पंकज सिंह
मजबूत नेतृत्व और इण्डिया शाइनिंग का दावा प्रस्तुत करने के बावजूद तात्कालिक वाजपेयी सरकार को 2004 के लोकसभा चुनावों में सत्ता गँवानी पड़ी थी। उस समय भी हालत कुछ ऐसे ही थे जब 2003 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विधान सभा चुनावों में भाजपा ने परचम लहरया था और नतीजों से उत्साहित केंद्रीय सरकार ने समय से पहले ही चुनाव करवा डाला लेकिन विधानसभा परिणामों के विपरीत भारतीय जनता ने भाजपा के नेतृत्व वाली राजग को हटाकर काँग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग गठबंधन को केन्द्र कि सत्ता सौंप दी।
सत्ता परिवर्तन की असली वजह क्या थी? काँग्रेस पार्टी और उसके सहयोगी दलों ने आखिर ऐसा कौन सा चमत्कार कर दिया था कि बाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार को मुंह कि खानी पड़ी। दरअसल, राजग सरकार ने अर्थव्यवस्था के पहिये की गति, अयोध्या में राम मंदिर, इण्डिया शायनिंग, कारगिल युद्ध, पोखरण परमाणु परीक्षण, भारत-पाक सम्बन्ध इत्यादि मुद्दों के बीच आम जनमानस के मुद्दों को धीरे-धीरे दरकिनार कर दिया था। काँग्रेस और उसके गठबंधन में शामिल वामपंथी दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्र में उन्ही मुद्दों को तवज्जो दी और उनको सकारात्मक परिणाम भी मिले तभी जाकर केन्द्र में संप्रग कि सरकार बनी । जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा इत्यादि के अलावा भी कुछ ऐसे मुद्दें हैं जो इस देश कि राजनीति की दिशा और दशा दोनों तय करते आये हैं।
2004 के लोकसभा चुनावों के दौरान भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था की रीढ़ असंगठित क्षेत्र के मेहनतकश तबके की बात की गयी जिससे इस देश के ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र में मेहनतकश (आम आदमी ) ने अपनी रोजमर्रा कि ज़िन्दगी की समस्याओं को कई मायनों में नजरअंदाज़ करने वाले राजनैतिक दलों को सत्ता से बाहर और उन्ही मुद्दों के प्रति संवेदनशील दिखे राजनैतिक दलों को सत्ता का रास्ता दिखाया था। असंगठित क्षेत्र के मेहनतकश तबके की समस्याओं के अध्ययन लिये गठित की गयी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक इस देश की 77 प्रतिशत आबादी 20 रुपये से कम आमदनी पर अपना गुजर बसर करती है। जब हम इस सवाल का जबाब तलाशते हैं कि ये 77 प्रतिशत लोग कौन हैं तो चौंकाने वाला सच सामने आता है, अपनी कुल आबादी का 88 प्रतिशत दलित और आदवासी, 85 प्रतिशत मुस्लिम और 80 प्रतिशत अन्य पिछड़ी जातियों के लोग इस गरीबी में जीवन-यापन कर रहे हैं। विपरीत परिस्थितियों में बिना सामाजिक सुरक्षा के मेहनत करने वाला इस देश में असंगठित क्षेत्र का 93 प्रतिशत कामगार तबका अपने परिवार सहित 77 प्रतिशत की उस आबादी को प्रस्तुत करता है जो 20 रुपये से कम आमदनी पर जीवन यापन कर रहें हैं। अजीब बात यह है कि आर्थिक विकास और सामाजिक कल्याण के इस दौर में बची हुयी आबादी को इसी दलदल में सरकारी नीतियों के द्वारा धकेला जा रहा है। जहाँ एक तरफ अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन (आई. एल. ओ.) दुनिया के देशों को कामगार तबके के काम और रहने दोनों ही जगहों पर सामाजिक सुरक्षा देने के निर्देश देता है वहीं भारत में काम के स्थान पर सामाजिक सुरक्षा देने के लिये बनाया गया असंगठित क्षेत्र मजदूर सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 भी कागजों तक ही सीमित है। संप्रग कि मनमोहन सिंह सरकार भले ही इस बात को नजरअंदाज़ करे लेकिन सच्चाई यही है कि उनको 15वीं लोकसभा में दुबारा इस देश कि जनता ने मौका दिया क्योंकि संप्रग कि पहली सरकार ने कुछ ठोस जनकल्याणकारी नीतियां और कानून बनाये जो वास्तविक मायनों में दूरदराज के गावों में रहने वालों से लेकर शहरों में रोजी- रोटी के लिये दिनरात मेहनत करने वाले वर्ग के लिये थीं। ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून 2005, सूचना का अधिकार अधिनियम 2006, वन अधिकार अधिनियम 2006, सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 से लेकर किसानों के कर्ज माफ़ी के लिये खर्च किये गये 70 हजार करोड़ रुपये तक ज्यादातर कदम आम जनमानस की ज़िन्दगी से सम्बधित थे। संप्रग सरकार का 2004 से 2008 तक हिस्सा रहे और आज भी जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र से अलग वर्ग की राजनीति करने वाले वामपंथी दलों के साथ-साथ जनान्दोलनों और सामाजिक संगठनों का अहम् योगदान रहा है जिसको काँग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनावों में बखूबी भुनाया और दोबारा और मजबूती से सत्ता हासिल की।
कानून और योजनाओं से जो उम्मीद संप्रग की पहली सरकार से आम जनता को जगी थीं उनको अमल में लाने की कमियों से और दोबारा बाजार की ओर सरकार के रुख से उस पर पानी फिर गया और संप्रग के सबसे बड़े दल काँग्रेस को अपनी गरिमा बचाने के लिये कोई रास्ता तक नहीं दिख रहा।
साल 1991 में नरसिम्हा राव की सरकार में वित्तमंत्री रहे मनमोहन सिंह ने हमारी अर्थव्यवस्था को वैश्वीकरण और उदारीकरण का ऐसा लिवास पहनाया कि देश में अमीर और गरीब की खाई भयानक रूप से बढ़ती जा रही है। परिणामस्वरुप निजी कम्पनियाँ दिन दूनी रात चौगुनी सम्पत्ति बना रही हैं। खराब नीतियों के चलते आम जनता पेट की भूख की चिन्ता से सुबह जगती है और उसी चिन्ता में रात को सोती है। जहाँ एक तरफ 2.80 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं, गाँवों में रोजगार के अवसर खत्म हो रहे हैं और शहरों में काम की पहचान तो दूर इंसान की पहचान ही सरकारी तन्त्र देने को तैयार नहीं है और फिर सामाजिक सुरक्षा और बुनियादी सुविधाओं की बात तो जागते हुये सपने देखने जैसे प्रतीत होती है।
वहीं दूसरी तरफ 2007 से 2012 के बीच सरकार निजी कंपनियों को 30 लाख करोड़ का अनुदान दे चुकी है। यही नहीं अब तक इस देश में 20 लाख करोड़ रुपये के घोटाले हो चुके हैं और लाख कोशिश के बाद भी भारत सरकार मारीशश के रास्ते विदेशी कम्पनियाँ का भारत में व्यापार करने के दौरान 70 हजार करोड़ की कर चोरी पर रोक नहीं लगा पाई।
आज हमारे देश में किसानों की जमीनें, आदिवासियों को उजाड़कर और पर्यावरण को ताक पर रखकर जंगल एवं नदियाँ निजी कम्पनियों को बेचा जा रहा है। आखिर आम जनता के मुद्दे राजनैतिक पार्टियाँ क्यों नहीं उठाती। इस बात पर अगर विचार किया जाये तो राजनैतिक पार्टियों और राजनेताओं की कलई खुलती हुयी नजर आती है। चुनाव में होने वाले भारी- भरकम खर्चें और नेताओं की आलीशान जिन्दगी आखिर कहीं से आने वाले पैसे से ही चलती है और वो पैसा बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ देती हैं और फिर बेहताशा ब्याज सहित वो रकम वसूलने के साथ साथ नेताओं को अपने फायदे के लिये नीतियाँ बनाने पर मजबूर करती हैं। हमारे देश का मीडिया भी बड़े-बड़े उद्योगपतियों के अहसानों तले इतनी दबी हुया है कि जनता के सामने इस सच्चाई को उजागर नहीं कर सकता। आखिर रोजी-रोटी और तामझाम का जो सवाल है।
