राष्ट्रवादी स्वयंसेवक अपने संघ मुख्यालय पर राष्ट्रीय ध्वज स्वयं क्यों नहीं फहराते?
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कुछ दिनों पहले एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को यह निर्देश दिया कि राज्य के सभी मदरसों में गणतंत्र दिवस व स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय ध्वज अर्थात तिरंगा झंडा फहराना सुनिश्चित किया जाए।
जाहिर है उच्च न्यायालय द्वारा राज्य सरकार को यह निर्देश इसी मकसद के तहत दिए गए हैं, क्योंकि राज्य के जो मदरसे राज्य मदरसा बोर्ड के अंतर्गत आते हैं, वे राज्य सरकार द्वारा उसी प्रकार आर्थिक सहायता प्राप्त हैं, जैसे कि राज्य के अन्य सरकारी सहायता प्राफ्त विद्यालय अथवा महाविद्यालय। लिहाजा अन्य विद्यालयों की ही तरह यहां भी तिरंगा ध्वजारोहण अनिवार्य होना चाहिए। हालांकि देश के अधिकांश मदरसों में गणतंत्र दिवस व स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय ध्वज नियमित रूप से फहराए जाते हैं तथा मदरसों में उपस्थित शिक्षकों व छात्रों द्वारा उन्हें सलामी भी दी जाती है। फिर भी अदालत का यह निर्देश सराहनीय है। केवल उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही नहीं बल्कि देश के सबसे बड़े इस्लामी शिक्षण संस्थान दारूल-उलूम देवबंद द्वारा व अन्य कई इस्लामी संगठनों व विभिन्न उलेमाओं द्वारा भी कई बार इस प्रकार के निर्देश जारी किए जा चुके हैं कि देश के सभी मदरसों तथा सभी मुस्लिम संस्थाओं में पूरे जोश व उत्साह के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाया जाए और राष्ट्रीय ध्वज भी फहराया जाए।
इतना ही नहीं बल्कि दारूल-उलूम द्वारा देश के समस्त मुस्लिम परिवारों को भी अपने घरों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने की हिदायत दी जा चुकी है।
दारूल-उलूम कह चुका है कि भारत वर्ष हमारा देश, हमारी जमीन और हमारी जगह है। वह देश की अखंडता को लेकर व्याफ्त हर प्रकार की गलतफहमियों को दूर करना चाहता है। प्रत्येक मुसलमान को स्वतंत्रता दिवस मनाना चाहिए और अपने घरों व संस्थाओं पर राष्ट्रीय ध्वज फहराना उसी जश्न का हिस्सा है।
दारूल-उलूम द्वारा इस आरोप का खंडन भी किया गया कि भारतीय मदरसे स्वतंत्रता दिवस का जश्न नहीं मनाते। केवल मदरसों में ही नहीं बल्कि भारतीय हज यात्री हज के दौरान सऊदी अरब में भी अपने हाथों में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज लेकर चलने में भी गर्व महसूस करते हैं।
परंतु उच्च न्यायालय तथा दारूल-उलूम देवबंद द्वारा जारी किए गए इन निर्देशों के मध्य यह सवाल जरूर पैदा होता है कि भारतीय मुसलमानों के राष्ट्रवादी होने पर संदेह क्यों किया जा रहा है? किन लोगों द्वारा किया जा रहा है? और इस प्रकार का संदेह व्यक्त करने का निहितार्थ आखिर क्या है? एक सवाल यह भी है कि जो ताकतें भारतीय मुसलमानों की राष्ट्रवादिता पर संदेह जाहिर करती रहती हैं वास्तव में वह शक्तियां स्वयं कितनी राष्ट्रवादी हैं? और उन शक्तियों की राष्ट्रीय ध्वज तथा भारतीय संविधान के प्रति अपनी कितनी आस्था है?
और एक सवाल यह भी कि क्या देश की जो शक्तियां स्वयं तिरंगे के प्रति आस्था व सम्मान नहीं रखतीं और अपनी धर्म ध्वजा को राष्ट्रीय ध्वजा से भी ऊपर मानती हैं क्या उन्हें इस बात का हक है कि वे भारतीय मुसलमानों की राष्ट्रवादिता व उनकी राष्ट्रभक्ति पर संदेह करें?
