इमर्जेन्सी में माफ़ी मांगने वालों को 'संविधान हत्या दिवस' मनाये जाने का अधिकार नहीं : क़ुरबान अली
Those who apologized during the emergency have no right to celebrate 'Constitution Murder Day': Qurban Ali. वो लोग जो इंदिरा गाँधी के सामने माफ़ी मांगते हुए गिड़गिड़ाए थे और जिन लोगों ने उस समय इंदिरा सरकार को 'माफीनामे' सौंपे कर जेल से रिहाई मांगी थी, वे अब सबसे उत्साही बनकर आपातकाल विरोधी योद्धा बन रहे हैं।

क़ुरबान अली एक वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व स्वतंत्रता सेनानी तथा समाजवादी नेता कैप्टन अब्बास अली के बेटे हैं, जिन्हें आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार ने 19 महीने के लिए जेल में डाल दिया था।भाजपा सांसद कंगना रनौत कीबॉलीवुड फिल्म 'इमरजेंसी' की रिलीज को लेकर हालिया विवाद और आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर बीजेपी द्वारा 'संविधान हत्या दिवस' मनाये जाने की पृष्ठभूमि में, क़ुरबान अली ने आपातकाल के "काले दिनों" और अपनी राजनीतिक विरासत के बारे में आउटलुक पत्रिका से बात की जिसे एक लेख की शक्ल में अंग्रेजी में प्रकाशित किया है, साथ ही इसी विषय पर उनका एक लम्बा इंटरव्यू भी यूट्यूब पर उपलब्ध है।
मेरे पिता कैप्टन अब्बास अली को जेल जाने का बहुत शौक था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वे ब्रितानी सेना में विद्रोह करने के मक़सद से उसमें शामिल हुए, उन्हें सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज (आईएनए) के साथ इंफाल मार्च करने के लिए भारत में ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था और उन्हें कोर्ट मार्शल करके मौत की सजा सुना दी थी। सितम्बर 1946 में पंडित नेहरू की अंतरिम सरकार बनने और आज़ादी की घोषणा हो जाने के कारण उनकी जान बच सकी।
आज़ादी मिल जाने के बाद वह समाजवादी आंदोलन में शरीक हो गए और अगले कई दशक तक वह नागरिक अधिकारों को लेकर सिविल नाफ़रमानी करते हुए गिरफ़्तार होते रहे और जेल जाते रहे। सिविल नाफ़रमानी और बिना इजाज़त प्रदर्शन करने के लिए उन्हें 1948 और 1977 के बीच लगभग 50 बार कांग्रेसी सरकारों द्वारा जेल भेजा गया था। फिर भी, उन्हें सबसे कठिन और लम्बा कारावास इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून, 1975 को लगाए गए आपातकाल के बाद हुआ जब वह लगातार 19 माह तक उत्तर प्रदेश की विभिन्न जेलों में बंद रहे। मैं उस समय लगभग 12 वर्ष का था। फिर भी, उन दिनों की डरावनी यादें अक्सर मेरे सामने ऐसे आ जाती हैं जैसे मानो यह कल की ही बात हो।
उस समय हम ख़ुफ़िया तरीक़े से प्रतिरोध आंदोलन चलाने वालों की सहायता किया करते थे और पैम्फलेट आदि प्रतिबंधित सामिग्री बांटा करते थे।
