प्रकाश कारात

उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन थोपा जाना और हरीश रावत की सरकार का बर्खास्त किया जाना, जनतंत्र पर, संवैधानिक कायदे-कानून पर और राज्यों के अधिकारों पर मोदी सरकार का नंगा हमला है। इससे कुछ ही हफ्ते पहले, अरुणाचल प्रदेश पर राष्ट्रपति शासन थोपा गया था ताकि वहां कांग्रेस के बदबदलुओं और भाजपा की सरकार को बैठाया जा सके। इस तरह, मोदी सरकार ने दिखा दिया है कि वह, हरमुमकिन मौके का इस्तेमाल कर, गैर-भाजपायी राज्य सरकारों को गिराने के लिए संविधान की बदनाम धारा, 356 का इस्तेमाल करने जा रही है।

संविधान की धारा-356 केंद्र सरकार के हाथों में ऐसा हथियार है, जिसका इस्तेमाल कर वह मनमाने तरीके से निर्वाचित राज्य सरकारों को भंग कर सकती है और इस तरह, नंगई से केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के राजनीतिक स्वार्थों को आगे बढ़ा सकती है। इस धारा के दुरुपयोग की सबसे कुख्यात मिसाल तो 1959 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्ववाली कांग्रेसी सरकार द्वारा केरल में ई एम एस नंबूदिरीपाद की सरकार की बर्खास्तगी ही थी। उसके बाद से केंद्र की कांग्रेसी सरकारों ने बार-बार, धारा-356 का एक राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया था।

इस सरासर अलोकतांत्रिक व तानाशाहीपूर्ण प्रावधान-धारा-356-का इस्तेमाल करने के लिए, केंद्र को सिर्फ राज्यपाल की इस आशय की रिपोर्ट की जरूरत होती है कि राज्य में संवैधानिक मशीनरी बैठ गयी है। केंद्र सरकार, खुद अपने बैठाए हुए वफादार राज्यपालों का इस्तेमाल कर जब भी जरूरी हो ऐसी रिपोर्ट हासिल कर लेती है और उसके आधार पर धारा-356 के तहत कार्रवाई कर देती है।
धारा-356 को रद्द किया जाए
इसीलिए, सी पी आइ (एम) केंद्र सरकार द्वारा धारा-356 के प्रयोग का हमेशा से विरोध करती आयी है। वह इसकी वकालत करती आयी है कि धारा-356 को रद्द किया जाए और इसकी जगह पर ऐसा उपयुक्त प्रावधान रखा जाए, जिसके तहत केंद्र को मनमाने तरीके से कार्रवाई का मौका न मिले।

अनेक वर्षों के अनुभव के आधार पर अब तक एक ही ऐसा मौका आया है जब हमारी पार्टी ने राष्ट्रपति शासन लगाए जाने का और निर्वाचित राज्य सरकारों को बर्खास्त किए जाने का समर्थन किया था। यह हुआ था 1992 में, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के फौरन बाद। उत्तर प्रदेश में काली करतूत को अंजाम देे के बाद, कल्याणसिंह की सरकार ने इस्तीफा दे दिया था। इसके चलते वहां राष्ट्रपति शासन लगाया गया। इसके साथ ही केंद्र सरकार ने मध्य प्रदेश तथा राजस्थान में भी राष्ट्रपति शासन लगा दिया, जहां भाजपायी राज्य सरकारों ने अयोध्या में कारसेवक भेजने में सक्रिय रूप से मदद की थी। बाबरी मस्जिद का ध्वंस, भारतीय संविधान के बुनियादी संवैधानिक आधार के ही खिलाफ जाता था और सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का भी उल्लंघन था कि विवादित स्थल पर यथास्थिति को बदलने की कोई कोशिश नहीं की जानी चाहिए। बाबरी मस्जिद के ध्वंस से सांप्रदायिक हिंसा की आंधी उठी थी और इसने देश में सांप्रदायिक सद्भाव को तथा देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया था। ठीक इसी संदर्भ में सी पी आइ (एम) ने उक्त राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने का समर्थन किया था।

आगे चलकर, सी पी आइ (एम) तथा अन्य वामपंथी व धर्मनिरपेक्ष विपक्षी पार्टियों ने अंतर्राज्यीय परिषद में यह दलील पेश की थी कि धारा-356 को इस प्रकार संशोधित/ परिवर्तित किया जाना चाहिए ताकि इसका इस्तेमाल राष्ट्रीय एकता के लिए या शासन के धर्मनिरपेक्ष होने के सिद्धांत के लिए खतरा पैदा होने की सूरत में ही किया जा सके।

