एच. एल. दुसाध

संघ और उसके राजनीतिक संगठन भाजपा सरकार की चौतरफा मार से बहुजन समाज के नेता और सामाजिक कार्यकर्त्ता तथा छात्र एवं बुद्धिजीवी उद्भ्रांत होकर बचाव के लिए तरह-तरह के उपक्रम चला रहे हैं। उच्च शिक्षा पर मोदी सरकार की ओर से जो हमला हुआ है, उससे देश की राजधानी में शिक्षक सडकों पर उतर आये हैं। वे ज्वाइंट एक्शन कमिटी टू सेव रिजर्वेशन, दिल्ली यूनिवर्सिटी के तत्वावधान में गत 21 मार्च, 2018 से नार्थ कैम्पस, आर्ट्स फैकल्टी में क्रमिक भूख हड़ताल पर बैठ गए हैं। उनके क्रमिक भूख हड़ताल को समर्थन देने के लिए जेएनयू,जामिया मिलिया, इग्नू, आईपीसी यूनिवर्सिटी, आंबेडकर यूनिवर्सिटी, मेरठ, एमडीयू, केयू हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि यूनिवर्सिटीयों के शिक्षक भी पहुँच रहे हैं। देशभर के तमाम विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के अतिरिक्त विभिन्न राजनीतिक दलों के सांसद भी अपना समर्थन देने के अलावा संसद में यूजीसी द्वारा 5 मार्च, 2018 के आरक्षण विरोधी सर्कुलर को वापिस करने की मांग रखने का आश्वासन देकर गए हैं। लेकिन भूख हड़ताल पर बैठे शिक्षकों की मांग है कि जबतक एससी/एसटी एक्ट, यूनिवर्सिटीयों की स्वायत्तता और यूजीसी का सर्कुलर वापस नहीं हो जाता उनका कर्मिक भूख हड़ताल जारी रहेगा।


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एक ओर जहाँ शिक्षक विश्वविद्यालयों पर सरकार के हमले से बचाव में लगे हुए हैं, वहीँ दूसरी ओर मोदी सरकार आरक्षण और संविधान पर जो हमले कर रही है, उससे विपक्ष तो विपक्ष, खुद बीजेपी के दलित सांसदों के भीतर सरकार की नीतियों को लेकर नाराजगी बढती जा रही है। इस क्रम में संविधान और आरक्षण बचाने के लिए खुद भाजपा की सांसद सावित्री बाई फुले एक अप्रैल को लखनऊ में बड़ी रैली करने जा रही हैं। सूत्रों के मुताबिक वह एक अप्रैल के बाद इसके लिए रैलियों का अनवरत सिलसिला शुरू कर देंगी। बहरहाल बहुजन समाज प्रमोशन में आरक्षण बचाने की लड़ाई में पहले से ही व्यस्त था, अब उसके साथ संविधान और उच्च शिक्षा इत्यादि में आरक्षण बचाने की लड़ाई भी नए सिरे से जुट गया है।

इस बीच आक्रामक तरीके से अपने एजंडे लागू करने में व्यस्त मोदी सरकार की शह पाकर सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी एक्ट पर हमला बोल दिया है। इससे दलित आदिवासियों को सुरक्षा प्रदान करने वाला एक्ट काफी कमजोर हो गया है। कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ बहुजन समाज के तमाम संगठन स्वतःस्फूर्त रूप से 2 अप्रैल को भारत बंद करने जा रहे हैं। एससी-एसटी एक्ट में बदलाव के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर विपक्ष के साथ-साथ सरकार में भी खलबली है। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर पुनर्विचार याचिका दाख़िल करने की अर्ज़ी को लेकर एनडीए के सभी दलित सांसद पीएम नरेंद्र मोदी से संसद में मुलाकात कर चुके हैं। बहरहाल समग्र दलित बहुजन समाज जहां संविधान में किये गए तरह-तरह के प्रावधानों को बचाने में व्यस्त है, वहीं भाजपा और संघ बेहद आक्रामक तरीके से अपने एजंडे को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

