एफटीआइआइ - युधिष्ठिर, दुर्योधन का हठी पात्र निभा रहे हैं और सरकार धृतराष्ट्र बनी हुई है
एफटीआइआइ - युधिष्ठिर, दुर्योधन का हठी पात्र निभा रहे हैं और सरकार धृतराष्ट्र बनी हुई है
एफटीआइआइ-एक और महाभारत
फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट
पुणे से आए फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट के हड़ताली छात्र वापस लौट गए हैं। भारत के इस सबसे प्रतिष्ठित फिल्म और टेलीविजन संस्थान के छात्र, अपनी हड़ताल के 53वें दिन दिल्ली की संसद पर दस्तक देने पहुंचे थे। उन्हें उम्मीद थी कि सैकड़ों किलोमीटर दूर पुणे से आ रही उनकी आवाज भले ही दिल्ली में बैठी सरकार ने न सुनी हो, संसद के दरवाजे से उनकी आवाज जरूर सरकार के कानों तक पहुंचेगी। एन एस यू आइ, एस एफ आइ, आइसा आदि विभिन्न छात्र संगठनों तथा राजधानी के तीनों विश्वविद्यालयों के छात्रों से लेकर, राजधानी के अनेक नाटक गु्रप, सांस्कृतिक संगठन और सैकड़ों कला-संस्कृतिकर्मी भी उनके साथ एकजुटता जताने के लिए जंतर-मंतर पर जुटे थे। यहां तक कि जंतर-मंतर पर पहुंचकर तथा बाकायदा वक्तव्य जारी कर, चार-पांच पार्टियों का प्रतिधित्व करने वाले आधा दर्जन सांसदों ने भी हड़ताली छात्रों की मांगों के लिए अपना समर्थन जताया था।
इसके बावजूद, देश की सबसे बड़ी पंचायत के द्वार से भी आंदोलनकारी छात्र निराश होकर लौटे लगते हैं। दिल्ली की सरकार ने सुनकर भी उनकी मांग अनसुनी कर दी है। सूचना व प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्द्धन सिंह राठौर ने जहां हड़ताली छात्रों के सार्थक बातचीत के आग्रह पर, बातचीत के लिए सरकार के दरवाजे खुले होने की बात कही, वहीं यह कहकर वास्तव में बातचीत के लिए दरवाजा बंद भी कर दिया कि छात्रों का आंदोलन अगर शुरू से ही राजनीतिक नहीं भी था, तो राहुल गांधी के पुणे जाकर छात्रों के आंदोलन को समर्थन देने के बाद तो जरूर ही राजनीतिक हो गया है। और सरकार राजनीतिक आंदोलन से बात नहीं, उसका तो मुकाबला ही करेगी।
वास्तव में राठौर ने यह कहकर पुणे संस्थान के छात्रों के आंदोलन को विफल करने के लिए किसी हद तक जाने के मौजूदा सरकार के हठ को ही उजागर किया है कि छात्र तो आते-जाते रहेंगे, उन्हें ‘‘संस्थान बचाने’’ की चिंता करनी है!
