औपचारिक बनाम सच्चा न्याय
औपचारिक बनाम सच्चा न्याय
निर्दोष मुसलमानों की प्रताड़ना पर शिन्दे का पत्र
राम पुनियानी
केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने दिनाँक 30 सितम्बर 2013 को सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सम्बोधित एक पत्र में लिखा है कि सरकार को लगातार ऐसी शिकायतें प्राप्त हो रही हैं कि विभिन्न जाँच एजेन्सियों द्वारा निर्दोष मुस्लिम युवकों को प्रताड़ित किया जा रहा है। अपने पत्र में शिन्दे ने मुख्यमंत्रियों से अनुरोध किया है कि वे यह सुनिश्चित करें कि किसी भी निर्दोष मुस्लिम युवक को आतंकवादी होने के नाम पर गिरफ्तार न किया जाये और ना ही गैरकानूनी हिरासत में रखा जाये। पत्र में यह सलाह भी दी गयी है कि यदि किसी मुस्लिम युवक के साथ इस तरह का अन्याय होता है तो उसे मुआवजा देने की व्यवस्था की जाये।
हाल के वर्षों में लगभग पूरे विश्व में आतंकवाद ने अपने पैर पसार लिये हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के भंडारों पर कब्जा जमाने की रणनीति के तहत, इस्लाम के कट्टरवादी संस्करणों का इस्तेमाल कर, अलकायदा और उसकी तरह के अन्य आतंकी संगठनों को खड़ा किया गया और ‘काफिर’ और ‘जिहाद’ जैसे शब्दों के अर्थ को तोड़ा-मरोड़ा गया। इस सब से उपजा ‘इस्लामिक आतंकवाद’। इस शब्द को गढ़ने वाले भी निहित स्वार्थी तत्व थे। इस संदर्भ में यह भी कहा जाने लगा कि ‘‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं परन्तु सभी आतंकवादी, मुसलमान हैं’’। यह मिथ्या धारणा न केवल सामूहिक सामाजिक सोच का हिस्सा बन गयी वरन् इसी अवधारणा के आधार पर पुलिस और अन्य आपराधिक जांच एजेन्सियाँ अपनी कार्यवाही करने लगीं।
बिना पर्याप्त जाँच-पड़ताल के, मुस्लिम युवकों की जल्दबाजी में और अकारण गिरफ्तारियाँ करने की पुलिस की प्रवृत्ति के पीछे अन्य कारक भी थे। इस प्रवृत्ति के उभरने के शुरूआती वर्षों में केवल मुट्ठी भर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पुलिस के इस पक्षपातपूर्ण रवैये के खिलाफ आवाज उठाई। कुछ जन न्यायाधिकरणों ने राज्य तंत्र के पूर्वाग्रहग्रस्त व्यवहार के शिकार हुये युवकों की करूण गाथा सुनी। इनमें से अनेक के साथ जो गुजरा, वह बहुत दुःखद था। कई को अपनी पढ़ाई अधबीच में छोड़नी पड़ी। इनमें मेडिकल और इंजीनियरिंग के छात्र भी षामिल थे। ये सभी युवक समाज में व्याप्त साम्प्रदायिकता के जहर से उपजे पूर्वाग्रहों के शिकार बने।
मालेगांव में सन् 2008 में हुये बम धमाकों की जांच करने वाले महाराष्ट्र पुलिस के आतंकवाद निरोधक दस्ते के प्रमुख हेमन्त करकरे इन पूर्वाग्रहों से मुक्त थे। और इसलिये वे असली दोषियों तक पहुँच सके, जिनमें शामिल थीं साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, स्वामी दयानंद पाण्डे, स्वामी असीमानंद और अन्य कई। ये सभी अब जेल में हैं। स्वामी असीमानंद के इकबालिया बयान ने जाँच की दिशा ही पलट दी और उसके बाद पुलिस ने इन हमलों के सिलसिले में कई अन्य लोगों को गिरफ्तार किया।
