किसी इंसान की मौत एक स्वाभाविक घटना है फिर एक अवकाश प्राप्त प्राचार्य की मौत से बेगूसराय की वादियों में सन्नाटा क्यों छाया है।हमने-आपने सबने अपने आसपास, अपने परिजनों की मौत देखी है पर एक ऐसी मौत जिससे बहुत सारे लोगों की नींद गायब हो रही हो तो इस खास मौत के बारे में सोचना जरूरी है।

बेगूसराय में पहले भी प्राचार्यों की मौत हुई थी। डॉ.आनंद नारायण शर्मा औऱ अखिलेश्वर कुमर की मौत हुई थी। तब भी जनपद में रिक्तता कायम हुई थी। लोगबाग तब भी रो रहे थे। लेकिन प्रोफेसर बोढन प्रसाद सिंह की मौत (Professor Bodhan Prasad Singh dies) से अलग किस्म की स्तब्धता क्यों है।

"एक प्रोफेसर की मौत" बीएचयू से एक प्रोफेसर का विलाप है।

एक केंद्रीय विश्वविद्यालय का प्रोफेसर बेगूसराय के एक प्रोफेसर की मौत से आहत क्यों है? जाहिर है कि एक माटी मजदूर का बेटा प्रोफेसर ही हो तो किस तरह का जीवन स्वप्न देखेगा। वह हलवाहे-कृषक के बेटे प्रोफेसर बोढ़न सिंह के सपनों में अपना सपना देखता है।

कवि सुमित्तर देर रात फूट-फूट कर रो रहे हैं कि उन्हें अब नाथ जी कौन कहेगा। नाथ जी उन्हें मंझौल का महामना कहते थे तो ऐसे ही नहीं कहते थे। गाय-भैंस पालने, खेती करने, जमीन बेचकर बेटी ब्याहने, श्राद्ध करने औऱ गृहस्थी की परंपरागत जिंदगी में आबादी बढ़ाने का जो जो जीवन चक्र चल रहा था, उस चक्र में शिक्षा की क्या जरूरत थी।

मंझौल में जयमंगला उच्च विद्यालय को माई जयमंगला ने या किसी राजनेता ने तो स्थापित नहीं किया था। बाबू बलराम सिंह दियारे से क्या खाकर आए थे कि उनके स्पर्श मात्र से जयमंगला उच्च विद्यालय बिहार का दूसरा नेतरहाट हो गया था। इस विद्यालय से शिक्षित एक हलवाहे-कृषक का बेटा अगर "प्रिंसिपल" बलराम सिंह के चमत्कृत व्यक्तित्व के आकर्षण में "प्रिंसिपल" होने का स्वप्न देखता हो तो यह बहुत आश्चर्यजनक नहीं था।

कवि सुमित्र ने आदरणीय को मंझौल का महामना कहा तो इस हकीकत को वे लोग ठीक से बयां कर सकते हैं, जो रामचरित्र सिंह महाविद्यालय की स्थापना काल में महाविद्यालय के छात्र रहे थे। बिहार सरकार के वित्त सचिव रहे फुलेश्वर पासवान के पास वे संस्मरण हैं, जो बोढ़न सिंह को मंझौल का महामना प्रमाणित करता है। किस तरह महाविद्यालय के संस्थापक प्राचार्य छात्रों को बाँस -फूस इकट्ठा करने के लिए प्रेरित करते थे, यह वाकया आप एक अवकाश प्राप्त वित्त सचिव के मुख से सुनेंगे तो बात ज्यादा सार्थक होगी।

पत्रकारिता से असमय अवकाशग्रस्त हो गए पत्रकार श्यामाचरण मिश्र के रातों की नींद क्यों गायब हो गयी है। एक ख्याति प्राप्त प्राचार्य और एक प्रतिष्ठित पत्रकार की अंतरंगता के क्या निहितार्थ हो सकते हैं। श्याम जी अपने आंसुओं को शब्दरूप देंगे लेकिन फ़िलवक्त उनका मिजाज अनुकूल नहीं है।

इतने बुरे समय में जब इंसान किसी निजी लाभ के बिना किसी की तारीफ करने के लिए तैयार ना हो,एक प्राचार्य के अवसान से इस तरह जन-जन में शोक व्याप्त होने का मतलब क्या है। वे सांसद, विधायक भी नहीं थे कि उनके लिए रोने से किसी तरह का राजनीतिक हित सध जाए।