छात्रों से मुक्त शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान की चिंता बल्कि छात्रों से और बहुत से मामले में शिक्षकों-प्रशिक्षकों से भी, ऐसे संस्थानों को ‘बचाने’ की चिंता ही, वास्तव में झगड़े की जड़ है। इस तरह के रुख के चलते अगर मौजूदा सरकार आने के बाद से तरह-तरह की अकादमिक और साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं में, विभिन्न रूपों में संकट दिखाई दे रहा है तो अचरज की बात नहीं है। पुणे संस्थान का गतिरोध इसी संकट की एक अभिव्यक्ति है, हालांकि इस मामले में संकट अपने सबसे प्रखर रूप से सामने आया है, जहां करीब दो महीने से इस प्रतिष्ठित संस्थान में सारा काम-काज ठप्प है। काम इस हद तक ठप्प है कि इसी को आधार बनाकर, संस्थान के नये प्रशासक/ निर्देशक ने, फिल्म आदि के निर्माण में सहायता के लिए ली जा रही अनेक अस्थायी सेवाओं को फिलहाल बंद करने का फैसला लिया है।
..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
इस आलेख की पिछली कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
बेशक, पुणे संस्थान के छात्रों के आंदोलन का मुख्य मुद्दा, संस्थान के चेयरमैन के पद पर गजेंद्र चौहान की नियुक्ति का विरोध है। धारावाहिक महाभारत में ‘युधिष्ठिर’ की अपनी भूमिका के लिए ही पहचाने जाने वाले, गजेंद्र चौहान की नियुक्ति के विरोध के पीछे छात्रों की और वास्तव में एक तरह से देश के समूचे फिल्म उद्योग की ही यह धारणा है कि वह इस प्रतिष्ठित पद के उपयुक्त नहीं हैं, जिस पर इससे पहले आर के लक्ष्मण, श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, महेश भट्ट, गिरीश कर्नाड, विनोद मेहता तथा सईद अख्तर मिर्जा जैसे, जाने-माने फिल्मकार-सर्जक रहे हैं। किसी भी तरह से देखा जाए, अपने इन पूर्ववर्तियों की तुलना में गजेंद्र चौहान का रचनात्मक योगदान, बहुत-बहुत बौना ही नजर आएगा।
वास्तव में आरटीआइ के जरिए बाद में सामने आयी जानकारी के मुताबिक, गजेंद्र चौहान की नियुक्ति कुल एक पैरा के बायोडॉटा के आधार पर की गयी है, जिसमें धारावाहिक महाभारत में उनकी भूमिका के सिवा उनके और किसी ‘योगदान’ का जिक्र तक नहीं है।
दूसरी ओर, जहानू बरुआ से लेकर, संजय लीला भंसाली तक, अनेक जाने=माने सिनेकर्मियों के मुकाबले उन्हें तरजीह दी गयी है। अचरज नहीं कि इससे इसी धारणा को बल मिलता है कि गजेंद्र चौहान को, भाजपा और नरेंद्र मोदी के प्रति उनकी ‘वफादारी’ के लिए ही पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के चेयरमैन के पद से पुरस्कृत किया गया है।
यह दिलचस्प है कि खुद सत्ताधारी पार्टी और सरकार की ओर से भी, गजेंद्र चौहान की नियुक्ति के बचाव में सबसे बढक़र एक ही तर्क दिया जा रहा है कि केंद्र सरकार को, यह नियुक्ति करने का अधिकार है। नियुक्ति करने के अधिकार को बड़ी आसानी से मनमाफिक तथा मनमर्जी से नियुक्ति के अधिकार तक फैला दिया जाता है और फिर इस तरह की नियुक्ति के हरेक विरोध को, ‘राजनीतिक विरोध’ कहकर खारिज कर दिया जाता है। ऐसा भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से लेकर, नेशनल बुक ट्रस्ट तक, शिक्षा, शोध व संस्कृति से जुड़ी एक के बाद एक, तमाम संस्थाओं के मामले में हुआ है।
जाहिर है कि इसके विरोध में इन संस्थाओं से जुड़े रहे अनेक प्रतिष्ठिïत विद्वानों ने इन संस्थाओं से नाता भी तोड़ा है। खुद पुणे फिल्म तथा टेलीविजन संस्थान के बोर्ड से ऐसी ही परिस्थितियों में पल्लवी जोशी, जहानू बरुआ तथा संतोष सिवन जैसे फिल्मकारों ने इस्तीफे दे दिए हैं।
..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
इस आलेख की पिछली कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
