अरुण माहेश्वरी

क्या कोई इस बात की कल्पना भी कर सकता है कि एक देश के वित्त मंत्री को अपनी आय और व्यय के आँकड़ों को सही तरह से पढ़ना नहीं आता है ?

लेकिन हमारे वित्तमंत्री अरुण जेटली के साथ बिल्कुल ऐसा ही है !

हाल में जीएसटी कौंसिल की बैठक के बाद उन्होंने संवाददाता सम्मेलन में बताया कि जीएसटी लागू किये जाने के बाद जुलाई के पहले रिटर्न में कुल 95 हज़ार करोड़ रुपये का जीएसटी सरकारी ख़ज़ाने में जमा हुआ है जो उनकी दृष्टि में शुरू के महीनों को देखते हुए यथेष्ट (robust) था।

लेकिन अब जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनसे पता चलता है कि जीएसटी के खाते में जमा इन 95 हज़ार करोड़ रुपये में आधी से भी कम राशि वास्तव में सरकार की अपनी आमदनी की राशि है। इनमें से 65 हज़ार करोड़ रुपये व्यापारियों द्वारा जमा करायी गयी एक प्रकार की वह अग्रिम राशि है जिसे वे अपने पास पड़े स्टाक पर अदा किये गये पुराने करों के तौर पर वापस माँग रहे हैं। इन 95 हज़ार करोड़ रुपये में से 65 हज़ार करोड़ रुपये सरकार पर जीएसटी के जमाकर्ताओं के ऋण की तरह है।

अब जब से 'उत्पादन शुल्क और आबकारी के केंद्रीय बोर्ड' (सीबीईसी) को और उसके जरिये जेटली को इस बात का पता चला है, इन्होंने इस राशि को अटका कर रखने की वे सभी पुरानी पैंतरेबाजियां शुरू कर दी है, जैसा नोटबंदी के समय देखा गया था।

वित्तमंत्री ने निर्देश दिया है कि जिन लोगों ने भी अपने इस 'ऋण' की वापसी का दावा किया है, उन्हें फ़ौरन वापस करने के बजाय किसी न किसी प्रकार से लटकाये रखो ताकि सरकार के सामने यह कोई नयी तत्काल वित्तीय लागत खड़ी न हो जाए। जैसे इन्होंने नोटबंदी से सब लोगों के घरों के रुपये बैंकों में जमा करवा लिये और अभी दस महीनें बीत रहे हैं, लेकिन उन्हें विभिन्न उपायों से अपने रुपये वापस लेने से रोका जा रहा है, जीएसटी का यह मामला भी ऐसा ही है।

जेटली ने सीबीईसी को कहा है कि एक करोड़ से ज्यादा के रिफंड की माँग करने वालों के खातों की कड़ी जाँच करके ही उन्हें उनका रुपया वापस किया जाना चाहिए।

'टेलिग्राफ' की इस रिपोर्ट को देखियें और समझिये कि वित्तीय मामलों में एक कैसे अज्ञ आदमी के हाथ में आज हमारा वित्त मंत्रालय है, जो जनता को और शायद प्रधानमंत्री को भी धोखे में रख कर किसी तरह अपना काम चला रहा है। आज कोई भी मंत्रालय निश्चिंत नहीं है कि उसे बजट के प्रावधान के अनुसार रुपया आवंटित होगा या नहीं !

परिणाम यह है कि सरकारी राजस्व की डाँवाडोल स्थिति को पेट्रोल, डीज़ल और रसोई गैस के दामों में अंधाधुँध वृद्धि करके किसी तरह सम्हाला जा रहा है। इसका जन-जीवन और पूरी अर्थ-व्यवस्था पर क्या असर पड़ रहा है, इसकी भी इन्हें कोई परवाह नहीं है।

देखिये 'टेलिग्राफ' की यह रिपोर्ट :

https://www.telegraphindia.com/1170916/jsp/business/story_173459.jsp