उत्तराखंड - उच्च न्यायालय ने वनगुजर समुदाय को ही वनों का दुश्मन ठहरा दिया
उत्तराखंड - उच्च न्यायालय ने वनगुजर समुदाय को ही वनों का दुश्मन ठहरा दिया
उत्तराखंड - उच्च न्यायालय ने वनगुजर समुदाय को ही वनों का दुश्मन ठहरा दिया
उत्तराखंड में उच्च न्यायालय द्वारा वनगुजरों एवं अन्य वनाश्रित समुदाय को कार्बेट व राजाजी नेशनल पार्क से बेदखली के सम्बन्ध में जनसंगठनों व समुदाय की बैठक 4 जनवरी 2017, देहरादून प्रेस क्लब, इंदिरा मार्किट के पास,
देहरादून, उत्तराखंड. दिनांक 19/12/2016 को नैनीताल उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति राजीव शर्मा व आलोक सिंह की खंडपीठ द्वारा कार्बेट व राजाजी नेशनल पार्क से वनगुजरों को वनों से बेदखल करने के आदेश से तमाम वनगुजर एवं वनों में रहने वाले वनाश्रित समुदाय में घोर आक्रोश व्याप्त है।
मुन्नीलाल, तरूण जोशी, मो0 ईशाद मुस्तफा, चोपड़ा, गुमान सिंह, अशोक चौधरी, रोमा, विपिन गैरोला व अविजीत वासी ने एक संयुक्त विज्ञप्ति में कहा -
उच्च न्यायालय में वनों में आग को लेकर दायर की गई एक याचिका के तहत तमाम वनगुजर समुदाय को ही वनों का दुश्मन ठहराते हुए उच्च न्यायालय ने जिस तरह से वनगुजरों को अतिक्रमणकारी घोषित किया है व न्यायिक प्रक्रिया पर एक सवालिया निशान लगाती है।
गौर तलब है कि यह आदेश एक ऐसे वक्त पर दिया जा रहा है जबकि देश में वनाश्रित समुदाय के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करने के लिए सन् 2006 में संसद द्वारा ऐतिहासिक विशिष्ट ‘‘ अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वनाधिकारों को मान्यता’’ कानून यानि वनाधिकार कानून पारित किया गया है।
इस कानून की अनदेखी कर उच्च न्यायालय का यह आदेश जिसमें केन्द्र सरकार से एक नई वननीति को लागू कर वनों में रहने वाले परम्परागत समुदायों को बेदखल करने के सुझाव दिए गए हैं, यह सवाल पैदा करती है कि आखिर उच्च न्यायालय द्वारा संसद के ही अन्य विशिष्ट कानून की पूरी तरह से नज़रअंदाज क्यों किया गया? जबकि इसी न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 226 के तहत याचिका संख्या 1720/2008 में वनगुजर कल्याण समिति की एक दायर याचिका पर मा0 उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को राजाजी नेशनल पार्क में वनगुजरों को ‘‘ वनाधिकार कानून 2006’’ के तहत उनके अधिकारों को मान्यता देते हुए उन्हें बसाने की बात कही गई है। लेकिन दिनांक 19/12/2016 के इस आदेश में न ही वनाधिकार कानून का कहीं जिक्र है और न ही उच्च न्यायालय के 2008 के आदेश का जिक्र।
इस आदेश के तहत एक बार फिर से वनों को वनविभाग व कम्पनीयों को सौंपने की बात को मजबूत करने की कोशिश की गई है जबकि 2006 में संसद द्वारा वनाश्रित समुदाय के साथ ऐतिहासिक अन्याय की बात को स्वीकारा गया है जो कि उपनिवेशिक वनविभाग द्वारा ही किए गए है।
वैसे भी उत्तराखंड एक ऐसा प्रदेश है जहां पर वनाधिकार कानून को लागू होने के दस वर्ष बाद भी अभी तक कानून को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया है।
प्रदेश के कुल भूभाग के 65% वनों से आच्छादित होने के बावजूद यह प्रदेश पूरे देश में वनाधिकार कानून को लागू करने में सबसे पीछे है जहां केवल एक ही दावा ही निस्तारित किया गया है।
राजाजी पार्क के ही लगभग 486 दावे अभी तक उपखंड समिति में लम्बित पड़े हैं व इनकी क्या स्थिति इस के बारे में अभी तक वनगुजरों को किसी भी प्रकार की जानकारी नहीं दी गई है। इस कानून को लागू करने की ग्राम सभा की इकाई ग्राम स्तरीय वनाधिकार समिति जो कि एक संवैधानिक इकाई है, को किसी प्रकार की मान्यता ही नहीं दी गई है।
