क्रिकेट की लोकप्रिय शब्दावली popular vocabulary of cricket का इस्तेमाल करते हुए, केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद Union Law Minister Ravi Shankar Prasad ने अब तक आरक्षण के दायरे से बाहर रहे तबके के लिए 10 फीसद आरक्षण 10 percent reservation, के प्रावधान के अपनी सरकार के दांव को, खेल के आखिरी ओवरों में जमाया गया छक्का Sixth of the last overs बताया है। कानून मंत्री, इसके जरिए यह शेखी भी मार रहे थे कि आम चुनाव की तारीखों के एलान से पहले के दो-ढाई महीनों में, मोदी सरकार Modi government और कई ऐसे ही चौंकाने वाले पैंतरे आजमा सकती है। फिर भी, क्रिकेट के खेल sports of cricket के उनके रूपक में, इसकी बाकायदा स्वीकृति तो थी ही कि ‘आरक्षण-वंचितों के लिए आरक्षणout of the purview of reservation का पैंतरा, मुख्य रूप से एक चुनावी पैंतरा है।

Reservation for reservation-deprived.

राजेंद्र शर्मा

वास्तव में किसी से छुपा हुआ नहीं है कि इन पैंतरों के अर्जेंसी, पिछले साल के आखिर में हुए पांच विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार और खासतौर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ की सरकारें उसके हाथ से निकल जाने में दिखाई दिए जनता की नाराजगी की रुझान से बहुत बढ़ गयी है। जनता की इस नाराजगी में भी, अपना परंपरागत समर्थन आधार रहे, सवर्णों के बीच बढ़ती नाराजगी से निपटने के लिए, जिसे आरएसएस मध्य प्रदेश में भाजपा के सत्ता से बाहर होने के लिए तो खासतौर पर जिम्मेदार मानता है, भाजपा इस पैंतरे से काफी उम्मीदें लगा रही है। यह इस कदम को नीयत के हिसाब से और संदिग्ध बना देता है।

यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि भाजपा का वैचारिक संचालक आरएसएस घोषित रूप से सामाजिक आरक्षण की व्यवस्था के ही खिलाफ रहा है और उसके मार्गदर्शन में चलने वाली भाजपा सरकारों पर बराबर अनुसूचित जातियों व जनजातियों के आरक्षण को भी खत्म करने की कोशिशों के आरोप लगते रहे हैं। इस वास्तविक इतिहास के चलते इन आरक्षणों को खत्म न करने का बार-बार विश्वास दिलाने के लिए मजबूर मोदी सरकार, जब अचानक अब तक ‘आरक्षण वंचितों’ के लिए ‘आरक्षण’ के प्रावधान के लिए अति-सक्रियता दिखाने लगे, तो अचानक इस हृदय-परिर्वतन पर सवाल उठना तो स्वाभाविक है। यह दूसरी बात है कि वास्तव में यह आरक्षण के मुद्दे पर हृदय-परिवर्तन का नहीं, हृदय-परिवर्तनाभास का ही मामला है। तात्विक रूप से तो यह सामाजिक आरक्षण के तर्क के ध्वंस का ही जरा सा भिन्न रूप है।

नीयत पर संदेह का एक और कारण, जो नीति पर संदेह से जुड़ता है, कथित रूप से ‘सामाजिक न्यायsocial justice के इस कदम का, सर्जिकल स्ट्राइक तथा नोटबंदी की तरह, ऐन आखिरी समय तक अति-गोपनीय रखा जाना या एकदम अचानक उठाया जाना है। सभी जानते हैं कि अनारक्षित-आरक्षण के लिए संविधान संशोधन का प्रस्ताव, मोदी सरकार के कार्यकाल के ऐन छोर पर ही नहीं लाया गया है, संसद के शीतकालीन सत्र के ऐन आखिरी दिन लाया गया है। इससे भी दिलचस्प बात यह कि जिस रोज लोकसभा में संबंधित संविधान संशोधन विधेयक constitution amendment bill पेश किया गया और पारित करा लिया गया, ठीक उसी रोज सामाजिक अधिकारिता मंत्रालय की ओर से संसद में रखे गए एक सवाल के जवाब में यह बताया गया था कि इस तरह के आरक्षण का कोई प्रस्ताव विचाराधीन ही नहीं था। साफ है कि संबंधित मंत्रालय तक में विचार की किसी सामान्य प्रक्रिया से गुजरे बिना ही, नोटबंदी तरह रातों-रात शीर्ष स्तर पर यह फैसला लिया गया है और उसे किसी बहस-मुबाहिसे की गुंजाइश दिए बिना ही पूरे देश पर थोप दिया गया है।

