मुख्यधारा मीडिया के साथ आप की गहरी यारी,
दोनों का घराना- कॉरपोरेट पूँजीवाद- एक है
कॉरपोरेट पॉलिटिक्स की नई बानगी
प्रेम सिंह

देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों की हित-पोषक अर्थव्यवस्था स्थायी रूप से तभी चल सकती है जब राजनीति भी कॉरपोरेट घरानों की हित-पोषक बन जाये। नब्बे के दशक के शुरू में नई आर्थिक नीतियाँ लागू किये जाने के बाद से भारत की मुख्यधारा राजनीति का चरित्र कमोबेश कॉरपोरेट-सेवी बनता गया है। कॉरपोरेट पूँजीवाद के अलावा कोई अन्य विचारधारा और सिद्धान्त वहाँ काम करते नजर नहीं आते। अलबत्ता, कॉरपोरेट पूँजीवाद की विचारधारा सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, वंशवाद, परिवारवाद, व्यक्तिवाद आदि को अपने आगोश में लेकर जीवन के हर क्षेत्र और तबके में तेजी से घुसपैठ बनाती जा रही है। बड़ी पूँजी और बड़ी टेक्नोलाॅजी से चलने वाला मीडिया इसमें सबसे बड़ी भूमिका निभा रहा है। पहले मिश्रित अर्थव्यवस्था और पिछले करीब 25 सालों में नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का लाभ उठाने वाला ज्यादातर मध्यवर्ग, जिसे आजकल नागरिक समाज कहा जाता है और जिसके एक्टिविज्म की खासी चर्चा होती है, कॉरपोरेट पूँजीवाद का समर्थक बन गया है। ऐसे में, संविधान में प्रस्थापित लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों पर आधारित संविधान की विचारधारा भारत की राजनीति का निर्देश-बिंदु नहीं रह गयी है। वह विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन और उनके ऊपर अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के निर्देशों का पालन करती है। यह कॉरपोरेट पॉलिटिक्स का दौर है, आम आदमी पार्टी (आप) के रूप में जिसकी एक नई बानगी सामने आयी है।

आम आदमी पार्टी मुख्यधारा मीडिया में काफी छाई रहती है। लेकिन इसके चरित्र को लेकर गम्भीर विश्लेषण, जो लघु पत्रिकाओं में ही सम्भव है, देखने में नहीं आता। हमने ‘युवा संवाद’ के अपने मासिक कॉलम ‘समय संवाद’ में इस पार्टी के चरित्र की कुछ पड़ताल की है। यह लेख उसी कड़ी में लिखा गया है। इस विषय पर लिखे गये पहले के लेखों की तरह यह हिंदी अथवा अंग्रेजी के किसी अखबार में प्रकाशित नहीं हो सकता था। अंग्रेजी के ‘दि हिंदू’ और हिंदी के ‘जनसत्ता’ मुख्यधारा मीडिया में कुछ अलग पहचान वाले अखबार हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी के समर्थन में वे सबसे आगे नजर आते हैं। मुख्यधारा मीडिया के साथ आम आदमी पार्टी की गहरी यारी का कारण यही है कि दोनों का घराना - कॉरपोरेट पूँजीवाद - एक है।

