़ी अजीब है। सब जानते हैं कि उनकी बदहाली की जिम्मेदार इतने बरसों में कांग्रेस ही रही है, उसके बावजूद वे भाजपा को बरदाश्त नहीं कर सकते। यह जानते हुए कि कांग्रेस उन्हें बरबाद कर देगी, वे लगातार भाजपा के विरोध में कांग्रेस को वोट करते रहे। आप उन्हें नहीं समझा सकते कि एक बार भाजपा को भी वोट देकर देखो। वे उसी को वोट देंगे जो भाजपा के खिलाफ़ मज़बूत दिखेगा और दिल्ली के मुसलमानों की तो यूपी-बिहार में इतनी रिश्तेदारियां हैं कि बात आगे बढ़ते देर नहीं लगती। अगर 'आप' यहां जीत गई तो यूपी-बिहार में लोकसभा का दुहराव होना ही होना है।"
"तो क्या यह मनाएं कि दिल्ली में भाजपा जीत जाए?"
"क्या बुरा है?" सुलतानजी बोले, "काम तो होगा। केंद्र सरकार यहां के प्रोजेक्टों में अड़ंगा तो नहीं लगाएगी। इसके अलावा, यूपी और बिहार के मुसलमानों में भ्रम फैलने से रहेगा कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस का विकल्प है। समाजवादी पार्टी मजबूत होगी। इस बात को मत भूलना कि भाजपा को केंद्र में लाने की सबसे बड़ी जिम्मेदार आम आदमी पार्टी ही है।" मेरे सामने अचानक सवेरे मिले लम्बू के भतीजे का चेहरा घूम जाता है जो आम आदमी की बात कर रहा था।