देश की स्वतंत्रता का इतिहास 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से शुरू होता है। उस समय न तो कोई तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी संगठन वजूद में था और न ही आज देश में सक्रिय दक्षिणपंथी सांप्रदायिक विचारधारा का कोई नामलेवा था। केवल देश के राष्ट्रवादी हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर 1857 के संग्राम में हिस्सा लिया था और देश को स्वतंत्र कराए जाने की मुहिम छेड़ी थी। उस समय से लेकर 1947 तक अर्थात् 90 वर्ष के लंबे संघर्ष काल में भारतीय मुसलमानों ने अपने हिंदू देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी भाइयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जंग-ए-आजादी में हिस्सा लिया और आखिरकार देश को आजादी दिलाई। स्वतंत्रता के बाद भी 1965 की भारत-पाक की जंग रही हो या 1971 की भारत-पाक-बंगलादेश की जंग या फिर कारगिल घसपैठ की घटना रही हो। प्रत्येक मोर्चे पर भारतीय मुसलमानों ने भी अपनी राष्ट्रवादिता तथा सच्चे मुसलमान होने का परिचय देते हुए देश के लिए अपनी जानें न्यौछावर कीं।
परंतु बड़े दुख की बात है कि भारतीय संविधान में हम भारतवासियों को मिले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए देश में सक्रिय तथा इन दिनों देश की सत्ता का संचालन कर रही दक्षिणपंथी शक्तियां भारतीय मुसलमानों को न केवल संदिग्ध बनाने का घिनौना प्रयास कर रही हैं बल्कि उनके बारे में तरह-तरह की अशोभनीय टिफ्पणियां भी की जा रही हैं।
हद तो यह है कि एक फायर ब्रांड भाजपा सांसद द्वारा अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्रों का संबंध आईएसआईएस जैसे खूंखार संगठन के साथ होने का आरोप तक लगा दिया गया है।
यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि इसी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर चुके अनेकानेक मुस्लिम तथा हिंदू व अन्य धर्मों से संबंध रखने वाले अनेक छात्र विभिन्न जिम्मेदार पदों पर विराजमान होकर देश की सेवा कर चुके हैं और आज भी कर रहे हैं।
क्या हिंदू तो क्या मुसलमान किसी भी धर्म का कोई भी छात्र जो अलीगढ़ विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण कर निकलता है वह स्वयं को गर्व से 'अलीगेरियन' कहता है। परंतु अफसोस की बात है कि एक धर्मांध व अशिक्षित हिंदुत्ववादी सांसद द्वारा इतना घिनौना आरोप लगाया गया और देश की सरकार उसके इस संगीन आरोप पर आंखें मूंदकर तमाशा देखती रही? इसी प्रकार सत्तारूढ़ भाजपा के एक अन्य नेता व देश के संस्कृति मंत्री महेश शर्मा द्वारा पिछले दिनों बेहद आपत्तिजनक बातें कही गईं। उन्होंने कहा कि 'राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम मुसलमान होते हुए भी राष्ट्रवादी थे।' गोया मुसलमानों से राष्ट्रभक्ति की उम्मीद नहीं की जा सकती? टीपू सुल्तान से लेकर अशफाक उल्ला व अब्दुल हमीद जैसे मुसलमानों की कुर्बानियों के समक्ष मंत्री महोदय का देश के प्रति आखिर क्या योगदान है? उन्होंने महिलाओं के बारे में भी कई आपत्तिजनक बातें कीं जो देश के किसी जिम्मेदार व्यक्ति खासतौर पर केंद्रीय मंत्री के मुंह से तो कतई शोभा नहीं देती।
ऐसे में यह पूछा जाना लाजिमी है कि राष्ट्रीय स्वयं संघ की विचारधारा में पोषित होने वाले यह नेतागण आखिर अपने संघ मुख्यालय पर राष्ट्रीय ध्वज स्वयं क्यों नहीं फहराते? अपने समागमों में यह अपनी भगवा धर्मध्वजा फहराने के बजाय भारतीय राष्ट्रीय तिरंग फहराकर स्वयं राष्ट्रवादी होने का परिचय क्यों नहीं देते? 6 दिसंबर 1992 की घटना तथा उस समय के उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की भूमिका तथा उस घटना से जुड़े उनके वक्तव्य इस बात के भी साक्षी हैं कि संघ के नेताओं का भारतीय संविधान पर कितना विश्वास है और वे इसका कितना आदर व सम्मान करते हैं। मौजूदा सरकार द्वारा उन्हीं कल्याण सिंह को राजस्थान का राज्यपाल बनाकर उन्हें पुरस्कृत किया गया है और राज्यपाल बनने के बाद पिछले दिनों उन्होंने देश में लगभग 70 वर्षों से पढ़े जा रहे राष्ट्रीय गान की रचना पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया। इससे साफ जाहिर है कि संघ की विचारधार रखने वाले लोगों की न तो राष्ट्रीय ध्वज के प्रति कोई आस्था है न ही उन्हें धर्मनिरपेक्षता से परिपूर्ण भारतीय संविधान पसंद है बजाय इसके वे देश में सांप्रदायिकता का जहर घोलकर देश को हिंदू राष्ट्र बनाए जाने के अपने एक सूत्रीय मिशन की ओर अग्रसर हैं और इसी बहाने बहुसंख्य हिंदू मतों को अपने पक्ष में कर देश की सत्ता पर कब्जा जमाए रखना चाहते हैं।
संघ संबंधी जहरीले विचार केवल संघ पर लगने वाले आरोप अथवा उसके विरोधियों द्वारा लगाए जाने वाले इल्जाम मात्र नहीं हैं। बल्कि संघ के जिम्मेदार नेता समय-समय पर अपने 'मन की बात' करते ही रहते हैं। उदाहरण के तौर पर संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य ने पिछले दिनों इसी परिप्रेक्ष्य में एक विवादित बयान देते हुए कहा कि धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए गैरजरूरी है। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने तिरंगे पर अपनी भड़ास निकालते हुए कहा कि भारत के राष्ट्रीय झंडे में केवल भगवा रंग होना चाहिए क्योंकि शेष सभी रंग सांप्रदायिकता फैलाते हैं। उनके यह विचार संघ द्वारा आयोजित एक सेमिनार में व्यक्त किए गए। संघ देश के हिंदू समाज में केवल गैर हिंदुओं के प्रति नफरत फैलाने मात्र का ही काम नहीं करता बल्कि संघ द्वारा महिलाओं को भी दूसरे दर्जे का समझा जाता है। यही वजह है कि संघ की शाखा में महिलाओं को शामिल नहीं किया जाता। इन परिस्थितियों में यह सोचना जरूरी है कि वास्तव में राष्ट्रवादी है कौन? भारतीय राष्ट्रीय ध्वज व भारतीय संविधान के प्रति अपनी आस्था व निष्ठा रखने वाले लोग या अपनी अलग धर्मध्वजा फहरा कर देश में सांप्रदायिकता का जहर घोलते हुए देश की एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाली शक्तियां?
तनवीर ज़ाफरी