देश में आज बड़े पैमाने पर बहस छिड़ी हुयी है कि मोदी, राहुल और केजरीवाल इन तीनों में से सबसे काबिल व्यक्ति प्रधानमंत्री के लिये कौन है। पिछले 13 वर्षों से गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उमीदवार नरेंद्र मोदी अपने आपको चाय वाला बताकर और देश कि बदहाली का जिम्मेवार काँग्रेस पार्टी और गांधी - नेहरू परिवार को बताकर वोट माँग रहे हैं तो दूसरी तरफ 60 वर्षों से देश में शासन करने वाले गांधी- नेहरू परिवार से काँग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी, भाजपा और नरेंद्र मोदी को समाज को बाँटने और साम्प्रदायिकता पर आधारित राजनीति करने का आरोप लगाते हुये अपने पिता और दादी की हत्या का जनसभाओं में जिक्र करके वोटरों को रिझा रहे हैं , एक नयी राजनीति की पहल करने वाले देश के आय कर विभाग में कमिशनर और सन 2006 में मैग्सेसे पुरुस्कार से सम्मानित हाल ही में दिल्ली के मुख्यमत्री पद से इस्तीफा देने वाले अरविन्द केजरीवाल आम आदमी की भेष- भूषा में देश की राजनीति को भ्रष्टाचार का केन्द्र और देश के प्रमुख नेताओं को भ्रष्ट बताकर वोट माँग रहे हैं।
भारतीय राजनीति में जिस तरह देश के दो बड़े दल भाजपा और काँग्रेस वोट बैंक कि राजनीती कर रहे हैं उसी रास्ते का अनुसरण क्षेत्रीय राजनैतिक दल भी अपने स्तर पर कर रहे हैं जिससे आम जनमानस के मुद्दों कि जगह नेताओं के द्वारा एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप ने ले लिया है जिसमे सभी बड़े नेता अपने- आपको सच्चा और दूसरे को झूठा साबित करने कि होड़ में लगे हैं। बात यहीं रुक जाती तो भी शायद सच्चाई और देश कि जनता के हितैसी बनने का ये नाटक राजनीति को खतरनाक रास्ते पे न ले जाता-और वो रास्ता है जनता को भावनाओं में बाँधकर राजनीति करने का जिसका परिणाम जाती और धर्म के नाम पर दंगे फसाद, इंसान का इंसान के प्रति घृणा भाव, वोट बैंक बनाने के लिये आज देश कि कई राजनीतिक पार्टियां और राजनेता नैतिक मूल्यों, प्रजातन्त्र और इंसानियत का दिनों-दिन गला घोट रहे हैं। अयोध्या में राम मंदिर बन जाने से इस देश की गरीब जनता को बिजली, पानी, सड़क, स्वस्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाएँ नहीं मिलने वाली और ना ही इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या करने वाले जिम्मेवार चंद लोगों के नाम पर पूरे समुदाय को राजनैतिक फायदे के लिये बदनाम करने से देश कि जनता का भला होने वाला है।
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जन्मी आम -आदमी पार्टी ने जो पहल देश की राजनीति में की है वह स्वागत योग्य है लेकिन ‘आप’ से ये उम्मीद करना कि उनके पास देश की सभी समस्याओं के लिये कोई चाभी है तो यह एक बहुत बड़ी भूल होगी क्योंकि आप को अभी शहरों से निकलकर ग्रामीण इलाकों में पहुंचना, जनता के सामने अपनी पार्टी की आर्थिक और सामाजिक नीति रखना इत्यादी एक लम्बा सफ़र तय करना है। इसके साथ ही समाजवादी, वामपंथी और अन्य राजनैतिक दल जो प्रयास और कार्य करते आये हैं उनको और सक्रीयता से काम करना होगा भले ही उनके कामों को देश की मीडिया या जनता उतना तवज्जो न दे। देश के ग्रामीण अंचल से लेकर शहर की झुग्गी झोपड़ी तक मुद्दों और विचारधारा की राजनीति की दरकार आज भी है न की व्यक्तिवाद, अवसरवादी और विचार विहीन राजनीति की।
आम जनता के मुद्दों से भटकती राजनीति को मुद्दों में बनाये रखने कि बड़ी जिम्मेवारी इस देश के जन आंदोलनों और सामाजिक संगठनो के ऊपर भी है ताकि जनता के सही मुद्दे और जरूरतें सत्ता के गलियारों तक पहुंचते रहें और कानून और योजनाएं उसी तर्ज पर बने इसके लिये जनता को राजनैतिक रूप से तैयार भी करना होगा क्योंकि जैसी प्रजा वैसा राजा (नेता) वाली कहावत आज की राजनीति पर सही चरितार्थ होती है।
पंकज सिंह ने टाटा इंस्टिच्यूट ऑफ सोशल साइंस से पढ़ाई की है और फिलहाल सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हैं।