फिल्म समीक्षा - पिंक

वीणा भाटिया

बॉलीवुड में कभी-कभी कुछ ऐसी फिल्में जरूर बनती हैं जो लोगों के दिलो-दिमाग को झकझोर देती हैं। ऐसी फिल्मों का आना जो बहस और विमर्श के मुद्दे खड़ी करती हैं, सुखद है।
जाहिर है, यह फिल्म उन लोगों को पसंद नहीं आ सकती जिनके लिए स्त्री के संसार में सिर्फ वर्जना ही है।
स्त्रियों के प्रति समाज का दोहरा मानदंड कोई नई बात नहीं है।
आधुनिक से आधुनिक होने का दावा करने वाला व्यक्ति भी इस पुरुष सत्ता प्रधान समाज में सामंती मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाता। स्त्रियों को आज भी भोग का सामान माना जाता है।
सामंती मानसिकता और संस्कारों के तहत स्त्री को भी यही सिखाया जाता है कि उसकी अपनी कोई इच्छा, अपना कोई संसार नहीं है।
पुरुष चाहे वह पति हो या प्रेमी, उसका अनुसरण करना, उसके पीछे चलना, उसकी आज्ञा का हर हाल में पालन करना ही उसका एकमात्र कर्तव्य है।
जहां तक नैतिकता का सवाल है, तो उनके लिए यह जरूरी है कि वे अपनी इच्छाओं का दबा कर रखें, कभी उन्हें जाहिर नहीं करें।
दरअसल, सामंती संस्कार स्त्री को ऐसी बेड़ियों में जकड़ देते हैं कि वह अपने स्वतंत्र अस्तित्व की कल्पना तक नहीं कर सकती। वहीं, पूंजीवादी संस्कृति में उन्हें खुलापन और स्पेस मिलता है, पर भूलना नहीं होगा कि इस संस्कृति में भी जो मुख्यत: बाज़ार पर आधारित है, उन्हें भोग के सामान के रूप में ही पेश किया जाता है। लेकिन वे इस बात को समझ सकती हैं कि उनका अस्तित्व महज उनकी वर्जिनिटी की रक्षा के लिए ही नहीं है।
फिल्म ‘पिंक’ में इसी बात को बहुत ही ख़ूबसूरत और प्रभावशाली अंदाज़ में सामने रखा गया है, जो बदलते समाज की एक जीवंत तस्वीर के रूप में सामने आता है।
एक बात गौर करने वाली है कि पश्चिम में जहां सामंतवाद की बेड़ियां सबसे पहले टूटीं और स्त्री मुक्ति आन्दोलनों की शुरुआत हुई, वहां वह कहीं ज्यादा मुक्त हो चुकी है। उसकी ‘हां’ हां और ‘ना’ ना में वाकई बदल गई है। वर्जिनिटी को वहां स्त्री की अस्मिता से जोड़ कर नहीं देखा जाता। वह अपने साथी के चुनाव के लिए भी स्वतंत्र है, यद्यपि उसके प्रति अपराध पूरी तरह खत्म हो गए, यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन भारत और इस जैसे देशों में जहां पूंजीवादी क्रान्ति संपन्न नहीं हुई और जहां जनतंत्र भी उपनिवेशवादी प्रभुत्व के विरुद्ध संघर्ष के परिणामस्वरूप विकसित हुआ, सामंती अवशेष बने रह गए।
इसलिए यहां स्त्री की मुक्ति का संघर्ष कहीं ज्यादा कठिन और पेचीदा हो जाता है, इस बात को इस फिल्म को देखते हुए ध्यान में रखना जरूरी है।
बहरहाल, यह फिल्म उन लोगों के मुंह पर कड़ा तमाचा जड़ती है जो लड़कियों के आधुनिक पोशाक पहनने पर सवाल खड़े करते हैं।
अदालत के दृश्य में अमिताभ बच्चन व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि हमें 'सेव गर्ल' नहीं बल्कि 'सेव ब्वॉय' के लिए काम करना चाहिए, क्योंकि जींस पहनी लड़की को देख लड़के उत्तेजित हो जाते हैं और उनके साथ गलत हरकत करना चाहते हैं, तो सुधार की जरूरत लड़कों में है न कि लड़कियों में।

रूढ़िवादी मानसिकता के लोगों का कहना है कि यह फिल्म लड़कियों को गलत संदेश देगी।
जाहिर है, जिसकी जैसी भावना होगी, वह वैसा ही समझ सकेगा।
फिल्म की कहानी दिल्ली-फरीदाबाद की पृष्ठभूमि में है।
भूलना नहीं होगा कि पिछले कुछ वर्षों में इन्हीं शहरों में महिलाओं से बलात्कार, यौन शोषण और हत्या की ज्यादा खबरें आई हैं।
दिल्ली तो पूरे देश में बलात्कार, यौन शोषण और हत्या के लिए बदनाम हो चुकी है। अभी हाल में ही एक घटना समने आई जब प्रेमिका ने लड़के को शादी से मना कर दिया तो उसने दिन-दहाड़े सरेराह उसे चाकू से गोद कर मार डाला और लोग खड़े तमाशा देखते रहे।

