आप बनाम मैं
आप में हुइहै वही जो अरविंद रचि राखा।
‘‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छिपे थे भाई!’’ पाकिस्तान की मशहूर शायरा, फहमिदा रियाज ने कविता की उक्त पंक्तियां लिखीं तो भारत-पाकिस्तान के सिलसिले में हैं, लेकिन हाल की घटनाओं के संदर्भ में आम आदमी पार्टी बिल्कुल फिट बैठती हैं। एक ‘अलग’ किस्म की राजनीतिक पार्टी होने के आप के दावों के संदर्भ में भाजपा तथा कांग्रेस जैसी पार्टियां ही नहीं, सपा-बसपा से लेकर बीजद, अन्नाद्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, तेलुगू देशम्, तेलंगाना राष्ट्र समिति आदि, आदि पार्टियां भी अनौपचारिक स्तर पर और जाहिर है कि व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ, आप के लिए कविता की उक्त पंक्तियां जरूर दोहरा रही होंगी। और क्यों नहीं दोहराएंगी? आखिरकार, आप पार्टी के ताजातरीन घटना विकास से, जिसकी परिणिति उसके शीर्ष संस्थापक नेताओं में से दो, प्रशांत भूषण तथा योगेंद्र यादव के पार्टी के शीर्ष निकाय, पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी से बाकायदा निकाले जाने तथा यादव को पार्टी के प्रवक्ता के पद से भी हटाए जाने में हुई है, एक ही तो संदेश गया है। संदेश यह है कि दूसरी अधिकांश पार्टियों की तरह, आप पार्टी भी एक नेता पर केंद्रित पार्टी है। आप में हुइहै वही जो अरविंद रचि राखा।
बेशक, यह कहा जा सकता है कि आप पार्टी के ताजा संकट से उसके ‘एक नेता केंद्रित’ पार्टी हो जाने का नतीजा निकालना बहुत जल्दबाजी करना होगा! आखिरकार, वह मुश्किल से दो-ढाई साल पुरानी पार्टी होगी। अभी तो उसकी एक पार्टी के रूप में अपना ढांचा बनाने की प्रक्रिया ही पूरी नहीं हुई है। वैसे भी आप की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की आपात बैठक में नौ सदस्यीय पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी से दो सदस्यों को हटाने का ही तो फैसला लिया गया है। यह फैसला भी बाकायदा मतदान से यानी जनतांत्रिक तरीके से लिया गया है। यहां तक कि उक्त फैसले के बाद भी योंगेंद्र यादव तथा प्रशांत भूषण ने कम से कम यह नहीं कहा है कि अब आप पार्टी में उनके लिए जगह नहीं रह गयी है। उल्टे यादव ने तो अपने बयानों में उम्मीद बनी रहने की ही बात कही है, हालांकि प्रशांत भूषण के स्वर में ऐसा आशावाद नहीं नजर आता है। तब यही क्यों मान लिया जाए कि आप एक नेता पर केंद्रित पार्टी बनने के रास्ते पर चल पड़ी है।
एक नयी पार्टी होने के नाते आप पार्टी को संदेह का लाभ और समय भी, जरूर दिया जाना चाहिए। फिर भी उसके ताजा संकट के संबंध में अब तक सामने आये तथ्यों से जो स्पष्ट संकेत निकलते हैं, उन्हें कोई कैसे अनदेखा कर सकता है। विशेष रूप से आप पार्टी के सर्वोच्च निकाय, राष्ट्रीय कार्यकारिणी की हंगामी बैठक में उपस्थित, मयंक गांधी के अपने ब्लाग पर उक्त बैठक का विवरण प्रकाशित कर देने के बाद, तीन-चार बातें तो बिल्कुल स्पष्ट हो ही जाती हैं। पहली, आप के राष्ट्रीय संयोजक के पद से अरविंद केजरीवाल का इस्तीफा, यादव तथा भूषण को हटाने के लिए, आप पार्टी पर दबाव बनाने के पैंतरे का हिस्सा था। इसी के हिस्से के तौर पर केजरीवाल ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की उस आपात बैठक में दिल्ली में उपस्थित होते हुए भी हिस्सा नहीं लिया, जिसमें राष्ट्रीय संयोजक के पद से उनके इस्तीफे पर ही नहीं, यादव तथा भूषण के खिलाफ कार्रवाई पर भी विचार किया जाना था। इससे पहले फरवरी के आखिर में हुई कार्यकारिणी की बैठक के मौके पर ही केजरीवाल ने कह दिया था कि यादव-भूषण जोड़ी अगर पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी में रहती है, वह पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक नहीं रहेंगे। अचरज नहीं कि मयंक गांधी ने उन्हें शीर्ष कमेटी से निकलवाने के लिए सीधे केजरीवाल को ही जिम्मेदार ठहराया है।
