लोकसभा चुनाव 2014 की तैयारियों (Preparations for Lok Sabha Elections 2014) की सबसे तेज़ धमक उत्तर प्रदेश में ही नज़र आ रही है। भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में अब तक कई रैलियाँ कर डाली हैं। दो मार्च को लखनऊ में की उनकी रैली को भाजपा वाले बहुत बड़ी रैली बता रहे हैं। अब तक लखनऊ के रमाबाई आंबेडकर स्टेडियम में बहुजन समाज पार्टी की रैलियाँ होती रही हैं और हस्बे मामूल लाखों लोगों की मौजूदगी का दावा किया जाता रहा है। इस बार भाजपा के सूबे के नेताओं ने 15 लाख लोगों की हाजिरी का दावा करके दावों के अपने सभी पुराने रिकार्ड तोड़ दिए हैं।

The state is in full election mood.

राज्य पूरी तरह से चुनाव के मूड में है। सवर्णों की अधिकता वाले मीडिया ने नरेंद्र मोदी को विजेता घोषित भी कर दिया है लेकिन सच्चाई यह है कि अभी चुनाव होना बाकी है और उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी को उनकी उम्मीद की मुताबिक सीटें मिलने की संभावना पर तरह तरह के सवालिया निशान लगे हुए हैं।

राज्य पूरी तरह से जाति आधारित राजनीति की चपेट में बहुत पहले से है। पहचान की राजनीति (identity politics) करने वालों में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और मुलायम सिंह यादव सबसे महत्वपूर्ण हैं। उन दोनों की अपनी जातियों के वोट बैंक हैं जिनको आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता। उसके अलावा नरेंद्र मोदी को रोकने के लिए मुसलमानों की एकजुटता की संभावना से पैदा होने वाली राजनीतिक सच्चाई है। हालांकि पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह मुसलमानों को साथ लेने की हर कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने तरह-तरह के मुस्लिम नेताओं से मुलाक़ात की है और उर्दू के कुछ पत्रकारों से मुलाक़ात करके अपनी बात को समझाने की कोशिश की है लेकिन साफ़ लगता है कि मुसलमानों के वोट भाजपा के खिलाफ ही पड़ेंगे और उसके पक्ष में पड़ेंगे जो भाजपा के उम्म्मीदवारों को हरा पाने की स्थिति में होगा।

मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद मुलायम सिंह यादव बैकफुट पर हैं

अब तक मुसलमानों के बहुत प्रिय राजनेता के रूप में सम्मान पाने वाले मुलायम सिंह यादव बैकफुट पर हैं। मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद एक मुस्लिम दोस्त राजनेता की उनकी छवि को ज़बदस्त झटका लगा है। मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद भाजपा को भारी राजनीतिक फायदा हुआ है। पिछले बीस वर्षों से अपने स्कूलों की किताबों के ज़रिये मुसलमानों के खिलाफ माहौल बना रही भाजपा ने इन दंगों के बाद साबित कर दिया है कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद मुस्लिम आबादी को ठीक किया जा सकता है।

12 साल पहले हुए गुजरात के नरसंहार को जो लोग भूल गए हों, उनके लिए मुज़फ्फरनगर का दंगा रेडी रेकनर की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। जिन लोगों के ऊपर मुज़फ्फरनगर के दंगों में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की अगुवाई करने के आरोप हैं उनको नरेंद्र मोदी की सभा में सम्मान देकर भाजपा ने साफ़ कर दिया है कि वह आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति का ही सहारा लेने वाली है।

मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद उतर प्रदेश में मुसलमानों के खिलाफ आक्रामक हिंदुत्व की राजनीतिक ताक़तों को ध्रुवीकरण का मौक़ा मिला है।

दंगों के बाद सबसे अधिक राजनीतिक नुक्सान मुलायम सिंह यादव को हुआ है। पिछले 25 वर्षों से अल्पसंख्यकों के सबसे प्रिय नेता के रूप में अपनी पहचान बना चुके मुलायम सिंह यादव की पार्टी की सरकार ने दंगा पीड़ितों की वह मदद नहीं की, जैसी कि उम्मीद की जाती थी। नतीजा यह है कि आज उत्तर प्रदेश का मुलायम सिंह यादव का वोट बैंक बन चुका मुसलमान विकल्प तलाश रहा है। राज्य में कांग्रेस की हालत बहुत खराब है लेकिन अगर कुछ सीटों पर उसके उम्मीदवार मज़बूत पाए गए तो उनको भी मुसलामानों का समर्थन मिल सकता है।

