कन्हैयालाल नंदन मतलब धारा के विरुद्ध उल्टी तैराकी
कन्हैयालाल नंदन मतलब धारा के विरुद्ध उल्टी तैराकी
दयानंद पांडेय
किसी नागवार गुज़रती चीज़ पर/ मेरा तड़प कर चौंक जाना/ उबल कर फट पड़ना/ या दर्द से छ्टपटाना/ कमजोरी नहीं है/ मैं ज़िंदा हूं/ इस का घोषणापत्र है/ लक्षण है इस अक्षय सत्य का कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी/ये चिंगारियां हैं उसी की जो यदा कदा बाहर आती हैं/ और ज़िंदगी अपनी पूरे ज़ोर से अंदर/ धड़क रही है-/ यह सारे संसार को बताती है/ शायद इसी लिए जब दर्द उठता है/ तो मैं शरमाता नहीं, खुल कर रोता हूं/भरपूर चिलाता हूं/ और इस तरह निष्पंदता की मौत से बच कर निकल जाता हूं।
कन्हैयालाल नंदन होना दरअसल धारा के विरुद्ध उल्टी तैराकी करना है. सिस्टम में हो कर भी सिस्टम से लड़ना किसी को सीखना हो तो नंदन जी से सीखे. और वह भी बडे़ सलीके से. अपनी एक कविता में वह सीधे ईश्वर से टकराते मिलते हैं. वह साफ कहते हैं कि, 'लोग तुम्हारे पास प्रार्थना ले कर आते हैं/मैं ऐतराज़ ले कर आ रहा हूं.' इतना ही नहीं वह एक दूसरी कविता में चार कदम और आगे जाते हुए कहते हैं; 'तुमने कहा मारो/और मैं मारने लगा/ तुम चक्र सुदर्शन लिए बैठे ही रहे और मैं हारने लगा/ माना कि तुम मेरे योग और क्षेम का/ भरपूर वहन करोगे/ लेकिन ऐसा परलोक सुधार कर मैं क्या पाऊंगा/ मैं तो तुम्हारे इस बेहूदा संसार में/ हारा हुआ ही कहलाऊंगा/ तुम्हें नहीं मालूम/ कि जब आमने सामने खड़ी कर दी जाती हैं सेनाएं/ तो योग और क्षेम नापने का तराजू/ सिर्फ़ एक होता है/ कि कौन हुआ धराशायी/ और कौन है/ जिसकी पताका ऊपर फहराई/ योग और क्षेम के/ ये पारलौकिक कवच मुझे मत पहनाओ/ अगर हिम्मत है तो खुल कर सामने आओ/ और जैसे हमारी ज़िंदगी दांव पर लगी है/ वैसे ही तुम भी लगाओ.'
सचमुच वह विजेता की ही तरह हम से विदा हुए. सोचिए कि भला कोई डायलिसिस पर भी दस बरस से अधिक समय जी कर दिखा सकता है? नंदन जी ने दिखाया. और वह भी बिना किसी प्रचार के. नहीं लोगों को तो आज ज़रा सी कहीं फुंसी भी होती है, खांसी-जुकाम भी होता है तो समूची दुनिया को बताते फिरते, सहानुभूति और चंदा भी बटोरते फिरते हैं. पर नंदन जी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. करना तो दूर किसी को बताते भी नहीं फिरते थे कि वह डायलिसिस पर चल रहे हैं. अपने कवि मित्र रमानाथ अवस्थी की उस गीत पंक्ति की तरह कि, 'किसी से कुछ कहना क्या/ किसी से कुछ सुनना क्या / अभी तो और जलना है.' वह चलते रहे. और तो और इस डायलिसिस की भयानक यातना में भी वह ज्ञानपीठ के लिए अज्ञेय संचयन पर काम करते रहे. अपनी आत्म-कथा के तीन खंड पूरे किए. और कि तमाम कवियों की प्रतिनिधि कविताओं का संपादन भी. अपनी रूटीन यात्राएं, काम-काज भी.