दीपक सिन्हा अपने प्रिय प्राचार्य की ऐसी तस्वीरें फेसबुक में साझा कर रहे हैं, जिनमें प्राचार्य नाटक औऱ नुक्कड़ के प्राचार्य प्रतीत होते हैं।

लोक- कलाकार सीताराम जी ने मौत के दिन आदरणीय का जो स्केच- पोर्ट्रेट बनाया है, आप उसे भी देखिए।मैं समूह के विलाप के साथ एक इंसान के कद की ऊँचाई को मापना चाहता हूँ, जिसका देहावसान हो चुका है पर स्मृतियों का एक बरगद हमारी आंखों के सामने निर्मित हो रहा है।

मैं विकास के नाम पर मानवता के संहार की राज्यपोषित त्रासदी को लिखने मध्य प्रदेश में नर्मदा के किनारे खड़ा हूँ औऱ बेगूसराय के विलाप से मेरा अंतर्नाद मुझे पछाड़ रहा है। अपने बैलों के कंधे पर हल बांधकर तपती धूप में पसीने से तर-व- तर हल जोतने वाले मंझौल के कृषक रामबदन सिंह और कपूर देवी के घर जन्में एक साधारण शिशु के ख्याति प्राप्त प्राचार्य होने की कहानी सुपर थर्टी की फिल्मी कहानी से ज्यादा रोचक, ज्यादा प्रेरक है।

सिमरिया के मुचकुंद मोनू से लेकर जयमंगला गढ़ के नरेश सदा, रमजनिया सदा से होते हुए प्रभाश जोशी, खगेन्द्र ठाकुर से एक तरह मित्रता साधने वाले कॉमरेड बोढ़न सिंह से मेरा भी कोई रिश्ता तो था। वह रिश्ता किस तरह का था, सार्वजनिक होना जरूरी है। एक ऐसा रिश्ता जो अपने रक्त के रिश्तों के नकारा होने के बाद भी सबसे ज्यादा उपयोगी हो।

जातीय हिंसा के उन्माद में जब गाँव के एक-एक दोस्त पीछे छूटते गए। पिता और सगे भाई भी जब हमसे न्यूनतम संवाद की गरज ना रखते हों, आदरणीय हमारे एकल ग्राम्य संरक्षक- मार्गदर्शक रहे।

वे कवि नहीं थे पर कविता के अच्छे रसिक थे। कवि चंद्रशेखर भारद्वाज, कवि अशांत भोला, दीनानाथ सुमित्र सहित जनपद के तमाम कवियों और प्रतिष्ठित रंगकर्मियों से उनके निजी संबध थे। जनपद के हर बौद्धिक आयोजन में शरीक होकर उस आयोजन को वे गरिमा प्रदान करते थे। यही वजह है कि 23 सितम्बर को राष्ट्रकवि जयंती उत्स के मध्य उनके देहावसान की खबर आई तो ऐसा लगा, एक बार फिर दिनकर की मौत हुई हो।

परंपरागत चेतना वाले ग्राम्य मानस में दिनकर जयंती के अवसर पर उनकी मौत को लेकर कोई बात शुरू हो गयी। शोक के साथ कोई अच्छा विचार ही आया होगा पर हम काफिर से किसी ने बताया नहीं।

हमारे आदरणीय भी स्वर्ग -नरक की धारणा में कभी यकीन नहीं करते थे तो हम क्यों कहें कि वे स्वर्ग में दिनकर के पास बैठ कर उनसे कविताएँ सुनेंगे या लाल सितारे चंद्रशेखर दा का ठिकाना खोजेंगे।