इस पकड़-धकड़ के बाद देश में आतंकवादी घटनाओं में तेजी से कमी आयी। परन्तु हाल में, अलकायदा की कई शाखाओं ने अपना सिर फिर उठाया है और आतंकी हमलों की एक बार फिर शुरूआत हो गयी है। अगर जाँच एजेन्सियाँ पर्याप्त सतर्कता और सूक्ष्मता से जाँच करें तो वे असली अपराधियों तक पहुँच सकती हैं। परन्तु इसकी जगह, वे मुस्लिम युवकों को जेल में डालकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं। यह कोई नहीं कहता कि एक भी मुस्लिम युवक आतंकी घटनाओं में शामिल नहीं है। बेशक, कई मुस्लिम युवक अलकायदा और उसकी सड़ी, विकृत विचारधारा से प्रेरित होकर आतंकी हमलों में हिस्सा ले रहे हैं। यह एक कैंसर है, जो भारत के साथ पाकिस्तान में भी फैल चुका है।
कुछ बातें बहुत साफ हैं। पहली यह कि आतंकवाद का धर्म से कोई लेना देना नहीं है। अलकायदा की ताकत और उसके प्रभावक्षेत्र में वृद्धि, अमरीकी नीतियों का नतीजा है। अमरीका ने पाकिस्तान में ऐसे मदरसे स्थापित किये जिनमें छोटे बच्चों के दिमागों में जहर भरा गया। यहाँ से तैयार होकर निकले लड़ाके, पूरे दक्षिण एशिया में आतंकवाद फैला रहे हैं। दूसरी ओर, स्वामी असीमानंद और सनातन संस्था की विचारधारा से भी आतंकवादी उपज रहे हैं। इन आतंकवादियों का उद्देश्य है हिन्दू राष्ट्र का निर्माण। सनातन संस्था की वेबसाईट कहती है कि कलयुग में मुसलमान और ईसाई, दानव हैं जिनसे मुकाबला करना जरूरी है। इसलिये मालेगांव से लेकर अजमेर और समझौता एक्सप्रेस से लेकर मक्का मस्जिद तक -विस्फोट ऐसे स्थानों और समय पर किये गये जब वहाँ बड़ी संख्या में मुसलमान इकट्ठा थे। समझौता एक्सप्रेस के अधिकाँश यात्री भी मुसलमान ही होते हैं।
इस प्रकार, हमें आतंकवाद की दो धाराओं से एक साथ निपटना है। एक है अलकायदा की धारा और दूसरी, स्वामी असीमानंद की। ये दोनों ही धाराएं धर्म का लबादा ओढ़े हुये हैं। परन्तु असल में इन्हें धर्म से कोई मतलब नहीं है। वे केवल राजनीति कर रही हैं। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि अगर देश में दो किस्म के आतंकवादी संगठन कार्यरत हैं तब फिर केवल एक ही समुदाय के युवकों को चुनचुन कर क्यों गिरफ्तार किया जा रहा है? इस बारे में सच को दुनिया के सामने लाने के लिये पत्रकार आशीष खेतान ने अपना एक वेबपोर्टल शुरू किया है जिसका नाम है ‘गुलेल’। इस वेबपोर्टल में कई ऐसी घटनाओं का विवरण दिया गया है, जब पुलिस ने पूर्वाग्रहग्रस्त होकर जाँच की और मुसलमान उन पूर्वाग्रहों के शिकार बने। पिछले दिनों लखनऊ में रिहाई मंच का धरना चला। मंच की माँग है कि ऐसे निर्दोष मुस्लिम युवकों को, जिन्हें आतंकी होने के नाम पर गिरफ्तार किया गया है और जिनके खिलाफ कोई सुबूत नहीं हैं, तुरन्त रिहा किया जाये। कुछ मुस्लिम संगठनों ने मालेगांव से मुंबई तक शांति मार्च निकालकर यह माँग की कि मालेगांव धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार मुस्लिम युवकों को तुरन्त रिहा किया जाये। स्वामी असीमानंद का इकबालिया बयान एक वैध कानूनी सुबूत है और उस बयान के बाद, मालेगांव धमाके करने के आरोप में मुस्लिम युवकों को जेल में रखने का कोई औचित्य नहीं बचा है। परन्तु वे युवक अब भी जेल में हैं।