डाक्टर हैरान थे उन की इस जिजीविषा पर. हालां कि अपनी मौत को साक्षात देख पाना आसान नहीं होता. और नंदन जी देख रहे थे. डाक्टरों की तमाम घोषणाओं को तो वह भले धता बता रहे थे लेकिन लिख भी रहे थे, 'बांची तो थी मैं ने/ खंडहरों में लिखी इबारत/ लेकिन मुमकिन कहां था उतना/ उस वक्त ज्यों का त्यों याद रख पाना /और अब लगता है/ कि बच नहीं सकता मेरा भी इतिहास बन पाना/ बांचा तो जाऊंगा/ लेकिन जी नहीं पाऊंगा.' नंदन जी की यह यातना कि 'बांचा तो जाऊंगा/ लेकिन जी नहीं पाऊंगा' को बांचना भी कितना यातनादायक है तो वह तो इस यातना को जी ही रहे थे, सोच कर मन हिल जाता है. नंदन जी यह कोई पहली बार यातना नहीं बांच रहे थे. यातना-शिविर तो उन के जीवन में लगातार लगे रहे. लोगबाग बाहर से उन्हें देखते थे तो पाते थे कि वह कितने तो सफल हैं. उन की विदेश यात्राएं. उन का पद्मश्री पाना, बरसों-बरस संपादक बने रहना सफलता के ही तो सारे मानक थे. और क्या चाहिए था. तिस पर कवि सम्मेलनों में भी वह हमेशा छाए रहते थे. बतौर कवि भी और बतौर संचालक भी. उन का संचालन बरबस लोगों को मोह लेता था.
एक पत्रकार मित्र हैं जिन का कविता से कोई सरोकार दूर-दूर तक नहीं है, एक बार नंदन जी को सुनने के बाद बोले, 'पद्य के नाम पर यह आदमी खड़ा-खड़ा गद्य पढ़ जाता है, पर फिर भी अच्छा लगता है.' तो सचमुच जो लोग नंदन जी को नहीं भी पसंद करते थे वह भी उन का विरोध कम से कम खुल कर तो नहीं ही करते थे. वह फ़तेहपुर में जन्मे, कानपुर और इलाहाबाद में रह कर पढे़, मुंबई में पढ़ाए और धर्मयुग की नौकरी किए, फिर लंबा समय दिल्ली में रहे और वहीं से महाप्रयाण भी किया. पर सच यह है कि उन का दिल तो हरदम कानपुर में धड़कता था. हालां कि वह मानते थे कि दिल्ली उन के लिए बहुत भाग्यशाली रही. सब कुछ उन्हें दिल्ली में ही मिला. खास कर सुकून और सम्मान. ऐसा कुछ अपनी आत्मकथा में भी उन्हों ने लिखा है. पर बावजूद इस सब के दिल तो उन का कानपुर में ही धड़कता था. तिस में भी कानपुर का कलक्टरगंज. वह जब-तब उच्चारते ही रहते थे, 'झाडे़ रहो कलक्टरगंज!' या फिर, 'कलेक्टरगंज जीत लिया.'
बहुत कम लोग जानते हैं कि नंदन जी ने प्रेम विवाह किया था. वह भी अंतरजातीय. न सिर्फ़ अंतरजातीय बल्कि एक विधवा से. कन्हैयालाल नंदन असल में कन्हैयालाल तिवारी हैं. अब सोचिए कि अपने उम्र के जिस मोड़ पर नंदन जी ने यह प्रेम विवाह किया, पिछड़ी जाति की विधवा महिला से उस समय कितनी चुनौतियों से उन्हें दो-चार होना पड़ा होगा? एक ऊच्च कुल का ब्राह्मण और वह भी पिछड़ी जाति की विधवा महिला से विवाह करे, सो भी अपने गांव में ही, विरोध की पराकाष्ठा न झेलेगा तो क्या फूल बरसेगा उस के ऊपर? आज भी यही हालात हैं. पर नंदन जी ने तब के समय में यह किया. और न सिर्फ़ किया बल्कि डंके की चोट पर किया. हां, इस को भुनाते-बताते नहीं फिरे यह सब. सब कुछ भुगत लिया पर उफ़्फ़ नहीं किया. भगवान ने उन को जाने कितना धैर्य दे रखा था.