अपनी आक्रामक पालिसी के तहत सपा-बसपा के मेल से उपजे संकट से पार पाने के लिए देश की राजनीति की दिशा तय करने वाले यूपी में योगी सरकार ने ओबीसी और दलितों के आरक्षण में विभाजन की दिशा में बड़ा कदम उठा दिया है। भाजपा जानती है कि उसने जिस पैमाने पर बहुजनों का सर्वनाश कर डाला है, उससे बहुजन उसे पहले की भांति वोट करने से रहे। ऐसे में वह उस धर्म का अमोघ अस्त्र इस्तेमाल करने का आक्रामक प्लान कर रही है, जिस धर्म से मोहाछन्न होकर दलित, आदिवासी, पिछड़े उसे अपना वोट लुटाने में गुरेज नहीं करते। इस योजना के तहत उसने इस बार के राम नवमी के दिन बहुजन युवाओं को धर्म के नशे मतवाला बनाने का एक अभिनय प्रयोग किया है। उसके इस प्रयोग के तहत देश के विभिन्न शहरों में दलित, आदिवासी और पिछड़े समाज के युवा हाथों में नंगी तलवारें और भगवा झंडा लिए लिए अल्पसंख्यकों के खिलाफ जिस तरह नारे लगाते हुए देश का वातावरण उतप्त किया, उससे हर किसी के होश फाख्ता हो गए होंगे। इसका सुफल भाजपा को मिला: कई शांत इलाके दंगों की चपेट में आ गए। कुल मिलाकर आज विशेषाधिकारयुक्त अल्पजनों की चैम्पियन भाजपा और वंचित बहुजन समाज आमने-सामने आ गए हैं। इनमे भाजपा जहाँ आक्रमण को बचाव का बेहतरीन तरीका मानते हुए आक्रामक तरीके से अपने लक्ष्यों की दिशा में आगे बढ़ रही है, वहीं बहुजन बचाव और सिर्फ बचाव में व्यस्त हैं। वे ऐसा कोई कदम नहीं उठा रहे हैं, जिससे भाजपा बचाव की मुद्रा में आये। लेकिन भारत आज इतिहास के जिस निर्णायक मोड़ पर खड़ा है, बहुजनों के समक्ष बचाव की रणनीति परित्याग करने से भिन्न कोई विकल्प नहीं रह गया है। इसके लिए उसे इतिहास का सिंहावलोकन करना जरूरी हो गया है।

महानतम समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स ने दुनिया के इतिहास को परिभाषित करते हुए यह कहा है कि दुनिया का इतिहास संपदा - संसाधनों के बंटवारे पर केन्द्रित वर्ग संघर्ष का इतिहास है तो भारत के सम्बन्ध में फुले, कांशीराम इत्यादि ने जातीय संघर्ष का इतिहास बताया। फुले-कांशीराम को भारत का इतिहास जातीय संघर्ष का इतिहास इसलिए बताना पड़ा क्योंकि जिस संपदा-संसाधनों के बंटवारे के कारण मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ वर्ग-संघर्ष संगठित होता रहा, सपदा-संसाधनों के बंटवारे का वह सिद्धांत वर्ण-व्यवस्था में निहित रहा। इस वर्ण-व्यवस्था ने दो वर्गों- शक्ति संपन्न विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी वर्ग और बंचित बहुजन समाज – का निर्माण किया। ये दोनों वर्ग देवासुर -संग्राम काल से ही संपदा-संसाधनों पर अपना वर्चस्व बनाने के लिए संघर्षरत रहे। अवश्य ही इसमें विशेषाधिकारयुक्त वर्ग हमेशा से विजयी रहा। आजाद भारत में आरक्षण पर संघर्ष के इतिहास में एक नया मोड़ तब आया जब 7अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। तब मंडलवादी आरक्षण से आक्रोशित होकर उनके विभिन्न गुट (छात्र-बुद्धिजीवी-मीडिया-राजनितिक दल) अपने-अपने तरीके से आरक्षण के खात्मे के लिए सक्रिय हुए। इसके लिए जहाँ राष्ट्रवादी भाजपा ने राम मंदिर का आन्दोलन छेड़ा, वहीं गांधीवादी कांग्रेस ने देश में भूमंडलीकरण की अर्थनीति शुरू किया। इस तरह 24 जुलाई, 1991 के बाद से जितनी भी सवर्णवादी सरकारें आयीं, उन सभी का एकमेव लक्ष्य आरक्षण का खात्मा रहा। इस मामले में कांग्रेसी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने एक दूसरे पीछे छोड़ने में होड़ लगाया। किन्तु वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की बात अलग रही। चूँकि संघ सबसे बड़ा सवर्णवादी संगठन है, इसलिए संघ प्रशिक्षित वाजपेयी और नरेंद्र मोदी ने तमाम संपदा-संसाधन सिर्फ और सिर्फ सवर्णों के हाथों में केन्द्रित करने के लिए सारी सीमाएं तोड़ दी। आज संघ प्रशिक्षित वाजपेयी और विशेषकर नरेंद्र मोदी की नीतियों के चलते टॉप की 10 % आबादी के हाथ में 90 % से ज्यादा धन-दौलत चली गयी है, जबकि दलित, आदिवासी पिछड़ो और धार्मिक अल्प संख्यकों से युक्त प्रायः 90% आबादी सिर्फ 9-10 % धन पर गुजर-वसर करने के लिए विवश है। इनमे दलित-आदिवासियों का शेयर शायद डेढ़ –दो प्रतिशत से भी कम होगा। बहुजन समाज के नेता-बुद्धिजीवी यह बात जितनी जल्दी उपलब्धि कर लें कि संघ का लक्ष्य मोदी के नेतृत्व में मंडलवादी आरक्षण का प्रतिशोध लेने के लिए 90 % लोगों के हाथ में बची -खुची 10% धन-संपदा भी मंडल विरोधी विशेषाधिकारयुक्त तबकों के हाथ में पहुंचा देने की है, उतना वंचित बहुजनों के हित में सही होगा।