सुशील कुमार शिन्दे के मुख्यमंत्रियों को संबोधित पत्र को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिये। हर चीज को साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखने के अपने रोग के चलते, भाजपा ने इस मुद्दे का भी सांप्रदायिकीकरण कर दिया है और वह कह रही है कि यह सरकार की तुष्टिकरण की नीति का उदाहरण है। भाजपा के अनुसार, इस पत्र को वापस लिया जाना चाहिये क्योंकि इससे देश बँटेगा। भाजपा का यह दृष्टिकोण, हिन्दू राष्ट्र के उसके एजेण्डे के अनुरूप है - उस एजेण्डे के, जो केवल बहुसंख्यक समुदाय के श्रेष्ठीवर्ग का हितरक्षक है। भाजपा यह कभी नहीं समझ सकती कि प्रजातंत्र में भेदभाव के शिकार लोगों को अन्य लोगों के बराबर नहीं रखा जा सकता। सकारात्मक कदमों और राज्य के कमजोर का रक्षक होने की अवधारणा, भाजपा की समझ से बाहर है।
एक ओर भाजपा कहती है कि संविधान के अनुसार सब बराबर हैं। अगर ऐसा है तो दलितों और आदिवासियों की सुरक्षा के लिये अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम व महिलाओं की सुरक्षा के लिये घरेलू हिंसा कानून की क्या जरूरत है? प्रत्येक संवेदनशील, मानवीय प्रजातांत्रिक समाज यह जानता और समझता है कि कमजोर को अतिरिक्त सुरक्षा, अतिरिक्त प्रावधानों की जरूरत होती है ताकि ‘औपचारिक बराबरी’ के पैरों तले उनके अधिकार न रौंद दिए जायें। कोई भी प्रजातांत्रिक समाज, औपचारिक समानता से असली समानता की ओर बढ़ता है। भाजपा इस यात्रा की आवश्यकता और इसके औचित्य को नहीं समझ सकती क्योंकि वह जातिगत और लैगिंक पदानुक्रम के मामले में यथास्थितिवाद की हामी है। वह चाहती है कि समाज में हिन्दू श्रेष्ठी वर्ग की प्रधानता बनी रहे। और इसलिये ऐसे किसी भी कदम, जिसका उद्देश्य निर्बल की रक्षा करना है, उसे समाज को बाँटने वाला प्रतीत होता है।
सच तो यह है कि श्री शिंदे ने यह कदम काफी देरी से उठाया है। उन्हें तो यह पत्र सालों पहले तब लिख देना था जब जन न्यायाधिकरणों, धरनों व जन जाँच समितियों द्वारा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस घोर अन्याय के प्रति देश का ध्यान आकर्षित किया था। पुलिस को इस तरह से प्रशिक्षित किया जाना आवश्यक है ताकि वह धार्मिक अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के प्रति अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हो सके। शिंदे को देश के शीर्ष पुलिस अधिकारियों की बैठक बुलाकर उनसे आतंकवाद की जड़ों पर चर्चा करनी चाहिये। उन्हें समाज के हाशिये पर जी रहे लोगों की दुर्दशा से परिचित करवाना चाहिये और उन्हें विभिन्न जन न्याधिकरणों की रपटें पढ़वाना चाहिये। न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना में पुलिस अधिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, अतः इस नाजुक सामाजिक मुद्दे की सही समझ उनमें विकसित की जाना आवश्यक है। कई भाजपा नेता साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और स्वामी असीमानंद जैसे लोगों के प्रति सहानुभूति रखते हैं। उनमें से कुछ ने प्रधानमंत्री से मिलकर यह अनुरोध किया था कि इन लोगों के साथ नरमी का व्यवहार किया जाये। वाह, क्या पाखंड है! वे बम फोड़ने वाले साधुओं और स्वामियों की रक्षा करना चाहते हैं परन्तु आतंकवाद के नाम पर प्रताड़ित किये जा रहे मुस्लिम युवकों की आह उन्हें सुनाई नहीं देती। यह है साम्प्रदायिकता-जो इस पार्टी का वैचारिक आधार है। (मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)