मैं उन्हें सर कहता था पर वे मेरे साथ दोस्तों की तरह का बर्ताव करते थे। सर कहने की वजह यह भी थी कि उनके प्राचार्यकाल में मैं छात्र था तो इंटर और बीए में वे व्यस्तता के बावजूद क्लास जरूर लेते थे। हर 3 माह पर सम्पूर्ण कॉलेज के छात्रों को फील्ड में एक साथ बिठाकर वे शिक्षा, अनुशासन औऱ नैतिकता का पाठ जरूर पढ़ाते थे। कॉलेज में कोई छात्र संगठन नहीं था पर छात्रों की परेशानियों के खिलाफ सोचने-बोलने की आदत में हम छात्र नेता हो गए थे। कॉलेज के कर्मचारियों का एक छोटा सा समूह प्राचार्य के खिलाफ एकजुट हो गया था और क्रांति के स्वप्नों की ललक में हमने कर्मचारियों का समर्थन करना जरूरी समझा था। कोई व्यवस्थित संगठन तो था नहीं। ना ही छात्र राजनीति की कोई परिपक्व समझ अपने पास थी।असंगठित छात्रों की राजनीति तो तात्कालिक मुद्दों पर केंद्रित होती है। फीस वृद्धि के खिलाफ, बस में छात्रों को रियायत ना देने के खिलाफ।

प्राचार्य ने छात्रों की माँगे मान ली फिर भी छात्र नारे क्यों लगा रहे हैं। हम संगठित छात्र संगठन की बजाय भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे और भीड़ किसी उकसावे में अनियंत्रित हो गयी। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए प्राचार्य ने पुलिस की मदद ली। एक मुखर मेधावी छात्र पर जुर्माना लगा दिया। रणनीतिक सोच के आधार पर प्राचार्य ने मेरे ऊपर जुर्माना नहीं लगाया। मैं काफी वर्षों तक उनसे दुःखी रहा। फिर जब संस्थापक प्राचार्य का कॉलेज से तबादला हो गया और कॉलेज की उल्टी गिनती शुरू हो गयी। तब हकीकत का पता चला कि कमर्चारियों के बीच से प्राचार्य के खिलाफ विवाद पैदा करने के पीछे किस ताकतवर राजनीतिज्ञ की चाल थी।

हमें देरी से सही, किशोरवय की अपरिपक्वता का अहसास हुआ और हम उनके करीब हुए। उस ताकतवर राजनीतिज्ञ ने सत्ता का बेजा उपयोग करते हुए संस्थापक प्राचार्य का तबादला तो कराया ही, किसी पुराने द्वेष से बदला साधने के लिए उनके खिलाफ निराधार आरोपों के तहत जाँच भी करवाई। उस बुरे दौर को धीरज और विवेक के साथ उन्होंने झेला पर ना ही घुटने टेके ना बदले के भाव से उन राजनेता के खिलाफ विषदमन किया।

सर ने मुझसे खुद कहा था कि अगर उनकी चलती तो वे हमें निगल गए होते। जब सारे अभियोग निरस्त हो गए तो सेवा के आखिरी दिनों के कुछ वर्ष उन्होंने उस महाविद्यालय के प्राचार्य की कुर्सी संभाली, जिस महाविद्यालय में वे कभी छात्र रहे थे। अपने प्राचार्य काल में उन्होंने सर गणेश दत्त महाविद्यालय को गरिमा प्रदान किया।

1997 में इप्टा का गोल्डन जुबली कार्यक्रम सर गणेश दत्त कॉलेज परिसर में आयोजित हुआ था। 4 दिनों तक मुम्बई के प्रसिद्ध सितारे और देश के नामचीन रंगकर्मी कॉलेज परिसर में हो रहे सांस्कृतिक महोत्सव में शरीक रहे।

हम नहीं जानते हैं कि बेगूसराय जिला में इप्टा का उस तरह का आयोजन दुबारा हो पाया।बे गूसराय के इतिहास में वह अदभुत ऐतिहासिक सांस्कृतिक आयोजन था।

आप कल्पना करिए कि अगर बोढन सिंह सर गणेश दत्त कॉलेज के प्राचार्य ना होते तो क्या वह आयोजन उस भव्य तरीके से मुमकिन था।

एक प्राचार्य के सामाजिक-सांस्कृतिक होने का एक वाकया मैंने सामने रखा कि क्यों आज एक प्राचार्य की मौत से ऐसा लग रहा है कि सबके कलाई की घड़ी रूक गई हो। यह किस तरह की मौत है कि जैसे जनपद में उन्हें जानने वाले हर इंसान का सबसे खास चला गया हो।