नरेंद्र मोदी के खिलाफ उम्मीदवारी की संभावना को अखबारों में छपवा कर आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल ने मुस्लिम संवेदनाओं को अपनी तरफ खींचा है। अगर वे ऐलानियाँ नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ गए तो आम आदमी पार्टी को भी मुसलमानों का समर्थन मिल सकता है। वैसे आम तौर पर अभी यह माना जा रहा है कि बड़ी संख्या में मुसलमान मायावती की पार्टी को समर्थन देंगे। उन्होंने इसकी तैयारी भी बहुत ही कुशलता पूर्वक कर रखी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में उन्होंने मुस्लिम नेताओं को लोकसभा का उम्मीदवार बनाया है और कई जिलों के अध्यक्ष भी अब मुलसमान ही हैं।

बहुजन समाज पार्टी ने टिकटों का भी ऐलान कर दिया है। उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी ने भी बड़ी संख्या में उम्मीदवार फाइनल कर दिया है। भाजपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों की लिस्ट अभी आना शुरू भी नहीं हुई है लेकिन दोनों ही पार्टियों के लोग संकेत दे रहे हैं कि जल्दी ही उनके टिकट भी तय हो जायेंगे। आम तौर पर मुसलमान पिछले 20 वर्षों से उनको ही वोट देता रहा है लेकिन पिछ्ले लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था। उसके दो कारण थे एक तो उन्होंने कल्याण सिंह को साथ ले लिया था, जिसकी वजह से उनकी पार्टी के बड़े नेता, आज़म खां उनका साथ छोड़ गए थे। दूसरे बात यह कि पार्टी में ऐसे लोगों को महत्व दे कर चल रहे थे, जो आम लोगों से बुरी तरह से कट चुके थे। नतीजा यह है कि अपने सबसे मज़बूत इलाकों में भी मुलायम सिंह कमज़ोर पड़ गए। इस राजनीतिक घटनाक्रम का नतीजा है कि मुसलमानों ने भाजपा को कमज़ोर करने के लिए विकल्प की तलाश शुरू कर दी। लोकसभा 2009 में मुसलमानों ने समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के जीतने लायक उम्मीदवारों को समर्थन दिया। नतीजा सामने है। भाजपा के अलावा सभी पार्टियों को आंशिक सफलता मिली। इसलिए आगामी चुनाव में भी मुसलमान वोट बैंक के रूप में काम नहीं करने वाला है। वह हर उस उम्मीदवार को समर्थन देगा जो भाजपा को कमज़ोर करता हो।

राहुल गाँधी और कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में यही कोशिश है कि मुसलमानों का समर्थन लिया जाए। लेकिन उसके लिए कांग्रेस को किसी एक वर्ग का वोट अपनी तरफ पक्का करना होगा। इसकी कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में राजपूत हैं जो नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में भाजपा के साथ चले गए थे लेकिन पार्टी ने जब राजनाथ सिंह को अध्यक्ष पद से हटाया तो नाराज़ हो गए। मायावती की तरफ जाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वहां उनकी जड़ काटने के लिए ब्राह्मण पहले से ही जमा हुआ है। मुलायम सिंह के साथ राजपूत कभी नहीं रहा और न ही वहां जाना चाहता है। इसी पृष्ठभूमि में राजपूतों को साथ लेने की कांग्रेस की कोशिश को देखा जाना चाहिए। दिग्विजय सिंह को उत्तर प्रदेश में महत्व मिलना फिर शुरू हो गया है। संजय सिंह को भाजपा में जाने से रोक लिया गया है। पार्टी के प्रवक्ता अखिलेश सिंह को भी महत्व दिया जा रहा है।

आम तौर पर माना जा रहा है कि अगर कांग्रेस के साथ एक जाति भी मजबूती से आ गयी तो मुसलमानों का समर्थन उसके उम्मीदवार को मिल सकता है।

