After the formation of Uttarakhand, what did the public get and who are eating nuts in the name of service?

गांव बुकसौरा के हैं लाखन सिंह। समाजोत्थान विद्यालय में पढ़ता था। पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया और इन दिनों मजदूरी कर रहा है।

केले लेकर वह मिलने आया। फिर घर लौटते हुए मुझे बसंतीपुर छोड़ गया।

The Buxa is a primitive tribe.

बुक्सा आदिम जनजाति है। जिनकी जमीन बुकसा के अलावा किसी को बेचने पर रोक है। लेकिन तराई में किसी बुक्सा के पास या तो जमीन बची नहीं है या फिर मामूली सी जमीन है। ज़ाहिर है कि कानून के मुताबिक उनकी जमीन बिकी नहीं है, लेकिन उनकी जमीन ऐसे गायब है, जैसे गधे के सिर से सींग।

गधों और बुक्सों में समानता यही है कि दोनों बेहद निरीह, शांतिप्रिय और मनपसन्द हैं। कितना ही जुल्म हो जाये, वे विरोध नहीं करते।

लाखन सिंह की जमीन भी गायब है और इसीलिए घर का इकलौता बेटा होने के बावजूद वह पढ़ लिख नहीं सका।

वैसे बुक्सा भी अब पढ़ लिख गए हैं।

मैंने बुक्सा लड़के लड़कियों को पशुपालन और नर्सरी पढ़ाया। बिना किसी लिटरेचर के। पन्तनगर विश्वविद्यालय या सरकार प्रशासन से कोई मदद नहीं मिली। कृषि विज्ञान, वनस्पति विज्ञान के साथ बाओ टेक्नॉलॉजी पढक़र उन्हें पढ़ाया। यह प्रधानमंत्री दक्षता योजना के तहत था। कोई पढाने वाला नहीं था, सुबीर गोस्वामी के कहने पर पढ़ाया।

इससे पहले बुकसौरा के ही अधपढ़े लड़के नवम्बर दिसम्बर जनवरी की कड़ाके की सर्दी में कोहरे में रोज़ तड़के आकर हमारा घर बनाया।

पढ़ने वे लड़के भी आये। गूलरभोज, बाजपुर से भी बीएससी, एमएससी, के लड़के लड़कियां आये। किसी को नौकरी न मिली है और न मिलने की संभावना है।

उन्हें अपने राजस्थानी मूल के राजपूत होने की कथा के अलावा बुक्सों और आदिवासियों के बारे में कुछ नहीं मालूम।

उन्हें संविधान की पांचवी और छठी अनुसूची के तहत मिलने वाले अधिकारों के बारे में कुछ नहीं मालूम।

उन्हें यह भी नहीं मालूम कि उनकी जमीन कैसे छिनी।

उन्हें नहीं मालूम कि बिहार और नेपाल तक की बुक्सा आबादी में से दिनेशपुर के दो गांव बुकसौरा और मुड़िया, गूलरभोज, गदरपुर, बाजपुर और काशीपुर में कुछ गांवों तक ही क्यों सिमट गये बुक्सा।

रामबाग, अटरिया और चैती मेलों के वारिसों के रुद्रपुर और किच्छा पंतनगर में कोई गांव बचा नहीं है।

उन्हें आरक्षण के तहत नौकरी मिलनी चाहिए, कॉलेजों और उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला मिलना चाहिए। ऐसा बे नहीं जानते।

बुक्सों के नाम राज्य और केंद्र सरकारों का कितना पैसा आता हैं, आदिम जनजाति के नाम विदेश से कितना आता है, उन्हें नहीं मालूम, क्योंकि उन तक कुछ नहीं पहुंचता।

पाँचवी और छठी अनुसूचियों के बावजूद देश भर में आदिवासियों से जल जंगल जमीन छीनी जा रही है और नौकरी और दाखिले के संरक्षित पदों पर कहीं उनकी भर्ती नहीं होती।

माला कालोनी के आठ गांवों की तरह बंगाली दलित शरणार्थियों को देशभर में आदिवासियों के साथ घने जंगल में बसाया गया है। तराई में भी घने जंगल थे।