बेगूसराय बिहार का एकल औद्योगिक जिला है। जाहिर है कि कारखानों का कार्बन पीते हुए मलाई चाटने की आदत लग जाती है तो मानवता पतनशील हो जाती है। बावजूद किसी ने कभी जनपद के लोक संसार में कूदकर यह जानने की कोशिश नहीं की कि क्या बेगूसराय की सांस्कृतिक विरासत जातियों के खंभे पर टिकी थी या उसका कोई अपना मानवतावादी आधार भी था। आखिर बीहट में जन्में रामचरित्र सिहं के नाम से एक विप्र कृषक के बेटे ने अपने गाँव में एक कॉलेज स्थापित करने की जिद क्यों ठानी थी। उस अतीत के बेगूसराय में समाज कुछ चंद यशस्वी महानुभावों के यश से चमत्कृत होता था, ना कि धन-दौलत बाहुबल से। एम.ए. पास गरीब के लिए जल्दी नौकरी की जरूरत थी। तब 60 के दशक में एमए पास के लिए नौकरी बहुत मुश्किल तो नहीं थी पर अपने लिए आर्थिक जुगाड़ की चिंता से बेफिक्र होकर किसी साधन के बिना, उन्होंने एक ऐसे कॉलेज की नींव रखी, जिससे 50 से ज्यादा लोगों को तत्काल रोजगार प्राप्त हुआ।

लाल सितारे चंद्रशेखर सिंह अपने पिता से जुड़ी भावना की वजह से उस महाविद्यालय के लिए आंशिक सहयोग जरूर करते थे पर अंततः कॉलेज के लिए एक-एक ईंट जमा करना, भू दाताओं का विश्वास हासिल करना आसपास के बीस गाँव तक साइकिल यात्रा करते हुए छात्र इकट्ठा करने जैसे उद्यम तो प्राचार्य के जिम्मे ही थे।

वासुदेव सिंह, बोढन सिंह, भोला सिंह, रामजीवन सिंह, लक्ष्मी साहू और योगेश्वर गोप मंझौल हाय स्कूल के राजनीतिक उत्पाद थे। इन सबके गुरू शास्त्री जी थे। सबने राजनीति में अपनी -अपनी पहचान बनाई। बोढन सिंह शास्त्री जी की विरासत को संभालने वाले उनके सबसे विश्वस्त शिष्य थे।

शास्त्री जी के नेतृत्व में हुए टीक-जनेऊ आंदोलन का प्रभाव ही था कि बोढन सिंह अपने ग्राम में स्थापित जातीय धारा के विपरीत समाजवादी प्रगतिशील धारा के साथ शिक्षित हुए औऱ खुद को गर्व के साथ कम्युनिस्ट घोषित किया। खुद के द्वारा स्थापित कॉलेज से उनका तबादला उनके जीवन का सबसे बुरा दौर रहा होगा पर उस बुरे दौर में भी वे अपने गुरू शास्त्री जी के प्रति अपना सम्मान कम नहीं कर पाए, यह जानते हुए भी कि उनके ही राजनेता शिष्य उनसे बदला सधा रहे थे।

सवर्ण कुल में जन्म लेने के बावजूद गैर सवर्णो के साथ उनका बर्ताव जिस तरह का था, मैंने उनके गुरू शास्त्री जी के अलावा किसी अन्य सवर्ण में वह गुण नहीं देखा।

सियाराम महतो हमारे सिया चा थे तो बोढन बाबू भी उन्हें सिया दा कहते थे। किसी मुसहर, मेहतर, डोम, चर्मकार को मैंने कभी अन्य सवर्णों की तरह उसकी जाति से पुकारते हुए उन्हें नहीं देखा। जब आउटलुक में गाँव डायरी छपने के बाद एक मगहिया मुसहर टोला को रातों रात उजाड़ दिया गया तो मैंने अपना अपराधबोध स्वीकार करते हुए गाँव में पाँव ना रखने का फैसला लिया।

बोढन बाबू ने शोषण-दमन की राजनीतिक चेतना और वर्गीय समझ पर मेरे साथ लंबी बहस की। फिर वे मुझे अपने साथ लेकर उस स्थल पर गए जहाँ से लोगों को उजाड़ दिया गया था। जिला के जिलाधीश दलित कुल के ही थे पर उन्होंने उजाड़ी गयी जमीन को बेचने से भूस्वामी को नहीं रोका।