दूसरी ओर, छात्रों का तथा इस संस्थान के भविष्य को लेकर चिंतित दूसरे बहुत से लोगों का भी विरोध, अकेले गजेंद्र चौहान की नियुक्ति पर ही नहीं है। विरोध संस्थान की नयी सोसाइटी में अनघा घईसास, डा0 नरेंद्र पाठक, राहुल सोलापुरकर तथा शैलेष गुप्त जैसे, फिल्म-टेलीविजन माध्यम के लिए पूरी तरह से बाहरी लोगों के भरे जाने पर भी है, जिन्हें आर एस एस से निकटता के लिए ही यह जिम्मेदारी सौंपी गयी लगती है।
डा0 पाठक का विरोध तो और भी ज्यादा है क्योंकि उनके ही नेतृत्व में आर एस एस के जुड़े छात्र संगठन, ए बी वी पी ने दो साल पहले पुणे संस्थान के छात्रों पर हमला किया था, ताकि आनंद पटवर्द्धन की पुरस्कृत फिल्म, ‘कामरेड जयभीम’ का प्रदर्शन रोक सकें।
उक्त प्रकरण के सिलसिले में इंस्टीट्यूट के छात्रों पर अब तक केस चल रहे हैं।
इन नियुक्तियों के खिलाफ छात्रों का आंदोलन छिडऩे के बाद से, अगर गजेंद्र चौहान ने खुद यह बयान देकर कि उनकी विश्व सिनेमा में कभी कोई दिलचस्पी ही नहीं रही, एफटीआइआइ के चेयरमैन के पद के लिए अपनी पात्रता की सीमाओं को खुद ही स्वीकार किया है, तो दूसरी ओर इंस्टीट्यूट की सोसाइटी में भरे गए लोगों ने यह कहकर अपना एजेंडा स्पष्ट कर दिया है कि वे इस संस्थान और उसके छात्रों को ‘‘राष्ट्रवाद’’ की घुट्टी पिलाने जा रहे हैं।
वास्तव में असली समस्या सिर्फ इन नियुक्तियों में नहीं है बल्कि इन नियुक्तियों के जरिए ऐसी संस्थाओं के साथ जो किया जा रहा है और इन संस्थाओं को जिद दिशा में धकेला जा रहा है, उसकी है। सत्ताधारी भाजपा से बढक़र आर एस एस ने अपने अनेक मुखों से इन नियुक्तियों को इसी तर्क से उचित और जरूरी ठहराने की कोशिश की है कि अब तक इन संस्थानों में सैकुलरिस्टों का बोलबाला था और अब जनादेश के बाद उनकी जगह पर ‘राष्ट्रवादियों’ को लाया जा रहा है, तो उसका विरोध हो रहा है।
अपनी राजनीतिक सहूलियत के हिसाब से वे विरोधी पक्ष को कभी वामपंथी तो कांग्रेसी भी घोषित कर देते हैं। लेकिन, सचाई यह है कि मौजूदा भाजपा राज, आजादी के बाद विभिन्न क्षेत्रों में देश की प्रतिभा के विकास तथा पालन-पोषण के लिए स्थापित, एफटीआइआइ जैसी संस्थाओं की मूल परिकल्पना तथा उनके इथॉस से ही टकरा रहा है।
..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......
इस आलेख की पिछली कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
सृजन तथा प्रतिभा के विकास के जुड़ी ऐसी संस्थाओं के फलने-फूलने के लिए जिस तरह की विचार व दृष्टिï की स्वतंत्रता तथा उदारता और सत्ता से विमुखता प्राणवायु की तरह जरूरी है, वही इन संस्थाओं को ‘‘राष्ट्रवाद’’ की घुट्टी पिलाए जाने के निशाने पर है।
गजेंद्र चौहान की नियुक्ति और उस पर सरकार का अडऩा इसका सबूत है कि इस कोशिश में, इन संस्थाओं की बलि चढ़ाने में भी मौजूदा सरकार को हिचक नहीं होगी। यह संयोग ही नहीं है कि वित्त मंत्री तथा सूचना व प्रसारण मंत्री, एफटीआइआइ के आंदोलनकारी छात्रों के साथ बातचीत में पहले ही इसका इशारा कर चुके हैं कि उनके हिसाब से तो सरकार को इस संस्था से हाथ ही खींच लेना चाहिए।
प्रसंगवश बता दें कि उनका यह विचार खुद उनके यह स्वीकार करने के बावजूद है कि संभवत: गजेंद्र चौहान, उक्त पद के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति नहीं हैं।
एफटीआइआइ की महाभारत में भूमिकाएं बदली हुई हैं। टीवी धारावाहिक के युधिष्ठिर शायद दुर्योधन का हठी पात्र निभा रहे हैं और सरकार धृतराष्ट्र बनी हुई है। पर इस महाभारत का अंत भी सर्वनाश ही होता दिखाई दे रहा है-एफटीआइआइ के सर्वनाश में। क्या दिन-रात संस्कृति की दुहाई देने वाले नये शासक इस सचाई को समझेंगे? वाजपेयी सरकार द्वारा विनोद खन्ना का बिना किसी विवाद के इसी संस्थान का चेयरमैन नियुक्त किया जाना इसका सबूत है कि, नियुक्ति के सरकार के अधिकार का अर्थ इन संस्थाओं के चरित्र को ही बदलने और इस प्रक्रिया में उनकी हत्या ही कर देने का अधिकार हर्गिज नहीं है।
0 राजेंद्र शर्मा