कांग्रेस की रणनीति यह है कि अगर राजपूत उसके साथ मुख्य समर्थक के रूप में जुट गया तो राहुल गांधी की विकास की राजनीति और मुसलमानों में उनके पिछले कई साल से किये गए काम की वजह से वे बहुजन समाज पार्टी के मुख्य विरोधी बन जायेंगे और मायावती से नाराज़ मुस्लिम मतदाता कांग्रेस के पक्ष में आ जायेंगे। हालाँकि यह बहुत दूर की कौड़ी है लेकिन राजनीति के खेल में किसी भी संभावना को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता।

जहाँ तक मायावती की बात है उनके अपने बीस प्रतिशत वोट पूरी तरह से उनके साथ हैं। उन्होंने टिकट भी इस तरह से दिए हैं कि उम्मीदवार की जाति और उनके वोट मिलकर जीता जा सकता है।

इस बात में दो राय नहीं है कि उत्तर प्रदेश में 2014 चुनाव में भाजपा का पलड़ा साफ भारी दिख रहा है लेकिन यह भी सच है कि आधी आबादी से ज्यादा लोग भाजपा के खिलाफ भी हैं।

कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के बीच मुस्लिम वोटों की दावेदारी की मुख्य लड़ाई है। जो भी सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी होने का अहसास करा देगा उसके साथ मुसलमान अपने आप चला जाएगा। फिलहाल अभी तीनों ही अँधेरे में तीर मार रहे हैं। हालांकि सोनिया गांधी के आस पास जमे हुए मुलायम सिंह के मित्र पुराने समाजवादी और अब बड़े कांग्रेसी नेता लोग दिग्विजय सिंह को उत्तर प्रदेश से हटवा चुके हैं लेकिन जानकार बताते हैं कि वे अभी भी वे उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को 2009 वाली मजबूती दिलाने के लिए प्रयत्नशील हैं।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के इंचार्ज महासचिव मधुसूदन मिस्त्री भी अपने हिसाब से जुटे हुए हैं। कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह उत्तर प्रदेश के राजपूतों में बहुत ही लोकप्रिय हैं और वे राजपूतों को कांग्रेस से जोड़ने की राजनीति कर रहे हैं। अगर इस तरह माहौल बन जाएगा तो कांग्रेस को इसका फायदा होगा। कांग्रेस मुसलमानों को समझाने में सफल हो जायेगी कि उसके साथ एक वर्ग मजबूती के साथ जुटा हुआ है और अगर मुसलमान साथ आ जाए तो हालात बदल सकते हैं।

...लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि भाजपा इस सारी परिस्थिति का हाथ पर हाथ रखकर आनंद लेती रहेगी। उसकी कोशिश भी है कि वह राजपूतों को साथ ले। राज्य के कई जिलों में राजनाथ सिंह के करीबी लोगों की सभाएं हो रही हैं। राजनाथ सिंह का क़द वाजपेयी जी के सामने छोटा था लेकिन अब जो लोग दिल्ली में भाजपा की राजनीति के भाग्य विधाता हैं, उनमें सभी राजनाथ सिंह के सामने छोटे पड़ते हैं। ऐसी हालत में अगर उत्तरप्रदेश के राजपूतों की समझ में आ गया कि अगर वे साथ खड़े हो जाएँ तो राजनाथ सिंह को वह सम्मान मिल सकता है जो कभी चन्द्र शेखर जी को मिलता था तो कोई ताज्जुब नहीं होगा जब राज्य का राजपूत उनकी पार्टी को दोबारा अपना ले।

भाजपा की कोशिश शुरू से ही मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुओं के ध्रुवीकरण की थी। मुज़फ्फरनगर के बाद वह हासिल किया जा चुका है। इस सारे राजनीतिक विकास क्रम में आम आदमी पार्टी की भूमिका के बारे में अभी तस्वीर साफ़ नहीं है। उम्मीद है कि जल्दी ही उनके टिकट फ़ाइनल हो जायेंगे तो उत्तर प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर साफ़ हो जायेगी।

शेष नारायण सिंह