फिल्म में तीन लड़कियों की कहानी है जो आत्मनिर्भर हैं और एक साथ रहती हैं।
ये हैं मीनल (तापसी पन्नू), फलक (‍कीर्ति कुल्हारी) और एंड्रिया (एंड्रिया तारियांग)।
एक रात वे सूरजकुंड में रॉक शो के लिए जाती हैं, जहां राजवीर (अंगद बेदी) और उनके साथियों से मुलाकात होती है। मीनल और उसकी सहेलियों का बिंदास अंदाज देख वे सोचते हैं कि इनके साथ कुछ भी किया जा सकता है।
राजवीर बुरे तरीके से मीनल को छूने लगता है और छेड़खानी की हद पार करने लगता है। तब वह उसके सिर पर बोतल मार देती है और अपना बचाव करती है।
राजवीर एक राजनीतिक परिवार से है।
मीनल से बदला लेने के लिए राजबीर और उसके दोस्त पुलिस में शिकायत दर्ज करा देते हैं। वे उसे कॉलगर्ल बताते हैं।
इन लड़कियों को मुसीबत में देख दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) उनकी ओर से केस लड़ने का फैसला करता है।
दीपक सहगल के किरदार के जरिये ही फिल्म में वो विचार रखे गए हैं जो स्त्री मुक्ति का उद्घोष करते प्रतीत होते हैं। ये कहानी में बहुत ही स्वाभाविक ढंग से आते हैं। कहीं से थोपे हुए नहीं लगते। इंटरवल के बाद फिल्म कोर्ट रूम ड्रामा में बदल जाती है। कोर्ट के दृश्यों में ही फिल्म का क्लाइमेक्स सामने आता है। वहां अमिताभ बच्चन लड़की से पूछते हैं कि क्या तुम वर्जिन हो और उसके जवाब में जब वह कहती है कि नहीं, उसने अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ 19 की उम्र में सेक्स किया था तो लोगों को एक शॉक लगता है। यह शॉक बहुत जरूरी रूप में सामने आता है और बहुत ही सांकेतिक है।

फिल्म में अमिताभ बच्चन का अभिनय वाकई कमाल का है।
अन्य अभिनेताओं-अभिनेत्रियों का काम भी बेहतरीन है। तापसी पन्नू ने इस फिल्म से अपनी विशेष पहचान बनाई है। वह अब तक जिन कमर्शियल फिल्मों में आती रही हैं, उससे अलग हट कर उनका काम यहां दिखाई पड़ा है। वह एक इवेंट मैनेजर की भूमिका में हैं जिसे देर रात तक भी काम करना पड़ता है।
फलक (कीर्ति कुलहारी) एक कॉरपोरेट में काम करती है और एंड्रिया (एंड्रया तरियांग) नॉर्थ-ईस्ट की लड़की की भूमिका में है। इन्होंने मॉडर्न वर्किंग वुमन की भूमिका में जबरदस्त प्रभाव छोड़ा है।
फिल्म की खास बात है कि लड़की ना कहती है तो उसका सीधा मतलब ना है।
यह मतलब है कि दूर जाओ और परेशान न करो। वह मॉडर्न ड्रेसेस पहन सकती है, सेक्सुअली एक्सपीरियंस्ड हो सकती है, ड्रिंक कर सकती है, रॉक कॉन्सर्ट पर जा सकती है। उसकी स्वतंत्रता कहीं से कोई बाधित नहीं कर सकता। फिल्म का निर्देशन अनिरुद्ध रॉय चौधरी ने किया है।

अनिरुद्ध अपनी बात कहने में पूरी तरह सफल रहे हैं।

मीनल के किरदार के जरिये अनिरुद्ध ने दिखाया है कि महिलाओं को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
अमिताभ का अंदाज बहुत ही प्रभावशाली है। उन्हें मास्क पहने मॉर्निंग वॉक करते दिखाया गया है।
यह सांकेतिक है जो दिल्ली के प्रदूषण के साथ राजनीतिक प्रदूषण की ओर भी इशारा करता है।
फिल्म में एक किरदार मेघालय में रहने वाली लड़की का है जो बताती है कि उसे आम लड़कियों की तुलना में ज्यादा छेड़छाड़ का शिकार बनना होता है और यह हकीकत भी है।

फिल्म के दो-तीन दृश्यों में तो अमिताभ ने अपने अभिनय से कायल कर दिया है।
खासतौर पर उस सीन में जब वे किसी महिला के 'नो' के बारे में बताते हैं। वे कहते हैं कि नहीं का मतलब 'हां' या 'शायद' न होकर केवल 'नहीं' होता है, चाहे वो अनजान औरत हो या आपकी पत्नी हो। रंगकर्मी, नाटककार, गीतकार पीयूष मिश्रा की भूमिका वकील के रूप में बहुत ही प्रभावशाली है।
फिल्म स्पष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक संदेश देने वाली है। यह यादगार फिल्मों में शामिल की जाएगी।