जब हमने आपातकाल और राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा विपक्षी नेताओं की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी के बारे में सुना तो उस समय हम अलीगढ़ ज़िले के एक दूरदराज गांव में अपने नाना के घर पर थे। वह जेपी (जयप्रकाश नारायण) आंदोलन का चरम था और मेरे पिता, जो उस समय उत्तर प्रदेश (यूपी) के एक प्रमुख समाजवादी नेता थे, 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद से देश भर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में भाग ले रहे थे। मेरे पिता समाजवादी नेता राजनारायण द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ दायर किये गए उस इलेक्शन पिटीशन में एक प्रमुख गवाह भी थे जिसके फ़ैसले से भारत की राजनीति का नक़्शा बदल गया। वह 1971 के उस लोकसभा चुनाव में राजनारायण के एक प्रमुख चुनाव एजेंट थे जिसमें धांधलियों के आरोप लगने के बाद इलेक्शन पिटीशन दायर किया गया था और जिसके आधार पर इंदिरा गाँधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया गया।
हमें पता था कि अब्बा के गिरफ्तार होने की संभावना है, और उन्हें अंतत: गिरफ्तार किया भी गया। लेकिन उनकी गिरफ्तारी को सार्वजनिक नहीं किया गया। लगभग दो महीने तक हमें उनका कोई सुराग नहीं मिला। हमें नहीं पता था कि वह किस जेल में हैं, और उन्हें किस आरोप में गिरफ्तार किया गया है, वह जीवित हैं भी या नहीं यह भी मालूम नहीं था।
वह एक अंधकारमय समय था। राजनीतिक कैदियों को हिरासत में यातना देने की अफवाहें फैली हुई थीं और कुछ लोगों ने यह भी दावा किया कि कैदियों को मारने के लिए किसी प्रकार का 'धीमा जहर' (स्लो पॉइज़न) खाने में इस्तेमाल किया जा रहा था। उस समय कोई मीडिया नहीं था। नागरिक स्वतंत्रता की बात करने वाले लोग नहीं थे। यानि कोई नागरिक समाज नहीं था। न्यायपालिका ने स्वतंत्र रूप से काम करना बंद कर दिया था और पूरी तरह से प्रेस सेंसरशिप लागू थी और असहमति को दबा दिया गया था। रातों-रात मेरे पिता जैसे हज़ारों लोग जेल में थे।
शाह कमीशन में पेश किये गए सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ इमरजेंसी के दौरान एक लाख से ज़्यादा विपक्षी दलों के नेता और कार्यकर्त्ता गिरफ्तार किये गए थे। इनमें क़रीब पैंतीस हज़ार मीसा के तहत और क़रीब पचहत्तर हज़ार डीआईआर के तहत गिरफ़्तार किये गए। प्रमुख विपक्षी दलों में भारतीय लोकदल (बीएलडी), भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (संगठन) और सोशलिस्ट पार्टी तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ सदस्य शामिल थे।
राजेश्वर राव के नेतृत्व वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उस समय कांग्रेस पार्टी की सहयोगी पार्टी थी और इंदिरा गाँधी का समर्थन कर रही थी। गिरफ्तार हुए लोगों में आरएसएस, जमात-ए-इस्लामी और आनंद मार्गी लोग भी शामिल थे।
क़रीब दो महीने के बाद, हमें बुलंदशहर जेल से लिखा अब्बा का एक ख़त मिला, जिसमें उन्होंने हमें बताया कि 'उन्हें ट्रेनों को पटरी से उतारने के लिए रेलवे ट्रैक उखाड़ फेंकने के झूठे आरोप में मीसा क़ानून' के तहत गिरफ्तार किया गया है। उन्हें पहले डिफेंस ऑफ़ इंडिया रूल (डीआईआर) के तहत गिरफ्तार किया गया और फिर उन पर 'मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट' (मीसा) भी लगा दिया गया।
अब्बा को परेशान करने के मक़सद से उन्हें उस समय की कुख्यात बरेली (इज़्ज़तनगर) सेंट्रल जेल में रखा गया जहां कुछ राजनीतिक बंदियों के नाख़ून 'प्लास' से खींचकर निकाल दिए गए थे। कुछ समय के लिए अब्बा को आगरा और फ़तेहगढ़ जेल में भी रखा गया और बाद में उन्हें इलाहाबाद की नैनी सेंट्रल जेल में स्थानांतरित कर दिया गया था क्यूंकि डीआईआर और मीसा में अपनी अवैध गिरफ्तारी को चुनौती देने के लिए उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में हेबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) याचिका दायर की थी। वह 19 महीने तक जेल में रहे।