वह तो जब वह दिनमान-सारिका-पराग क्या दस दरियागंज के संपादक थे तब के दिनों की बात है. वह बार-बार भाग-भाग कानपुर जाते रहते थे. हफ़्ते में दो-दो बार. अंतत: सहयोगियों ने पूछा कि, 'आखिर बात क्या है?' तो नंदन जी के चेहरे पर संकोच और पीड़ा एक साथ उभर आई. बोले, 'असल में पिता जी बहुत बीमार हैं. उन का इलाज चल रहा है.' तो माहेश्वर्रदयालु गंगवार ने छूटते ही कहा, 'तो पिता जी को दिल्ली ले आइए. यहां ज़्यादा बेहतर इलाज हो सकेगा. और कि आप को भाग-भाग कर कानपुर नहीं जाना पडेगा.' वहां उपस्थित सभी ने गंगवार जी के स्वर में स्वर मिलाया. 'अरे कहां कि बात कर रहे हैं आप लोग?' नंदन जी धीरे से भींगे स्वर में बोले, 'कैसे लाऊ? मेरे हाथ का पानी तक तो वह पीते नहीं.' कह कर वह सर्र से अपनी केबिन में चले गए. फिर बाद में उन्हों ने बताया कि इस वज़ह से पिता उन के हाथ का पानी नहीं पीते. आज जब नंदन जी की याद आती है तो उन का वह कहा भी याद आता है, 'अरे कहां कि बात कर रहे हैं आप लोग?' ऐसे जैसे वह कोई तमाचा मार रहे हों अपने आप को ही. फिर उन्हीं की एक कविता याद आ जाती है;
अंगारे को तुम ने छुआ
और हाथ में फफोला भी नहीं हुआ
इतनी सी बात पर
अंगारे पर तो तोहमत मत लगाओ
ज़रा तह तक जाओ
आग भी कभी-कभी आपद धर्म निभाती है
और जलने वाले की क्षमता देख कर जलाती है
सचमुच नंदन जी की क्षमता ज़बर्दस्त थी. हाथ में जो जल कर फफोला पड़ भी जाए तो वह किसी को बताने वाले जल्दी नहीं थे. हां, यह ज़रूर था कि अगर किसी और के हाथ में फफोला पड़ जाए तो वह उसे सुखाने में ज़रूर लग जाते थे. युवाओं पर हमेशा मेहरबान रहते. मैं खुद जब उन से मिला तो युवा क्या बिलकुल लड़का ही था. बल्कि पहली बार जब उन से चिट्ठी-पत्री हुई तब तो मैं बी.ए. का छात्र ही था. गोरखपुर में. यह 1978 की बात है. गोरखपुर में प्रेमचंद ने लंबा समय गुज़ारा है. वह वहां विद्यार्थी भी थे और नौकरी भी किए. बल्कि वहीं बाले मियां के मैदान में गांधी जी का भाषण सुन कर शिक्षा विभाग के डिप्टी डायरेक्टर की नौकरी छोड़ दी. अंगरेजों के खिलाफ लड़ाई में कूद गए. दरअसल उसी गोरखपुर में प्रेमचंद ने जीवन के न सिर्फ़ कई रंग देखे, कई स्वाद चखे बल्कि कई रचनाएं भी रचीं. ईदगाह, पंच परमेश्वर से लगायत रंगभूमि तक की रचना की. अगर चीनी-रोटी खाने के लिए वह तरसे तो इसी गोरखपुर में, अफ़सरी भी की उन्हों ने इसी गोरखपुर में और नौकरी छोड़ कर खादी के लट्ठर कंधे पर लाद कर वह बेंचते भी फिरे इसी गोरखपुर में. लेकिन उन की याद में बने प्रेमचंद पार्क की बदहाली, उन की मूर्ति की फज़ीहत और कुल मिला कर प्रेमचंद की उपेक्षा को ले कर एक छोटी सी टिप्प्णी भेजी थी, तब सारिका को.
नंदन जी तब इस के संपादक थे. भेजते ही पहले उन का टेलीग्राम आया फिर चिट्ठी. वह वहां प्रेमचंद से जुड़ी फोटो भी चाहते थे. फोटो किसी तरह खिंचवा कर भेजी. किसी तरह इस लिए कि मेरे पास फ़ोटोग्राफ़र को एडवांस देने के लिए पैसे नहीं थे. और कोई फ़ोटोग्राफ़र बिना पैसे लिए फ़ोटो खींचने को तैयार नहीं था. सब कहते स्टूडेंट का क्या भरोसा? और मैग्ज़ीन से बाद में पैसा आए न आए? पिता से पैसे मांगने कि हिम्मत नहीं थी.खैर, किसी तरह एक फ़ोटोग्राफ़र, एक सज्जन की ज़मानत पर तैयार हुआ. भेज दी फ़ोटो. जुलाई में प्रेमचंद जयंती पर रिपोर्ट भेजी थी, अगस्त में फ़ोटो भेजी. अक्टूबर में मय फ़ोटो के रिपोर्ट छप गई. प्रेमचंद की मूर्ति की बगल में खडे़ हो कर मैं ने अपनी भी एक फ़ोटो खिचवाई थी.वह भी छप गई. शीर्षक छपा था जहां प्रेमचंद ने रंगभूमि की रचना की. मुझे यह सब कुछ इतना अच्छा लगा कि सारिका का वह पेज जिस में मेरी फ़ोटो भी छपी थी प्रेमचंद की मूर्ति के साथ, शीशे में फ़्रेम कर के घर की कच्ची दीवार पर टांग दिया.