इस कानून को लागू कराने के लिए वनगुजरों तमाम प्रयास किए गए व किए जा रहे हैं, चाहे वो राजनैतिक रूप से सरकारों पर दबाव डालना हो या फिर न्यायालय में दौड़ लगा कर अपने पक्ष में आदेश लेना। लेकिन उत्तराखंड में न ही पूर्व में भाजपा सरकार और न ही मौजूदा कांग्रेस सरकार इस कानून को लागू कराने में राजनैतिक इच्छा दिखा रही है। वहीं केन्द्र की भाजपा सरकार द्वारा भी इस कानून की पूरी तरह से उपेक्षा की जा रही है।
कानून की सरकार की इस उपेक्षा की भारी कीमत वनगुजरों को उठानी पड़ रही है, आए दिन उनपर वनविभाग व पुलिस द्वारा उत्पीड़न किया जाता है।
राजाजी के अंधेरी व बींज के जहुर हसन और नूरआलम के डेरों को बेरहमी से 2008 में उजाड़ना व लूटपाट करना, आसारोड़ी के ही सैंकड़ों डेरों को 2008 ही में सर्दी के मौसम में बेदखल करना और वहीं कार्बेट नेशनल पार्क के मो0 शफी के डेरे को कई बार उजाड़ना शामिल है।
अभी नवम्बर माह में ही मो0 शफी के डेरे पर वनविभाग एवं पुलिस द्वारा डेरे पर उपस्थित महिलाओं पर हमला किया गया व उनका डेरा बिना किसी नोटिस के उजाड़ा गया। प्रदेश में काग्रेस की सरकार होने के बावजूद भी वनाधिकार कानून और वनगुजरों एवं सैंकड़ों वनटांगीया, गोठ व खत्ते गांव जो वनग्राम की श्रेणी में आते हैं वह इस कानून के लाभ से वंचित हैं।
गौर तलब है कि कांगेस सरकार द्वारा ही सन् 2006 में इस कानून को वनाश्रित समुदाय को उनके वनाधिकारों और भौमिक अधिकारों को मान्यता देने के लिए यह कानून पारित किया गया था। लेकिन इसी राजनैतिक दल की सरकारें राज्यों में इस कानून के प्रति सौतेला व्यवहार कर रही है। जैसे कि फिलहाल हिमाचल प्रदेश में भी सरकार द्वारा वनाधिकार कानून को निरस्त करने की एक याचिका दायर की गई। जब वहां के जनसंगठनों द्वारा जनांदोलन किया गया व कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व राहुल गांधी तक यह बात पहुंचायी तब हिमाचल प्रदेश की सरकार को पीछे हटना पड़ा। लेकिन उक्त याचिका अभी भी न्यायालय में वापिस नहीं ली गई है। इस संदर्भ में वहां पर भी जनाआंदोलन ज़ारी है।
उत्तराखंड में उच्च न्यायालय का यह रूख वनाश्रित समुदाय के लिए एक विशेष खतरा है जिसका पूर ज़ोर रूप से विरोध करने के लिए वनगुजर, वनग्राम समुदाय एवं अन्य वनाश्रित समुदाय व्यापक रूप से गोलबंद हो रहे हैं।
4 जनवरी 2017 को देहरादून के प्रेस कल्ब में अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन, वनपंचायत संघर्ष मोर्चा, वनगुजर कल्याण समिति, विकल्प सामाजिक संगठन व हिमालयन नीति अभियान के संयुक्त नेतृत्व में इस उच्च न्यायालय आदेश के विरोध में आगामी रणनीति को तय करने के लिए विशाल सभा बुलाई गई है।
इस बैठक में संयुक्त रूप से राजनैतिक एवं कानूनी संघर्ष की रणनीति बनाई जाएगी। जो कि निम्नलिखित मुददों पर आधारित होगी - उच्च न्यायालय के 2016 के आदेश पर सरकार द्वारा उच्च न्यायालय में रिव्यू याचिका दायर की जाए व इस आदेश की वापसी सुनिश्चित कराई जाए। सरकार को वनाधिकार कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए जनसंगठनों एवं जनांदोलनों द्वारा बाध्य किया जाएगा ताकि वनाश्रित समुदाय के मानवाधिकार सुरक्षित रहें व वे सम्मानजनक नागरिक की तरह अपना जीवन व्यतीत करें।
सरकार जनसंगठनों की बैठक करें व इस कानून को लागू करने के लिए कारगर कदम उठाए। 2017 के विधान सभा चुनाव में सभी राजनैतिक दलों द्वारा वनाधिकार के मुददे को प्रमुख मुददा बनाया जाए चूंकि उत्तराखंड की सामाजिक व आर्थिक जीवन शैली वनों पर आधारित है।
जनसंगठनों द्वारा वनाधिकार के मुददे को चुनावी अभियान का मुददा बनाया जाएगा। इस संदर्भ में जनांदोलन की शुरूआत हो चुकी है।