बेशक, यह कहा जा सकता है कि मंत्रिमंडल के निर्णय के तीन दिन के अंदर-अंदर, संविधान संशोधन का प्रचंड बहुमत से संसद के दोनों सदनों में पारित हो जाना, अपने आप में इस प्रावधान के लिए बहुत व्यापक सहमति होने का सबूत है। बहरहाल, अंतत: हुए मतदान से पहले, इस संविधान संशोधन प्रस्ताव पर हुई बहस पर सरसरी नजर डालने से भी साफ हो जाता है कि यह सहमति सिर्फ एक बिंदु पर है। और वह बिंदु यह है कि आर्थिक तरक्की के सारे दावों के बावजूद, सामाजिक रूप से गैर-पिछड़े तबके के भी प्रचंड बहुमत की हालत आज इतनी खस्ता है कि उसे, आरक्षण के सहारे सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को मिलने वाली बहुत मामूली सुविधा भी, अपने मुकाबले उन्हें बेहतर मौके दिलाती लगती है। जाटों, पटेलों, मराठों आदि अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक स्थिति में माने जाने वाली मध्यम किसान जातियों की पिछड़े वर्ग के रूप में आरक्षण की बढ़ती मांग जिस परिघटना को दिखाती है, उसकी आंच अब परंपरागत ऊंची जातियों तक भी पहुंच गयी है। जाहिर है कि यह संकट वास्तविक है जिसे हरेक राजनीतिक पार्टी पहचानती है और इसका 10 फीसद आरक्षण में कोई वास्तविक समाधान चाहे हो या नहीं हो, यह कोई पार्टी नहीं चाहेगी कि दूसरे उसे कथित सामान्य वर्ग के लिए ऐसी सुविधा देने का विरोधी दिखा सकें। नतीजा यह कि यह इस कदम की नीयत पर तो चर्चा हुई, जिसमें इसके न्यायिक परीक्षा में पास ही न हो सकने और सरकार की वास्तव में इसके लागू हो सकने के बजाए चुनाव में इसका इस्तेमाल करने में ही ज्यादा रुचि होने की चर्चा प्रमुख थी, लेकिन इसके पीछे की नीति पर शायद ही कोई चर्चा हुई। उल्टे इसकी चर्चा जरूर हुई कि अगर आरक्षण के लिए पचास फीसद की अधिकतम सीमा हटती है, तो पिछड़ा वर्ग को उसकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जाना चाहिए, जो अलग-अलग अनुमानों के अनुसार 42 से 52 फीसद तक होगा।

याद रहे कि हमारे संविधान में सामाजिक रूप से वंचितों के लिए आरक्षण की जो व्यवस्था की गयी थी, वह गांधी-आंबेडकर पुणे पैक्ट को संवैधानिक रूप देती थी। पुणे पैक्ट में दलितों ने पृथक निर्वाचक मंडल की मांग को इसी के भरोसे के आधार पर छोड़ा गया था कि परंपरागत रूप से प्रतिनिधित्वहीनों का प्रतिनिधित्व, खुद हिंदुओं के बीच से आरक्षण के जरिए सुनिश्चित किया जाएगा। बाद में, अस्सी के दशक के आखिर में जब मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू कर, शैक्षणिक पिछड़ेपन पर आधारित सामाजिक पिछड़ेपन से निपटने के लिए व्यवस्था खोजी गयी, राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण की जरूरत नहीं समझी गयी और शिक्षा तथा उसके बल पर नौकरियों में ही प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गयी। इसके ऊपर से इस आरक्षण की पात्रता से कथित क्रीमी लेयर को बाहर रखने के लिए, आय सीमा की एक निश्चित शर्त भी लगायी गयी।