आम आदमी पार्टी बनाने और चलाने वाले इंडिया अंगेस्ट करप्शन (आइएसी) के नाम से बनी टीम के प्रमुख नेता थे। आईएसी में सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी, यथास्थितिवादी, स्त्री-विरोधी, धर्म व अध्यात्म का धंधा करने, अंधविश्वास फैलाने और एनजीओ चलाने वालों की खासी तादाद थी। विश्व बैंक से पुरस्कार प्राप्त अन्ना हजारे इस टीम के प्रमुख बनाए गये, जिन्होंने अपने गांव को एनजीओ की मार्फत ‘स्वर्ग’ बना दिया था। उन्हें प्रमुख बनाने वाले अरविंद केजरीवाल भारत से राजनीतिक एक्टिविज्म को खत्म करने वाले प्रमुख एनजीओ सरगनाओं में से एक थे। दोनों में जो अंतर दिखाई देता है, वह इसलिये कि अन्ना हजारे 70 के दशक की उपज हैं और केजरीवाल सीधे नवउदारवादी दौर की संतान हैं। आईएसी के तत्वावधान में शुरू हुये भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के संचालन में आरएसएस ने और फैलाने में मुख्यधारा मीडिया ने केंद्रीय भूमिका निभाई। भारत के सभी कॉरपोरेट घराने और उनकी संस्थाएं उसके पूर्ण समर्थन में थीं। इस आन्दोलन के कर्ताओं के लिये भ्रष्टाचार ऐसी ताली है जो एक हाथ से बजती है; जिसमें नेताओं को घूस देकर राष्ट्र की संपत्ति को लूटने वाले कॉरपोरेट घरानों और कॉरपोरेट पूँजीवाद के सेफ्टी वाल्व एनजीओ को सच्चा सदाचारी माना जाता है। ‘भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की राख से पैदा’ हुई आम आदमी पार्टी का चरित्र आईएसी और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के चरित्र से अलग नहीं हो सकता। अतः उसे भारत में पिछले 25 सालों से बन रही कॉरपोरेट पॉलिटिक्स की एक नई बानगी के रूप में देखा जाना चाहिए।

नवउदारवाद की शुरूआत के साथ उसका प्रतिरोध भी शुरू हो गया था। नवउदारवाद के बरक्स वैकल्पिक राजनीति के निर्माण की भी शुरूआत हो गयी थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और आम आदमी पार्टी ने वैकल्पिक राजनीति के प्रयासों को भारी नुकसान पहुँचाया है। इस मायने में वह मुख्यधारा राजनीतिक पार्टियों से ज्यादा खतरनाक है।

नवउदारवाद की अनुगामी मुख्यधारा राजनीति, वैकल्पिक राजनीति को परास्त कर देती है। लेकिन इस पार्टी ने नवउदारवाद के विकल्प की राजनीति को खत्म करने का बीड़ा उठाया हुआ है। उसने सबसे गहरी चोट वैकल्पिक राजनीति की किशन पटनायक द्वारा प्रवर्तित धारा को दी है। इस बार, अपने को किशन पटनायक की धारा का समाजवादी कहने वालों ने विरासत के प्रति द्रोह किया है। लोकतांत्रिक प्रगतिशील खेमे से केवल कुछ समाजवादी ही इस पार्टी के स्थापनाकार और पैरोकार बने हैं।

थोड़ा पीछे लौटें तो पायेंगे कि इस पार्टी के प्रमुख लोगों में कुछ कांग्रेस और कुछ भाजपा-आरएसएस का काम करते थे। नवउदारवाद और कॉरपोरेट घरानों से ऐसे लोगों का कोई विरोध हो ही नहीं सकता। एक सूत्र में कहें तो ‘आम आदमी पार्टी के नेता कांग्रेस के मौसेरे, भाजपा के चचेरे और कॉरपोरेट के सगे भाई हैं।’ कांग्रेस का काम करने वालों के बीच सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति (नैक) में जगह पाने की प्रतिस्पद्र्धा चलती रहती है। जानकार बताते हैं कि केजरीवाल को नैक में और प्रशांत भूषण को केबिनेट में ससम्मान रख लिया जाता तो यह सब बखेड़ा खड़ा नहीं होता। शांति भूषण कांग्रेस की इस ‘नाइंसाफी’ को लेकर खासे आक्रोश में रहते थे कि चिदंबरम, सिबल, सिंघवी जैसे वकीलों को बड़े ओहदे देने वाली कांग्रेस ने उनके बड़े वकील बेटे को बाहर रखा हुआ है। जब से आम आदमी पार्टी बनी है, वे चर-अचर से कहते पाए जाते हैं कि पहले दिल्ली और 2014 में देश फतह कर लिया जायेगा! यानी कांग्रेस से उनकी अनदेखी करने का बदला ले लिया जायेगा।

आगे जारी ....