एक बार रामेश्वर पांडेय घर पर आए. जाडे़ की रात थी. शायद दिसंबर का महीना था. लालटेन की रोशनी में भी उन्हों ने वह चित्र देख लिया. बड़ी देर तक देखते रहे. मैं ने पूछा क्या देख रहे हैं.इतनी देर तक? वह बोले, ' यह सारिका में छपी फ़ोटो.' वह ज़रा रूके और धीरे से बोले, ' बस एक गड़बड़ हो गई सारिका वालों से.' मैं ने पूछा, 'वह क्या?' वह बड़ा सा मुंह बनाते हुए बोले, 'शीर्षक गलत लग गया है.' उन्हों ने फ़ोटो पर फिर एक भरपूर नज़र डाली और बोले, ' शीर्षक होना चाहिए था कि जहां दयानंद पांडेय ने प्रेमचंद की खोज की.' मैं चुप रहा. क्या बोलता इस के बाद भला?पर समझ गया कि रामेश्वर तब क्या कहना चाहते हैं? मैं उन दिनों पढ़ता तो था ही. कविताएं भी लिखता था. रामेश्वर पांडेय भी तब कविता लिखते थे. वही मित्रता थी. हालां कि मेरे गांव में उन के गांव की एक रिश्तेदारी भी है. इस नाते मैं उन्हें फूफा कह कर चिढ़ाता भी खूब था. और वह चिढ़ते भी तब भरपूर थे. उन दिनों वह एक गीत पढ़ते थे, हम ने तो सिर्फ़ अंधेरे और रोशनी की बात की/ और हमें सज़ा मिली हवालात की.' और खूब वाहवाही लूटते थे. शायद उसी का नशा था या क्या था पता नहीं. पर दूसरे दिन रामेश्वर के जाने के बाद मैं ने वह चित्र दीवार पर से उतार कर किताबों में छुपा दिया. पर शाम को मेरे एक चचेरे बडे़ भाई ने उसे यह कहते हुए दीवार पर फिर से लगा दिया कि, 'उस लड़के की बात पर मत जाओ. वह तुम्हारी फ़ोटो छपने से जल गया है.'
खैर बात आई गई हो गई. बाद में डाक्टर कमल किशोर गोयनका की चिट्ठी पर चिट्ठी आने लगी. वह उन दिनों प्रेमचंद विश्वकोश पर काम कर रहे थे. वह प्रेमचंद के बारे में गोरखपुर से जुडी बातें जानना चाहते थे. लंबी-लंबी चिट्ठियों कई-कई सवाल होते. और हर बार वह एक सवाल ज़रूर पूछते कि आप क्या करते हैं? मैं हर बार इस सवाल को पी जाता था. अंतत: उन्हों ने लिखा कि दिल्ली विश्वविद्यालय के फला कालेज में 14 सालों से मैं हिंदी पढ़ाता हूं, आप क्या करते हैं? मैं ने जवाब में थोड़ी बेवकूफी बघार दी, खिलंदडी कर दी और लिखा कि आप 14 सालों से हिंदी पढ़ाते हैं और मुझे अभी १४ साल पढ़ते हुए भी नहीं हुआ. बात आई गई हो गई. पर उन की चिट्ठियां फिर भी आती रहीं. पर एक बार क्या हुआ कि मैं पिता जी के साथ दिल्ली घूमने गया. तो बहुत सारे लेखकों से भी मिला. जैनेंद्र कुमार, विष्णु प्रभाकर से लगायत श्रीकांत वर्मा तक. कमल किशोर गोयनका से भी मिला. अद्भुत व्यक्ति थे वह. मेरी हर चिट्ठी उन्हों ने बहुत संभाल कर न सिर्फ़ रखी थी बल्कि फाइल बना रखी थी. ला कर वह सारी चिट्ठी पिता जी को दिखाने लगे. मेरा यह लिखना उन को बहुत बुरा लगा था कि आप 14 साल से हिंदी पढ़ा रहे हैं और मुझे अभी 14 साल पढ़ते हुए भी नहीं हुआ. पिता जी को उन्हों ने यह भी दिखाया. अब मुझे काटो तो खून नहीं. पिता जी ने मुझे बस पीटा भर नहीं, बाकी मेरे सारे करम हो गए. बाद में यह बात गोयनका जी ने नंदन जी को भी बताई. आखिर अध्यापक थे वह और किसी विद्यार्थी को बिगड़ते हुए वह देखना नहीं चाहते थे.