मुझे याद है कि मैं अपनी मां, बहनों और कुछ अन्य करीबी लोगों के साथ उनसे मिलने जेल जाया करता था। हम घर पर बना खाना ले जाते थे, खासकर ईद-बक़रीद जैसे त्योहार के दिनों में। जेल में होली और दिवाली का जश्न भी मनाया जाता था। कुछ माह बाद जेल अधिकारी राजनीतिक कैदियों के प्रति सहानुभूति रखने लगे थे और उनके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करते थे।
जब तक हमारे पिता रिहा हुए और घर लौटे, हमारी खेती-बाड़ी चौपट हो चुकी थी। आमदनी का दूसरा कोई ज़रिया नहीं था। जनता पार्टी बनने के बाद मेरे पिता को बुलंदशहर लोक सभा सीट से उम्मीदवार बनाने का प्रस्ताव किया गया लेकिन उन्होंने अपनी वित्तीय दुश्वारियों का हवाला देते हुए इंदिरा गांधी द्वारा घोषित लोकसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया।म गर उन्होंने उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी के उम्मीदवारों के लिए जी जान से काम किया।
जनता पार्टी दरअसल चार-पांच दलों का एक समूह था जिसमें भारतीय जनसंघ, कांग्रेस(ओ) भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी और बाद में, जगजीवन राम की कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी (सीएफडी) शामिल हुई थी। इन चुनावों में जनता पार्टी ने प्रचंड बहुमत से जीत हासिल की। उसे 300 से ज़्यादा सीटें मिली। आपातकाल ख़त्म हो चुका था। जनता पार्टी बनने के तीन महीने बाद औपचारिक रूप से उस समय पार्टी का गठन किया गया जब उसकी सरकार बन गई थी। जनता पार्टी एक मई 1977 को अस्तित्व में आयी। चंद्रशेखर पार्टी के अध्यक्ष चुने गए और उनके साथ पांच महासचिव बनाये गए जिनमें मधु लिमये, नानाजी देशमुख, रबी राय, विजय सिंह नाहर और रामकृष्ण हेगड़े शामिल थे। अब्बा को उत्तर प्रदेश जनता पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया।
जनता पार्टी का गठन यूं तो आपातकाल के विरोध में हुआ था लेकिन उसे प्रभावी तरीक़े से सामाजिक न्याय की राजनीति के रूप में भी देखा जा सकता है क्यूंकि पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में 27 फीसद आरक्षण देने का का प्रावधान करने के लिए मंडल आयोग का गठन जनता पार्टी सरकार के दौरान ही किया गया था।
मगर यह भी एक सच्चाई है कि जेपी आंदोलन, इमरजेंसी और जनता पार्टी के गठन ने देश में समाजवादी आंदोलन का अंत कर दिया। जो राजनीति "कांग्रेस-विरोध" के नाम पर शुरू हुई थी उसकी परिणीति 'क्रूर सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद' राजनीति के रूप में परिवर्तित हो कर आज इस महान देश की हज़ारों साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति को तबाह कर रही है और इस माहौल में राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान निर्मित की गई उस विचारधारा के लिए कोई स्थान नहीं बचा है जिसमें धर्म, जाति, वर्ण, संप्रदाय,पंथ, लिंग, क्षेत्र, भाषा, और खान-पान को लेकर किसी भी नागरिक के साथ किसी तरह का भेदभाव न करने की बात कही गई थी।
