इस मृत्यु उपत्यका में असंभव सा है पथ से नदियां खींच निकालना
इस मृत्यु उपत्यका में असंभव सा है पथ से नदियां खींच निकालना
नवउदारवादी भारत में संसदीय राजनीति दो ध्रुवीय है और दोनों ध्रुवों का राजकाज समानधर्मी
पथ की नदियां खींच निकालो, आंधी के झूले पर झूलो
काशी को स्मार्टसिटी बनाने का संकल्प पूरा करते ही बुद्धं शरणं गच्छामि का मंत्रपाठ करने लगे मोदी, बजरंगी उदितराज के धर्मांतरण की तर्ज पर।
पलाश विश्वास
माफ करें जी, हम तो अधपढ़ है। तकनीकी क्रांति काल में देशी कंपनियों के सर्वर कायाकल्प और आउटसोर्सिंग के वैदेशिक कारोबार और रातदिन आउटसोर्सिंग को न हम वैज्ञानिक मानते हैं और न अनुसंधान। विप्रो, इंफोसिस, टीएलसी हमारे लिए शेयर ब्रोकर से बेहतर हैं नहीं।
जापानी पूंजी का असर भारत में अबतक इलेक्ट्रानिक उपभोक्ता बाजार और आटोसेक्टर में सीमाबद्ध है जबकि अमेरिका सहित समूचे पश्चिम में बाजार चीनी और जापानी कंपनियों के हाथों बेदखल है। अंकल सैम भी जापानी एंबुश से रात को चेन से सो नहीं पाते। चीनी सामान की साख देखनी हो तो कोलकाता के खिदिरपुर में फैंसी मार्केट तशरीफ लायें या फिर जहां भी हो, जैसे भी हो, अपनी चीनी उपभोग की अभिज्ञता से इसे समझ लें।
जापानी पूंजी का असल नजारा देखना है तो अखंड भारत के टूटे् देश बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था की समझ जरूरी है जो पूरी तरह जापानी शिकंजे में है। वहां वस्त्र उद्योग के परिसर में भारत में आने वाले वक्त की आहट सुनी जा सकती है।
अब उनका हम क्या करें जो केसरिया कारपोरेट समय का मुकाबला किसी जनप्रतिरोध या जनांदोलन के बजाय शार्ट कट में यूपीए के महिमामंडन बजरिये करने का शार्टकट अपना रहे हैं। उनके लिए सबसे बड़ी केसरिया त्रासदी तो यह है कि तमाम सरकारी कमेटियों, दलों, संस्थानों और अकादमियों का रंग बदल जाना है और आम जनता की नरकंत्रणा की जो अनंत प्रवाह है, उससे उनका कुछ लेना देना है, ऐसा मुझे लगता है नहीं।
माफ कीजियेगा, ऐसे तमाम धर्मनिरपेक्ष विद्वतजनों का जनसरोकार बस यही तक सीमाबद्ध लग रहा है मुझे। संबद्ध लोग केसरिया फौज की तरह हमें अमित्र घोषित करने को स्वतंत्र हैं। लेकिन आज का यह सबसे भयानक सामाजिक वास्तव है।
मुद्दे की बात तो यह है कि नवउदारवादी भारत में संसदीय राजनीति दो ध्रुवीय है और दोनों ध्रुवों का राजकाज समानधर्मी है। कांग्रेसवाद और गैरकांग्रेसवाद का किस्सा कोई अलग अलग नहीं है। कानून का राज कभी नहीं रहा है किसी भी जमाने में। न संविधान अस्पृश्य भूगोल में कहीं लागू हुआ है अब तक और न जल जंगल जमीन के ठिकानों पर कहीं कोई लोकतंत्र का मुलम्मा भी है।
आज हम जिसे सलवा जुड़ुम कहते हैं, वह नेहरु इंदिरा समय की गौरवमयी विरासत है और जनगण के विरुद्ध युद्ध तो एकाधिकारवादी मनुस्मृति अर्थव्यवस्था के नस्ली राज्यतंत्र का अहम कार्यभार है।
जन मन धन कांग्रेसी योजना है, ऐसा कहकर हम तो उलटे मोदी के गण गायब को वैधता देने लगे हुए हैं।
आर्थिक सुधारों की निरंतरा ही राजकाज का प्रयोजन है। विनियमन, विनियंत्रण और विनिवेश अनिवार्यताएं हैं।
इसी का सारतत्व फिर वही श्रीमद भागवत गीता है यानि कम से कम सरकार और अधिकतम प्रशासन।
अधिकतम प्रसासन फिर वही बिल्डर प्रोमोटर माफिया राज है या शारदा फर्जीवाड़ा या फिर अनंत घोटाला सिलिसिला।