हुआ यह कि जब मैं दिल्ली बाकायदा रहने लगा था, नौकरी करने लगा था सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में, तब की बात है. सर्वोत्तम में लिखने की कुछ गुंजाइश तो होती नहीं थी तो मैं पत्रिकाओं के दफ़्तर के चक्कर मारा करता था. साप्ताहिक हिंदुस्तान से लगायत दिनमान तक. नंदन जी की वैसे भी मुझ पर विशेष कृपा रहती थी. नंदन जी ने मुझ से क्या - क्या नहीं लिखवाया. आज सोचता हूं तो अपने आप से भी रश्क हो आता है. सोचिए कि उस नादान उम्र में भी नंदन जी ने मुझ से चौधरी चरण सिंह के बागपत चुनाव क्षेत्र का बागपत भेज कर कवरेज करवाया बल्कि चरण सिंह का इंटरव्यू भी करवाया और खूब फैला कर छापा भी. उन दिनों क्या था कि नंदन जी एक साथ सारिका, पराग और दिनमान तीनों पत्रिकाओं के संपादक थे. और हर महीने इन में से किसी एक पत्रिका में क्या कई बार तो दो-दो में मैं छपता ही छपता था. आप कह सकते हैं कि मुझे तब छपास की बीमारी ने घेर रखा था. नंदन जी इन तीन पत्रिकाओं के तो संपादक थे ही बाद में निकली वामा और खेल भारती में भी वह पूरा हस्तक्षेप रखते थे. सो लोग उन्हें 10 दरियागंज का संपादक कहने लगे थे. उन की तूती बोलती थी उन दिनों. उन से मिलना उन दिनों बहुत दूभर था. एक तो वह बिल्कुल एरिस्टोक्रेटिक स्टाइल से रहते थे. दूसरे दफ़्तर आते ही कहीं जाने की तैयारी में होते थे. उन के पीए नेगी जी सब कुछ कैसे संभालते थे, देखते बनता था.
काम में नंदन जी हर किसी पर विश्वास करते थे. एक संपादक का सहयोगियों पर कैसे भरोसा होना चाहिए यह नंदन जी से सीखा जा सकता था. खास कर इस लिए भी कि वह जिस संपादक के साथ काम कर के आए थे धर्मयुग से, उस के संपादक धर्मवीर भारती थे तो विद्वान और सफल संपादक. पर परम अविश्वासी. इस बात की चुगली एक नहीं अनेक लोग कर गए हैं. और नंदन जी ने यह पीड़ा अपनी आत्म-कथा में बार-बार पिरोई है. नंदन जी ने हालां कि थोड़ी मुलायमियत बरती है पर रवींद्र कालिया ने गालिब छुटी शराब में नंदन जी की पीड़ा को जो स्वर दिया है, भारती जी द्वारा उन्हें सताए जाने का जो तल्ख व्यौरा परोसा है, वह भारती जी के लिए खीझ ही उपजाता है. ऐसे ही रघुवीर सहाय जब दिनमान के संपादक थे तो वह भले लोहियावादी थे, पर व्यवहार अपने सहयोगियों के साथ उन का घोर सामंती था. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसों तक से वह पूरी अभद्रता से पेश आते थे. बाकियों की तो बिसात ही क्या थी. तो ऐसे में नंदन जी का सहयोगियों से संजीदगी से पेश आना, उन पर विश्वास करना सब को भा जाता. लोग अपनी पूरी क्षमता से काम करते.
खैर हुआ यह कि नेशनल स्कूल आफ़ ड्रामा पर एक विशेष रिपोर्ट लिखने के लिए नंदन जी ने मुझ से कहा. उन दिनों वहां भारी अराजकता फैली हुई थी. लड़के आत्महत्या करने लगे थे. डा. लक्ष्मीमल सिंधवी जो सुप्रीम कोर्ट के तब बडे़ वकीलों में शुमार थे. नेशनल स्कूल आफ़ ड्रामा के ट्रस्टी भी थे. उन से फ़ोन कर बात करने के लिए मिलने का समय मांगा. बड़ी मुश्किल से वह तैयार हुए. दस मिनट का समय दिया. पर जब साऊथ एक्स्टेंसन वाले उन के घर पहुंचा, बात शुरू हुई तो आधा घंटा लग गया. बाद में उन्हों ने नंदन जी से शिकायत करते हुए कहा कि बिल भेज दूं क्या? तुम्हारे उस बालक ने दस मिनट का समय मांग कर आधा घंटा का समय ले लिया. नंदन जी ने मुझे यह बात बताई औ