महात्मा गाँधी के नेतृत्व में लड़ी गई आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही यह स्पष्ट कर दिया गया था कि द्वि-राष्ट्रवाद के नाम पर पाकिस्तान का गठन हो जाने के बावजूद हिंदुस्तान को 'हिँदूराष्ट्र' नहीं बनाया जायेगा बल्कि आज़ाद हुआ मुल्क़ बराबरी के सिद्धांत के आधार पर एक 'सॉवरिन, सोशलिस्ट, सेक्युलर, डेमोक्रेटिक, रिपब्लिक' (सार्वभौम, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक, गणराज्य) होगा।
डॉ. आंबेडकर ने जिस भारतीय संविधान का निर्माण किया था दरअसल उसकी भूमिका कांग्रेस पार्टी द्वारा पारित किये गए प्रस्तावों ख़ासकर 1931 की कराची कांग्रेस के प्रस्तावों पर ही आधारित है।
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जब भारत का विभाजन हुआ तो उस समय मेरे पिता मुल्तान किले की जेल में बंद थे। जब वह घर लौटे, तब तक हमारे अधिकांश रिश्तेदार पाकिस्तान चले गए थे (मेरी दादी पाकिस्तान के स्यालकोट ज़िले में दफ़्न हैं जबकि मेरे दादा बुलंदशहर ज़िले के क़लन्दर गढ़ी गांव में)। मेरे अब्बा ने भारत में ही रहना पसंद किया क्योंकि उनका मानना था कि ऐसा करके वे राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के अपने विचारों के प्रति सच्चे वफ़ादार रह सकते हैं। हालाँकि भारत सरकार ने 1975 तक आज़ाद हिन्द फ़ौज के सेनानियों को स्वतंत्रता सेनानी नहीं माना जबकि अब्बा को 1947 में पाकिस्तानी फ़ौज में एक बड़ा ओहदा देने का प्रस्ताव किया गया था जिसे उन्होंने नामंज़ूर कर दिया।इसके मुक़ाबिले वह 1948 में, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी (एसपी) में शामिल हो गए। वह 1977 में जनता पार्टी में विलय होने तक सभी समाजवाद की सभी धाराओं, अर्थात् प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े रहे। वे शहीद ए आज़म भगत सिंह के अनुयायी थे और उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत भगत सिंह की नौजवान भारत सभा और आल इंडिया स्टूडेंट फ़ेडरेशन से की थी।
अब्बा की राजनीति ने मुझे बहुत मुत्तासिर किया। उनकी विचारधारा ही मेरी सबसे बड़ी विरासत है। मैं अपने छात्र जीवन में उसी का अनुसरण करता रहा और यूपी-बिहार में चले लोकप्रिय आंदोलनों में भाग लेता रहा, जिसे उस समय 'संपूर्ण क्रांति' आंदोलन या जेपी आंदोलन के नाम से जाना जाता था। मैंने जेपी को पहली बार 1974 में तब देखा था जब वह मेरे शहर खुर्जा आए थे और उन्होंने एक विशाल सभा को सम्बोधित किया था। जब उन्होंने 6 मार्च, 1975 को "दिल्ली चलो" का आह्वान किया, तो मैं अपने पिता के साथ पहली बार राजनीतिक रूप से दिल्ली आया और उस मार्च में हिस्सा लिया जिसमें देश भर के लगभग सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने हिस्सा लिया था।
उस समय मुझे और मेरे पिता को शायद यह एहसास नहीं था कि समाजवादी, जेपी के जिस आह्वान पर इंदिरा गाँधी और उनकी कांग्रेस पार्टी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट कर रहे थे उसकी असल फ़सल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) काट रहा था। उस समय तक आरएसएस-जनसंघ राजनीतिक रूप से अछूत थे और उन्हें कोई दल अपने साथ लेना नहीं चाहता था। अगर यह कहा जाये तो ग़लत न होगा कि लोहिया की "ग़ैर-कांग्रेसवाद' की राजनीति ने आरएसएस की अनटचएबिलिटी (अस्पृश्यता) को ख़त्म किया और जेपी ने उन्हें सम्मान देते हुए क्रेडेबिलिटी (साख) बख़्शी तो ग़लत न होगा।