बोढन बाबू मेरे कंधे पर खड़े थे तो मैं निडर था कि पुलिस की जरूरत नहीं है। उनके सहयोग की वजह से उजड़े हुए मुसहर पास की दूसरी जगह पर ही सही पर वापस लौटकर गाँव में बस तो गए। जब गाँव में हिंसा का तांडव शुरू हुआ। एक बदमाश ने बंदूक उठाई और नहीं अपराधी, शांति प्रिय लोगों ने भी जात-बिरादरी के आधार पर जाति की बंदूक का समर्थन किया। मेरी इच्छा थी कि आदरणीय सर बंदूक के खिलाफ खड़े हों। मैंने उन्हें काफी मनाने की कोशिश की पर वे तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि मैं एक राजनीतिक दल से जुड़ा हूँ और मुद्दा कितना भी गरीब पक्षधर क्यों ना हो, अगर मेरी पार्टी इस मुद्दे पर लड़ने के लिए तैयार नहीं है तो मैं भावनात्मक आवेग में इस मुद्दे में अपनी शक्ति नहीं लगा सकता हूँ।

जब उस बदमाश ने उनके एक निकटस्थ पत्रकार को अपना सबसे बड़ा विरोधी मानकर उस पर रात में गोली चला दी तो अगली सुबह वे अपने दल के एक विधायक को साथ लेकर गांव आए और उस बदमाश को दिवंगत कॉमरेड भूषण दा के घर पर बुलवा कर उसे माफी मांगने के लिए बाध्य किया।

वे गाँव से बेइंताह मुहब्बत करते थे औऱ गाँव को सुंदर बनाने के लिए हमारे साथ बहुत सारे सपने देखते थे।

आपातकाल से पूर्व शायद पुलिस गोली से नित्यानंद की मौत के बाद आदरणीय के खिलाफ एक मुर्दाबाद नारों वाला जुलूस किसी राजनेता के उकसावे से निकालवाया गया था। सर मुझसे उस घटना का जिक्र करते हुए मुझे अक्सर सतर्क करते थे कि आपकी सत्यनिष्ठा किसी से इस तरह से व्यक्तिगत मुठभेड़ ना करे कि एक उन्मादी भीड़ आपके खिलाफ खड़ी हो जाए। उनके अतीत के तजुर्बे हमारे लिए रक्षक साबित हुए।

अगर सर का साया मेरे सिर पर ना होता तो हम देश-दुनियाँ के किसी हिस्से के नागरिक होकर जिंदा भी होते तो क्या होते, अपने ग्राम की नागरिकता हम खो चुके होते। वे मुझे अपने अग्रज -पिता सहित हर एक रिश्ते से भावनात्मक अपेक्षा रखने की बजाय, सबको वैज्ञानिक राजनीतिक दृष्टि से स्वीकार करने की नसीहत देते थे।वे प्रभाष जोशी या मेरे किन्हीं अन्य निकटस्थ विशिष्ट व्यक्ति को फोन करते थे फिर उनसे मिलते थे। उन्हें इस बात का सुकून प्राप्त होता था कि वे सर से मिलते हुए मेरे बारे में निजी बातें करते थे और सर को मेरे निकटस्थ का सम्मान देते थे।

दावे के साथ मैं कह सकता हूँ कि इस समय वे भुसारी के सबसे बड़े आदमी थे। और सबसे बड़े आदमी क्यों नहीं थे। दिनकर बड़ा आदमी किसे मानते हैं।(बड़ा वह रूह जो रोये बिना तन से निकलता है, बड़ा वह ज्ञान जिसको व्यर्थ की चिंता न आती है, बड़ा वह आदमी जो जिन्दगी भर काम करता है, बड़ी कविता वही जो विश्व को सुन्दर बनाती है। - दिनकर)

एक नेता ने वामपंथी लिबास पहनकर मुझे बहुत भरमा लिया। उसने मेरी कलम औऱ परिचय के संबंधों से एक दशक से ज्यादा समय तक खूब लाभ लिया।मैं अपने गुप्त लेखन-अध्ययन के लिए अपने खर्चे पर उस केंद्र का उपयोग करता था। एक रात उस नेता ने मुझे उस केंद्र से बाहर निकलने का निर्देश दिया। मैंने सर को गुस्से से फोन किया। उन्होंने मुझसे कहा कि आप उस जगह को छोड़कर तत्काल निकलिए। उन्होंने साफ कहा कि वे उस नेता से व्यक्तिगत संबंध के अलावा कुछ नहीं चाहते हैं औऱ उस नेता के पास ना ही सत्य को स्वीकार करने का धीरज है, ना ही कृतज्ञता का अंश शेष बचा है तो आप मेरा मुँह क्यों खाली करवाना चाहते हैं।