हमारे मित्र तो ऐसा सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि जैसे यूपीए की निरंतरता खत्म होने से सारा सत्यानाश हो रहा है और कांग्रेसी जमाने में सबकुछ हरा हरा रहा हो हरित क्रांति के बरअक्स जैसे आपरेशन ब्लू स्टार या केसरिया गुजरात नरसंहार या बाहबरी विध्वंस या भोपाल गैस त्रासदी।
और विडंबना है कि नवउदारवादी परिदृश्य के ये ज्वलंत संदर्भ हमें नजर आते नहीं हैं।
क्योंकि विचारधारा और पार्टीबद्धता का अवस्थान कुछ भी हो, इस महादेश में सीमाओं के आर पार सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक वर्चस्व का भूगोल एक ही है।
सपाट मैदानी भूगोल जहां कोई पूर्वोत्तर और कश्मीर हैं ही नहीं, सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार अंब्रेला मध्ये, न हिमालय है और न गोंडवाना का मध्यभारत और न ही द्रविड़ देशम। न अ्स्पृश्य है कहीं, न कहीं नस्ली भौगोलिक बेदभाव है और न जाति वर्चस्व का कोई बीजगणित है।
मुक्तबाजार में नकदी प्रवाह ही अंतिम सत्य है और फिर वही संभोग से समाधि है, जहां कोई कबीरदास नहीं है और न हैं मुक्तिबोध।
हिंदुत्व सिर्फ संघपरिवार का एजेंडा नहीं है, बल्कि यह हमारा अतीत वर्तमान और अनागत भविष्य है और विधर्मी होकर भी लोग अंततः हिंदू हैं चाहे बांग्लादेश में हों या पाकिस्तान में। समस्त आम ओ खास की मानसिकता और वजूद हिंदुत्वमय है।
त्योहारी पर्व पर तमाम धर्मनिरपेक्ष लोगों के संदेश और निजी जीवन खंगाल लीजिये, कैसे-कैसे वे धर्मस्थलों और मठों के सामने नतमस्तक है।
यही वह सर्वव्यापी राज्यतंत्र है, जिसे बदले बिना कुछ भी बदलाव नहीं होने वाला है। इस बदलाव के लिए फिर मुक्तिबोध को बार-बार पढ़ना जरूरी है।
अभी हमने कायदे से तय ही नहीं किया है कि हम किस ओर हैं।
अभी हम अंधेरे में ही भटक रहे हैं और राजमहल के पिछवाड़े पर कतारबद्ध है लंगरखाना खुल जाने के इंतजार में।
दो चार टुकड़ा नसीब हो तो कर्मफल सिद्दांत को धता बता द्विजत्व माध्यमे कुंडली बदल डालने का योगाभ्यास करते हुए।
बार बार हम उसी पुरातन पथ पर लौट फिरकर मटरगश्ती करने को अभ्यस्त है। आह वाह, क्या हिमपात है।
पथ से नदियां खींच निकालना इस मृत्यु उपत्यका में असंभव सा है और हममें किसी का कलेजा इतना मजबूत भी नहीं है कि आंधियों का झूला झूलने का जोखिम उठाये।
केसरिया कारपोरेट समय में हम सारे लोग फिर वहीं शुतुरमुर्ग हैं जो नमोकाल में मनमोहन मनमोहन जाप रहे हैं और कांग्रेस को वापस लाकर ही परिवर्तन कर देंगे। वैसा ही परिवर्तन जो दीदी ने पीपीपी बंगाल में कर दिखाया है और जहां इस वक्त पद्मप्रलय सबसे तूफानी है।
हम तो नये कोलकाता और शांति निकेतन को स्मार्ट सिटी बनाने पर ऐतराज जता रहे थे अब तक। बनारस में महीनेभर बिताया है भगवती चरण वर्मा की कथा वसीयत के फिल्मांकन के लिए, जिसकी पटकथा और संवाद हमने लिखे थे।
गंगाघाट पर कुछ ही वक्त हमने बिताया कवि ज्ञानेंद्र पति के साथ। एक दफा गंगा आरती भी देख ली विदेशी पर्यटकों की भीड़ में धंसते हुए। काशीनाथ सिंह के साथ भी कुछ वक्त भी बिताया है।
बाकी बनारस को हम साहित्य और इतिहास के माध्यम से महसूसते हैं।
बाबा विश्वनाथ के मंदिर या दशाश्वमेध का महत्व नास्तिक नजरिये से कुछ भी नहीं है। इतनी भी पूंजी नहीं है कि दालमंडी पर बाग बाग हो जाये। औघड़ों का भक्त भी जाहिर है नहीं हूं। न काॆसीवास की कोई भविष्यनिधि योजना है।