आपातकाल से पहले की रात, (25 जून 1975) को जेपी और विपक्ष के अन्य नेताओं ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल रैली आयोजित की जो आपातकाल लागू होने के लिए एक प्रमुख 'ट्रिगर' था। जिसमें जेपी ने सेना और अर्धसैनिक बालों से सरकारी आदेश न मानने का आह्वान किया था।
इसके अलावा समाजवादी, आरएसएस की विचारधारा को जिस तरह से बढ़ावा दे रहे थे और लोहिया जैसे नेता राजनीति में राम, कृष्ण और शिव का इस्तेमाल करके धार्मिक विचारधारा को समाजवादी विचारधारा से जोड़कर उसे परिभाषित कर रहे थे और आरएसएस को देशभक्ति के सर्टिफ़िकेट दे रहे थे उससे समाजवादी विचारधारा का बहुत नुकसान हुआ और आखिरकार वह ख़त्म हो गई।
लोहिया का कहना था कि 'वह न मार्क्स समर्थक हैं, न मार्क्स विरोधी' लेकिन बहुसंख्यक मतदाताओं को खुश करने के लिए, जरूरत पड़ने पर वह यह शायद साम्यवाद और मार्क्स, लेनिन और माओ की वामपंथी विचारधाराओं का मुकाबला करने के लिए अपने राजनीतिक दर्शन और राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल करने से गुरेज़ नहीं करते थे जिसके लिए उनकी काफी आलोचना भी हुई। विरोधियों द्वारा ही नहीं बल्कि अपने चहेतों द्वारा भी (चित्रकूट में रामायण मेले की परिकल्पना भी इसमें शामिल थी)। यह समाजवादियों का तरीका था जो समाजवादी विचारधारा को मौजूदा साम्यवाद से "अलग" बताने हुए अक्सर धर्म या अनुष्ठान प्रथाओं की उपेक्षा नहीं कर पाते थे और उनके कई बड़े नेताओं ने 'हिंदुत्व' की लोकप्रिय कथाओं का समर्थन तक किया।
लोहिया ने कांग्रेस के दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण वोट बैंक को तोड़ने के लिए 'पिछड़ी जातियों' (पिछड़ा पावे सौ में साठ) की राजनीति भी विकसित की।
लोहिया कहते थे कि उनका समाजवाद समय की आवश्यकताओं (देश, समय, परिस्थिति और काल) के अनुरूप है। यह सच है कि 70 के दशक तक, पिछड़ी जातियों, वर्गों या समुदायों और अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों को राष्ट्रीय स्तर की अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकार के शीर्ष नेतृत्व पदों पर रहने का मौका शायद ही कभी मिलता हो। लेकिन लोहिया की राजनीतिक इंजीनियरिंग के चलते 1967 में यूपी और बिहार में पिछड़ी जाति के कई नेता बड़े पदों पर बैठे, जिनमें यूपी में चरण सिंह और बिहार में कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने। कर्पूरी ठाकुर 1967 में बिहार के उपमुख्यमंत्री और बाद में 1970 व 1977 में मुख्यमंत्री बने।
लेकिन यह भी एक तथ्य है कि लोहिया समेत सोशलिस्ट पार्टी की किसी भी धारा (सपा, प्रसोपा, संसोपा) का अध्यक्ष, महासचिव, संसदीय दल का नेता कभी कोई दलित, आदिवासी, महिला या मुसलमान नहीं हुआ। जो उनकी पिछड़ा पावे सौ में साठ के सिद्धांत के खिलाफ था क्यूंकि पिछड़ों में ओबीसी के अलावा दलित, आदिवासी, महिलाएं और मुसलमान भी शामिल थे।