कांग्रेस पार्टी को, जो अरुणाचल प्रदेश में और अब उत्तराखंड में धारा-356 के दुरुपयोग की शिकार हुई है, कम से कम अब इस बात को समझना चाहिए कि किस तरह अतीत में धारा-356 के उसके दलगत नजरिए से तथा बेशर्मी से दुरुपयोग ने, देश के जनतांत्रिक तथा संघीय ढांचे को कमजोर किया था।

भाजपा की सरकार अब उसी रास्ते पर चल रही है। उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने की घोषणा, मुख्यमंत्री के बहुमत की विधानसभा में परीक्षा होने से, एक ही रोज पहले की गयी। विधानसभा में बहुमत का परीक्षण, मुख्यमंत्री के लिए राज्यपाल के इस निर्देश के आधार पर होना था कि 28 मार्च को वह विधानसभा में अपना बहुमत साबित करें। इसकी नौबत इसलिए आयी थी कि कांग्रेस के 9 विधायक दलबदल कर, भाजपा के पाले में चले गए थे। विधानसभा के स्पीकर ने इन 9 विधायकों को दलबदलविरोधी कानून के तहत विधानसभा की सदस्यता के अयोग्य घोषित कर दिया था। जब यह साफ हो गया कि दलबदल करने वालों के अयोग्य घोषित किए जाने के बाद, मुख्यमंत्री सदन में अपना बहुमत साबित कर देंगे, जल्दबाजी में केंद्रीय मंंत्रिमंडल की बैठक हुई और प्रस्तावित बहुमत परीक्षण से एक ही रोज पहले राष्ट्रपति लागू कर दिया गया।

भाजपा की केंद्र सरकार छांट-छांटकर कांग्रेस की सरकारों को तख्तापलट का निशाना बना रही है। भाजपा के महासचिव, कैलाश विजयवर्गीय ने एलान किया है कि, ‘‘देश भर में कांग्रेस-शासित राज्यों में बगावतें होंगी’’। हिमाचल तथा मणिपुर अब तत्काल निशाने पर हैं।

धारा-356, राज्यों को केंद्र के रहमो-करम पर निर्भर बनाने की तानाशाहीपूर्ण मुहिम का हिस्सा है। सभी विपक्षी पार्टियों को भाजपा सरकार की तानाशाही से पैदा हो रहे खतरे को पहचानना चाहिए और एकजुट होकर इन हमलों का मुकाबला करना चाहिए।

मुख्यमंत्री हरीश रावत की याचिका पर, उत्तराखंड हाईकोर्ट की एक सदस्यीय बैंच ने 31 मार्च को विधासनभा में इसका परीक्षण करने का आदेश दिया है कि बहुमत किस तरफ है।

अदालत ने नौ अयोग्य घोषित सदस्यों को भी इस बहुमत परीक्षा में वोट देने की इजाजत दी है, लेकिन उनके वोट अलग रखे जाएंगे। हाई कोर्ट ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के 1994 के बोम्मई प्रकरण के फैसले के अनुसार, यही कदम उठाना सही होगा। अदालत के इस फैसले स्पष्टï रूप से तय कर दिया गया है कि धारा-356 का प्रयोग किन प्रतिमानों के दायरे में ही हो सकता है। अदालत का फैसला स्पष्टï है-राज्य में सरकार की वैधता का फैसला, सदन में बहुमत की परीक्षा से ही हो सकता है, न कि राज्यपाल के कहने पर या केंद्र की मनमर्जी से।

बहरहाल, केंद्र सरकार के उक्त निर्णय के खिलाफ हाई कोर्ट के ही खंड पीठ में अपील दायर करने के बाद, अदालत ने यह फैसला लिया कि 31 मार्च के लिए प्रस्तावित विधानसभा में बहुमत का परीक्षण टाल दिया जाए और अंतिम निर्णय पर पहुंचने से पहले, अदालत द्वारा मामले की सुनवाई तक प्रतीक्षा की जाए।

हाई कोर्ट की कार्रवाई में कुछ भी नतीजा आए, अच्छा यही रहेगा कि सुप्रीम कोर्ट अविलंब, अरुणाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड, दोनों में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की वैधता पर अपना फैसला सुनाए। किसी भी पैमाने से क्यों न देखा जाए, मोदी सरकार ने बोम्मई निर्णय का उल्लंघन किया है।

बहरहाल, वामपंथी तथा जनतांत्रिक ताकतों को एक दूरगामी रुख अपनाना चाहिए और यह मांग करनी चाहिए कि धारा-356 को ही निरस्त कर दिया जाए और इसकी जगह पर कुछ ऐसे उपयुक्त प्रावधान लाए जाएं, जो राज्यों के अधिकारों की तथा संघीय सिद्घांतों की रक्षा करें। 0