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ऐसे में मोदी को पुनः सत्ता में आने से रोकना सबसे जरुरी हो गया है। इसके लिए सबसे जरुरी हो गया है कि बहुजन समाज के नेता-बुद्धिजीवी आरक्षण बचाने की रक्षात्मक नीति छोड़कर, सर्वव्यापी आरक्षण की आक्रामक पालिसी अख्तियार करें। इसके लिए धनार्जन के समस्त स्रोतों- मिलिट्री-न्यायपालिका सहित निजी और सरकारी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किन-परिवहन, ज्ञान के समस्त केन्द्रों, एनजीओ को बंटने वाली धनराशि, विज्ञापन निधि, फिल्म-मीडिया, पौरोहित्य, राजसत्ता की सभी संस्थाओं इत्यादि में दलित,आदिवासी, पिछड़ों एवं धार्मिक अल्प संख्यकों के संख्यानुपात में बंटवारे की मांग उठायें। सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई से सामाजिक न्याय की राजनीति का विस्तार और जाति चेतना के राजनीतिकरण में जबरदस्त उछाल आयेगा। और एक अदना सा बच्चा भी बता देगा कि जब सामाजिक न्याय की राजनीति का विस्तार होता है, तब भाजपा के सामने हार वरण करने के सिवाय कोई अन्य उपाय नहीं रहता। सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई से हिंदुत्व के नशे के शिकार बनते दलित, आदिवासी, पिछड़े समाज के युवाओं को विशेषाधिकारयुक्त तबकों के हित में इस्तेमाल होने से रोका जा सकता है। बहुजन युवा राम का जयनाद इसलिए नहीं करते कि इससे उन्हें मोक्ष मिल जायेगा, बल्कि इसलिए करते हैं कि राम की कृपा से उनकी भौतिक जरूरतें पूरी हो जाएँगी। यदि उनके समक्ष नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार इत्यादि समस्त क्षेत्रों में ही हिस्सेदारी पाने का ठोस सपना दिखाया जायेगा, वे भगवा झंडा और तलवारे फेंककर बहुजन पाले में आ जायेंगे। बहुजनों की वर्तमान दुर्दशा का बड़ा कारण यह भी है कि आज तक हम टुकड़ों-टुकड़ों में बहुजनों की भागीदारी की लड़ाई लड़ते रहे हैं। यदि संगठित होकर सारी ताकत सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई में लगाया गया होता, सवर्णवादी भाजपा कभी सत्ता का मुंह नहीं देख पाती।

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

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