मेरे पिता का दस साल पहले निधन हो गया। समाजवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य में उनका विश्वास, जहां सभी को समान अधिकार हासिल हों और धर्म, जाति, रंग, भाषा और लिंग के नाम पर कोई शोषण ना हो, कभी नहीं डगमगाया। हालांकि, समय के साथ उनका समाजवादियों से मोहभंग होता गया, विशेषकर उन लोगों से जो आरएसएस की धर्म के नाम पर राजनीति के समर्थक थे और जिन्होंने आरएसएस की दोहरी सदस्यता के सवाल पर जनता सरकार और पार्टी को तोड़ा था जैसे जॉर्ज फर्नांडिस, नीतीश कुमार, हुक्मदेव नारायण यादव और सत्यपाल मलिक वग़ैरह।
1979 में जनता पार्टी के विघटन के बाद पूर्व जनसंघ और आरएसएस का गुट जल्द ही भारतीय जनता पार्टी के रूप में फिर से एकजुट हो गया। बीजेपी के सदस्य, शुरू में अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता के दौरान, खुद को 'गांधीवादी समाजवादी' कहते थे। लेकिन 1984 में लोकसभा की केवल दो सीटें जीतने के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद जब लाल कृष्ण आडवाणी ने पार्टी की कमान संभाली, तो बीजेपी, संघ की मदद से अपनी पूर्व हिंदुत्ववादी पहचान और ध्रुवीकरण करके बहुसंख्यक सांप्रदायिक राजनीति की ओर लौट आयी।
दिलचस्प बात यह है कि आपातकाल के लगभग 50 साल बाद, आज वो लोग जो इंदिरा गाँधी के सामने माफ़ी मांगते हुए गिड़गिड़ाए थे और जिन लोगों ने उस समय इंदिरा सरकार को 'माफीनामे' सौंपे कर जेल से रिहाई मांगी थी, वे अब सबसे उत्साही बनकर आपातकाल विरोधी योद्धा बन रहे हैं। जिन्होंने कभी भारत की आजादी के लिए लड़ाई नहीं लड़ी, जिनका स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं रहा और जो संविधान निर्माण का विरोध करते रहे वे आज डा. आंबेडकर के बनाये संविधान को हड़पने की कोशिश कर रहे हैं।
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल यक़ीनन एक काला अध्याय है। यह लोकतंत्र की हत्या थी जब सभी नागरिक स्वतंत्रताएं और राजनीतिक अधिकार ख़त्म कर दिए गए थे। कई लोगों की हत्या भी हुई। प्रेस सेंसरशिप लगा कर मीडिया का गला घोंट दिया गया। लेकिन किसी भी नागरिक को उसके धर्म के आधार पर नहीं मारा गया।या गोश्त खाने के आरोप में पीट-पीट कर नहीं मारा गया जिसे 'लिंचिंग' कहा जाता है। कोई प्रधानमंत्री कुछ संप्रदाय विशेष के लोगों को उनके कपड़ों से नहीं पहचानता था! नफरत और दहशत का कोई ऐसा माहौल नहीं था कि तथाकथित धर्म संसदों द्वारा 'जेनोसाइड' और नरसंहार की अपीलें सार्वजनिक रूप से की जाती हों।
आज आपातकाल का विरोध करने वाले और 'संविधान हत्या दिवस' मनाने वाले राजनीतिक नेताओं को राष्ट्रीय आंदोलन और आजादी की विरासत तथा संविधान आधारित एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, समाजवादी गणराज्य के रूप में भारत के विचार को याद रखना चाहिए, जो हमें उन लोगों से विरासत में मिला है जो हमारी आजादी के लिए लड़े और मरे भी !
क़ुरबान अली
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(क़ुरबान अली एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और उन्होंने अपनी पत्रकारिता के चार दशक से भी ज़्यादा लंबे समय में भारत के स्वतंत्रता संग्राम का खोजपूर्ण नज़रों से अध्ययन किया है और अब वह देश में समाजवादी आंदोलन के इतिहास का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं।)