स्वाभाविक रूप से इस प्रश्न में दिलचस्पी रखने वाले अनेक विद्वानों तथा अद्येताओं का यह मानना है कि गैर-पिछड़ों के लिए, जो परंपरागत रूप से शिक्षा आदि से बाहर रहने के कारण नहीं पिछड़े हैं और जिनके लिए असली समस्या, आर्थिक असमर्थता से पैदा होने वाले पिछड़ेपन की है, आरक्षण की न तो जरूरत है और न उनके मामले में आरक्षण वास्तव में कारगर होगा। आरक्षण की जरूरत न होने का संबंध इससे भी है कि आरक्षण, एक चालू जुम्ले का सहारा लें तो किसी वंचित समूह का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने वाली व्यवस्था है, न कि किसी तबके की गरीबी मिटाने का कार्यक्रम। वास्तव में इसके कोई साक्ष्य ही नहीं हैं कि अनारक्षितों के प्रस्तावित आय सीमा से नीचे के तबकों का शिक्षा या नौकरियों में हिस्सा, आबादी में उनके अनुपात से कम है। वास्तव में 8 लाख रु0 से अधिक की पारिवारिक आय या 5 एकड़ जमीन या कार्पोरेटेड शहर में 100 वर्ग मीटर या गैर-कार्पोरेटेड में 200 वर्ग मीटर जमीन या 1000 वर्ग फुट के फ्लैट की, क्रीमी लेयर की जो सीमा लगायी गयी है, वह अनारक्षितों के लगभग 95 फीसद हिस्से को इस आरक्षण के दायरे में ले आती है और इस तरह वास्तव में गरीबों के लाभान्वित होने के सारे रास्ते ही बंद कर देती है। इसके बजाए, अगर सरकार मिसाल के तौर पर शिक्षा तक इन तबकों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए वाकई उत्सुक हो, तो उसे इसकी व्यवस्था करने से कौन रोकता है कि शिक्षा की सार्वजनिक सुविधाओं का भारी विस्तार करे और गरीब परिवारों के सभी बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा दिलाए तथा नौकरियां जुटाए। लेकिन, नवउदारवाद के इस दौर में हमारे देश में तो सरकारें इससे उल्टी की दिशा में चलती रही हैं और मोदी सरकार के चार साल में, उल्टी दिशा में चलने की इस रफ्तार को और बहुत तेज कर दिया गया है। इसी का नतीजा है कि हाल में सामने आए आंकड़ों के अनुसार, जहां एक ओर मोदी सरकार गरीब अनारक्षितों को बहलाने के लिए 10 फीसद आरक्षण का झुनझुना थमा रही है, वहीं उसके राज में पिछले तीन साल में केंद्र सरकार में और सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियों की संख्या में उल्लेखनीय कमी ही हुई है। याद रहे कि नौकरियों में सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र में आरक्षण का वादा किया जा रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार, बढऩे के बजाए घट ही रहे हैं। गरीब अनारक्षितों को बिना रोजगार के आरक्षण मिलेगा कैसे?

बहरहाल, जब तक सार्वजनिक शिक्षा तथा सार्वजनिक रोजगार में उल्लेखनीय बढ़ोतरी के जरिए, समाजिक रूप से समर्थ गरीबों के लिए कुल अवसर बढ़ाना यह संभव नहीं हो, तब तक भी सामाजिक वंचितता से निपटने के लिए आरक्षण के उपाय से अलग, गरीबों व कम सुविधाओं के बीच पले लोगों को, मौजूदा सीमित अवसरों के बीच भी शिक्षा व नौकरी में प्राथमिकता देने के लिए, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सत्तर के दशक में ही विकसित की गयी, विभिन्न वंचिततताओं के लिए वेटेज पर आधारित, प्रणाली कहीं कारगर साबित हो सकती है। ऐसी प्रणाली गरीबी से जुड़ीे वंचितता के अधिकांश पहलुओं को हिसाब में लेकर, वास्तव में गरीबों की मदद कर सकती है। लेकिन, उस में मौजूदा सत्ताधारियों की दिलचस्पी क्यों होने लगी। उससे सचमुच गरीब सवर्णों का भला तो हो सकता है, लेकिन सत्ताधारी दल खुद को सवर्णों का मसीहा तो साबित नहीं कर सकता है। और उन्हें इसका संतोष भी नहीं दिला सकता है कि संघ के स्वयंसेवकों ने आखिरकार, सामाजिक रूप से वंचितों के लिए आरक्षण की वैचारिक बुनियाद में ही कामयाबी के साथ बारूदी सुरंग लगा दी है।

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Reservations for Reservations : Both policy and policy are false