दूसरे, केजरीवाल और उनके प्रति वफादार दिल्ली गुट को, यादव-भूषण जोड़ी का पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी से अलग किया जाना भर मंजूर नहीं था। इसीलिए, उन्हें इन दोनों की खुद ही पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी से अलग हो जाने की पेशकश मंजूर नहीं हुई। इस गुट को यह वैकल्पिक पेशकश भी मंजूर नहीं हुई कि कमेटी का पुनर्गठन किया जाए, जिसमें इन दोनों को छोड़ दिया जाए। इन पेशकशों को नामंजूर करने से पहले इस गुट के नेताओं ने, जिनमें आशीष खेतान, आशुतोष तथा दिलीप पांडे जैसे, राष्ट्रीय कार्यकारिणी के आमंत्रित तथा इसलिए खुद मताधिकार न रखने वाले सदस्य भी शामिल थे, बाकायदा अलग जाकर आपस में परामर्श किया था। उक्त पेशकशों के जरिए दोनों वरिष्ठ नेताओं को इज्जत के साथ पीछे हटने का मौका देने के बजाए, उनके खिलाफ राष्ट्रीय कार्यकारिणी से दंडात्मक कार्रवाई कराना जरूरी समझा गया। तीसरे, अरविंद गुट इस कदम पर पार्टी में शीर्ष स्तर पर विभाजन के बावजूद, इस तरह का दंडात्मक फैसला कराने के लिए बजिद था। अंतत: आप की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने आठ के मुकाबले सिर्फ ग्यारह वोट के बहुमत से उक्त फैसले पर अपनी मोहर लगायी थी।
बेशक, यह तो किसी का भी कहना नहीं है कि हमारे देश में राजनीतिक पार्टियों के इतिहास में ऐसा कोई पहली बार हो रहा है। उल्टे हमारे यहां तो मुख्यधारा की पार्टियों में यह एक तरह से नियम ही है। सच तो यह है कि जिस तरह आप की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने बहुमत से उक्त निर्णय लिया है, वह भी मुख्यधारा की पार्टियों में प्राय: दुर्लभ ही है। अक्सर तो इन पार्टियों में सुप्रीमो की इच्छा-अनिच्छा ही पार्टी में किसी भी पद पर बैठाने या पद से हटाने के लिए पर्याप्त होती है और बहुत बार तो किसी शीर्ष निकाय से मोहर लगवाने की औपचारिकता भी पूरी नहीं की जाती है। लेकिन, आप का उन जैसा होने की ओर बढऩा ही तो समस्या है। इसी प्रकार, ऐसा भी नहीं है कि दंडात्मक कार्रवाई कर पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी से हटाए गए नेता भी कोई दूध के धुले हों। कम से कम योगेंद्र यादव आम चुनाव से पहले से, पार्टी के हरियाणा के प्रभारी रहते हुए, आप की हरियाणा इकाई के बड़े हिस्से से तीखी कलह में उलझे रहे थे और राज्य इकाई की ओर से लगभग बगावत का सामना कर रहे थे। इस लिहाज से बेशक, इस कार्रवाई के पक्ष में तर्क दिए जा सकते हैं और वास्तव में दिए भी जा रहे हैं तथा आने वाले दिनों में भी दिए जा रहे होंगे। लेकिन, ये तर्क भी ज्यादा से ज्यादा एक नेता केंद्रितता की अपरिहार्यता के ही तर्क हैं, न कि उस ढलान पर न फिसलने के साक्ष्य।
हाल के पूरे घटनाक्रम से इतना तो साफ ही है कि सामूहिक नेतृत्व का निर्माण करने की पहली ही बड़ी परीक्षा में, अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आप विफल रही है। यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है कि बहुमत के बल पर अनुशासन का डंडा चलाए जाने का मुख्य कारण प्रशांत भूषण द्वारा और यादव द्वारा भी, आप की शीर्ष निर्णय प्रक्रियाओं के जनतांत्रीकरण तथा गैरकेंद्रीकरण की असुविधाजनक मांग उठाया जाना था। दिल्ली के चुनाव में आप की शानदार जीत और केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद संभालने के बाद, इस मुद्दे ने इस आग्रह के साथ एक नयी तात्कालिकता ले ली थी कि पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक की जिम्मेदारी कोई और नेता संभाले। यह पूरा मुद्दा केजरीवाल के इस आग्रहपूर्ण निर्णय से और उलझ गया लगता है कि आप पार्टी, दिल्ली में सरकार चलाने पर ही अपनी पूरी ऊर्जा लगाए। इस आग्रह के साथ, केजरीवाल का पार्टी का राष्टï्रीय संयोजक भी बना रहना, व्यावहारिक मानों में आप को दिल्ली तक ही सीमित कर देगा, जो जाहिर है कि आप के दूसरे अनेक नेताओं को शायद ही मंजूर हो। कहने की जरूरत नहीं है कि दिल्ली तक सीमित आप और भी ज्यादा केजरीवाल केंद्रित होगी और उसमें ऐसे नेताओं की गुंजाइश और भी कम होगी, जिनमें नेता से असहमत होने का साहस हो।
आप का एक नेता केंद्रित पार्टी के रास्ते पर जाना अपरिहार्य चाहे न रहा हो, उसकी संभावनाएं शुरू से थीं। यह दौर मसीहाओं की खोज का है और आप खुद विकल्प की ऐसी ही अमूर्त कल्पना से निकली है। इसके ऊपर से हमारे देश में जनतंत्र के व्यवहार और खासतौर पर चुनावी प्रक्रिया में, व्यक्ति केंद्रितता बढ़ती जा रही है। तभी तो भाजपा जैसी बाहर से नियंत्रित पार्टी भी, ज्यादा से ज्यादा मोदी केंद्रित होती गयी है। जाहिर है कि सामूहिक नेतृत्व पर आधारित पार्टी बनना एक कठिन व सतत लड़ाई की मांग करता है, जिसमें सुस्पष्ट विचारधारा तथा कार्यक्रम पर टिकी कम्युनिस्ट पार्टियां ही किसी हद तक कामयाब हुई हैं। दुर्भाग्य से आप ने भी एक नेता केंद्रितता का आसान रास्ता पकड़ लिया है।
राजेंद्र शर्मा
राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।