जंगलों में सर्वत्र ये शरणार्थी और आदिवासी बाघ का निवाला बनने को छोड़ दिये गए हैं।

थारू बक्सों के अलावा, उत्तराखण्ड के आदिवासी के अलावा बाकी देश के आदिवासी अपने हक़ हक़ूक़ के लिए लड़ते हैं। हिमाचल के आदिवासी तो राज्य में सबसे ज्यादा शिक्षित और बड़े पदों पर हैं। मीणा आदिवासियों को छोड़कर संथाल, मुंडा, हो, भील, गोंड जैसे बड़े आदिवासी समूहों को आरक्षण का कोई लाभ नहीं मिला है।

पढ़ने आने वाले लड़के लड़कियों को मामूली सी रकम छात्रवृत्ति की चाहिए थी और कुछ नहीं।

जमीन और रोज़गार, नॉकरी से वंचित भूखी जनता को भी जनधन खाते में 500 रुपये और राशन के अनाज का भरोसा हो गया है।

जनता अब भिखारी बना दी गयी है।

कमसेकम आदिवासी भिखारी नहीं बने हैं। हजारों सालों से वे हमलावरों से लड़ रहे हैं। सरेंडर नहीं किया कभी। पलाशी के युद्ध में सिराजुद्दोला की हार के अगले दिन से ही अंग्रेजों के खिलाफ वे लड़ते रहे हैं।

बे नहीं भी लड़ते तो मेहनत मजदूरी करते हैं।

दलित बंगाली शरणार्थियों की तरह वे अभी सत्ता के पिछलग्गू नहीं बने हैं।

चुनावों में आकाओं के लिये बंगला भाषा, संस्कृति, शिक्षा, इतिहास, भूगोल से दुश्मनी रखने वाले बंगाली दलाल नेता हर गलत काम को सही ठहराने के लिए बंगाली एकता का नारा तो लगाते हैं और दूसरे समुदायों के साथ भाई चारा का माहौल बिगाड़ने में पीछे नहीं हटते। लेकिन अपने लोगों के हक की लड़ाई में वे हमेशा सत्ता के साथ होते हैं।

माला इलाके में बाघ का निवाला बने अबतक 26 लोग।

लॉकडाउन में 5 लोग बाघ का चारा बन गए, जिनमें स्कूल जा रहे दो बच्चे भी हैं।

उल्टे वनविभाग और पुलिस वालों ने महिलाओं बच्चों बुजुर्गों को मारकर जख्मी करके फर्जी केस बनाकर निरीह लोगों को जेल में ठूंस दिया।

बंगाली जनता के ठेकेदारों को एक शब्द प्रतिक्रिया में कहने की औकात नहीं है। जुआ, सट्टेबाजी, सूदखोरी, महाजनी, शराबखोरी, नशा और महिलाओं पर अत्याचारो के मामले को रफ़ा दफा कर अपराधियों को बचाने में यही लोग राजनीति भूलकर बंगाली एकता के नाम पर एकजुट हो जाते हैं, लेकिन पीड़ितों के पक्ष में खड़े होने का जिगर किसी में नहीं हैं।

ये लोग कहीं से भी बंगाली हैं?

आदिवासियों के साथ रहकर भी आदिवासियों से हमने कुछ नहीं सीखा।

तराई के बुक्सों की तरह देशभर में बंगाली शरणार्थी गांव बेदखल हो रहे हैं और बुक्सों की तरह बंगाली शरणार्थियों की कोई जमीन बचेगी नहीं।

सिर्फ बचे रहेंगे सूदखोर, महाजन, दलाल और ऐसे ही लोग।

आपका भी समर्थन उन्हीं को है तो शर्म कीजिये।

हमें आदिवासियों से बहुत कुछ सीखना है।

खासकर उत्तराखण्ड के लोगों को ।

सोचें कि उत्तराखण्ड बनने के बाद जनता को क्या मिला और सेवा के नाम मेवा कौन खा रहे हैं।

माफ कीजिये, मुझे उत्तराखण्ड में अब भी थारू बुक्सों से उम्मीद है लेकिन अंधे बहरे आदिवासियों से नहीं।

पलाश विश्वास