हमारे नजरिये से इस पूरे महादेश में और शायद दुनियाभर में जनविमर्श का एपिलसेंटर है वाराणसी जो शास्त्रार्थ भूमि है। विचार और व्याख्याओं का अनंत प्रवाह है।
जापानी पूंजी और जापानी तकनीक से एक झटके से हजारों साल के वैदिकी गेटअप उतारकर झां चकाचक स्मार्ट सिटी बन जाने से केसरिया बनारस में क्या हलचल है, हम नहीं जानते। लेकिन यह निश्चय ही शास्त्रार्थ, विचार, व्याख्याओं, जनविमर्श और गंगाजमुनी सांस्कृतिक इतिहास का अंत है।
अब उम्र भी नहीं है और न मौका है कि कोई जापान से सावधान लिखना शुरु कर दूँ। जब अमेरिका के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी, तब आईटी विशेषज्ञों की यह जमात कहीं नहीं थी और न मीडिया की नीतियां कारपोरेट थीं।
तब लघु पत्रिका नामक एक जनांदोलन जरूर था, जो अब दिवंगत है। सोशल मीडिया का करपोरेटीकरण और केसरियाकरण इतना तेज है कि अब मालूम नहीं कब किस समय हमारा अवसान नियतिबद्ध है।
इस जनम में विदेश यात्रा नहीं हो सकी है। तराई से जुड़ी नेपाल की भूमि है,पैदल पैदल उसे स्पर्श करना जरूर हुआ है। बांग्लादेश सीमा और पाकिस्तान सीमा को भी स्पर्स किया हुआ है। विदेश यात्रा के लिए अब कम से कम किसी कमेटी वमेटी या फिर संसद या विधानसभा की सदस्यता लेनी होगी।
रामजी तो उन्हीं की दुर्गति में ज्यादा मजा लेते हैं जो सिलते हुए जीवन बीता देते हैं। हमारा पासपोर्ट वगैरह भी नहीं है।
विदेशी साहित्य के जरिये परदेश में जनपदों के हालात और विदेशी स्वदेशी फिल्मों से विदेश की चकाचौंध के बारे में कुछ धारणा जरूर है।
अब पिछले तेईस साल से औद्योगीकरण और विकास के बहाने जो भारत को विदेश बनाने का अभियान है, उसमें अपन के विदेशी बन जाने की आशंका है। शायद इसी तरह विदेश यात्रा का मंसूबा पूरा हो जाये।
माननीय शेखर गुप्ता महाशय और उन जैसे तमाम मीडिया महारथी खुद को उतना ही वैज्ञानिक दृष्टि के धनी मानते हैं, जैसे हर केसरिया स्वयंसेवक अपने को इतिहास बोध का शंकराचार्य मानते होंगे। उनके नजरिये से देश को विदेश बनाने के इस रेसिपी का जो भी विरोध करें वे या तो मूरख हैं हद दर्जे के या फिर राष्ट्रद्रोही।
फिलहाल गनीमत है कि हमारी औकात ब्लाग लेखन से बढ़कर कुछ नहीं है, इसलिए हमारे वर्गीकरण की तकलीफ वे उठाते नहीं हैं।
अब इसका क्या करें कि हमें न जीएम फसल सुहाती है और न अबाध विदेशी पूंजी। अर्थव्यवस्था विदेशी निवेशकों की अटल आस्था पर निर्भर हो, ऐसा एफडीआई राज भी हमें राष्ट्र की संप्रभुता और स्वतंत्रता के लिहाज से सिरे से गलत लगती है।
फिर जो पोंजी अर्थतंत्र है सेबी, रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के मातहत,उसके कामकाजी फर्जीवाड़े और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम राष्ट्र का सैन्यीकरण और जन गण के खिलाफ अविराम युद्ध भी हमारे नजरिये से अश्वमेध यज्ञ है।
जाहिर है कि नाना रंगीन पुरोहितों की विचारधारा समावेशी विकासयात्रा की वृद्धदर और रेटिंग की जो हरिकथा अनंत का अविराम पाठ है, उसमें हमारी आस्था नहीं है।
विकास कामसूत्र के अखंड पाठ और गायपट्टी के शाही कायकल्प का नजारा है यह।जो बौद्धमय बंगाल की विरासत के अतःस्थल तक में संक्रमित है।
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