नेता जी जब किसी का हित करने के लायक नहीं बच गए तो अब चुनाव जीतना उनके लिए मुमकिन नहीं था। साहित्य की जुगाली को उन्होंने अपना पेशा बना लिया, वे बोढन बाबू को चंदा जमा करो अभियान में साथ कर लेते थे। जब मैंने उनसे यह बताया कि उस नेता के साथ इस तरह घूमने से आपका यश क्षरित हो रहा है तो वे सहमत नहीं हुए। बाद में उन्होंने मुझसे अकेले में कहा कि हम तो पार्टी के संबंधों के आधार पर उनके साथ कहीं चले जाते हैं लेकिन अगर आप उनके आर्थिक चरित्र का कोई साक्ष्य देंगे तो मैं उनके साथ भविष्य में चंदा मांगों अभियान में साथ नहीं हो सकता हूँ। मैंने उनके पास दो सबूत रखे। पहला यह कि जिस केंद्र के नाम पर चंदा जमा हो रहा है, उस केंद्र का मैं कार्यसमिति सदस्य हूँ और मुझे उस केंद्र की किसी गतिविधि की जानकारी से अलग रखा जाता है, सिर्फ इसलिए कि नेताजी मुझसे ख़ौफ़ खाते हैं। दूसरा यह कि ये चन्दा जमा करने की प्रक्रिया में लोगों पर धौंस कायम करना चाहते हैं।

बोढन बाबू ने इसका सबूत माँगा। मैंने नगर के दो होटल वालों के नाम लिए। उनमें एक आदरणीय के निकटस्थ थे। उन्होंने उनसे जाकर पूछ लिया। बोढन बाबू ने उन नेता के धन संग्रह अभियान से खुद को अलग कर लिया।

सर इस बात से सहमत थे कि किसी दियर इलाके में सरकारी संसाधन औऱ बाह्य सहायता से करोड़ों रुपए की ताकत से अगर कोई विज्ञान केंद्र खड़ा ही कर दिया गया तो उसकी सामाजिक उपयोगिता शून्य होगी। यह मुमकिन है कि आप किसी वैज्ञानिक शोध के बिना गैलेलियो, न्यूटन, आईन्स्टीन की जयंती मनाते हुए 4 कॉलम की खबरों से खुद को जीवित रखिए।

सर इस बात से सहमत थे कि भौगोलिक रूप से पिछड़े इलाके में एक ताजमहल सरीखा विज्ञान केंद्र अगर बुद्धु बक्सा साबित हो रहा है तो इस चूक से हमें कोई सीख लेनी चाहिए।

उन्होंने एक दिन मुझसे बंद कमरे में बात करते हुए स्वीकार किया कि अगर वह विज्ञान केंद्र मंझौल में स्थापित होता तो आज इलाके में ज्ञान दीपक जगरमगर कर रहा होता।

उनने स्वीकार किया कि ऐसे केंद्र लाखों लोगों की आबादी के मध्य होना स्थापित चाहिए, जहाँ के आसपास के लोग केंद्र से जुड़ कर वैज्ञानिक चेतना का निर्माण कर पाएं। गाँव में रहने का एक घर निर्मित करने के बाद उन्होंने उस केंद्र के निर्माण की योजना को अंजाम देने का वादा किया था। उनके -हमारे सपनों का वह केंद्र भुसारी का सबसे बड़ा सांस्कृतिक-वैज्ञानिक केंद्र साबित होता। उनकी मौत गाँव को सुंदर बनाने के उस सपने पर वज्रपात है।

बोढन बाबू का घर अब उनकी ना-मौजूदगी में उनकी स्मृतियों का स्मारक साबित होगा। आदरणीय, आपका देहावसान मात्र हुआ है। आप इस तरह कभी नहीं मरेंगे। आप दुनियाँ को खूबसूरत बनाने के सपनों में जिंदा रहेंगे।

पुष्पराज