आम आदमी पार्टी में आना ही समाजवाद के साथ असल विश्वासघात था
आम आदमी पार्टी में आना ही समाजवाद के साथ असल विश्वासघात था
प्रो. आनंद कुमार पुण्य प्रसून से कह रहे थे कि हम लोग तो प्रायश्चित्त करने आम आदमी पार्टी में आए थे। किस बात का प्रायश्चित्त भाई? समाजवाद, किशन पटनायक, जेपी, लोहिया से विश्वासघात का प्रायश्चित्त या कुछ और? अगर अपनी विचारधारा से विश्वासघात नहीं किए, अब भी सच्चे समाजवादी हैं, तो वहीं रहना था। विचारधारा निरपेक्ष संगठन के साथ आकर तो वैचारिक प्रायश्चित्त मुमकिन नहीं।
या तो आप लोगों का समाजवाद पर से भरोसा उठ गया था। या फिर समाजवादी संगठन दोबारा खड़ा करने मे आपका भरोसा नहीं रहा था। आप शायद बरसों से किसी नए अवसर की ताक में थे जहां अपनी विचारधारा से "घोषित विश्वासघात" किए बगैर मुख्यधारा की राजनीति में वापसी हो सके और आंदोलनकारी की छवि भी धूमिल ना होने पाए। आम आदमी पार्टी ने सबको सिंगल विंडो क्लीयरेंस दे दिया क्योंकि वह घोषित तौर पर विचारधारा-निरपेक्ष थी। आपको लगा कि अच्छा है, दूसरे की जमीन को यथासंभव यथाशीघ्र जोत लो। आप भूल गए कि आए हैं तो समाजवाद की गठरी को छोड़कर आना था। गफ़लत में "जमीन जोतने वाले की" का ज्ञान देने लगे। अब फंस गए हैं तो मुद्दे गिनवा रहे हैं।
प्रो. आनंद कुमार, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, कमल चेनॉय, अजित झा आदि को अब ईमानदारी से मान लेना चाहिए कि आम आदमी पार्टी में आना ही समाजवाद के साथ असल विश्वासघात था, बल्कि खाली बैठे रहना कहीं बेहतर था। असली प्रायश्चित्त का मौका तो अब है।
अभिषेक श्रीवास्तव


