कब्रिस्तान चुनें या फिर श्मशानघाट! कमसकम इस बंटवारे के बाद यूपी के चुनाव नतीजों का इंतजार अब मत करें
कब्रिस्तान चुनें या फिर श्मशानघाट! कमसकम इस बंटवारे के बाद यूपी के चुनाव नतीजों का इंतजार अब मत करें
पलाश विश्वास
किसी गांव को कितने कब्रिस्तान या कितने श्मशानघाट चाहिए, अब यह सवाल फिजूल है। दोनों बराबर हैं। कब्रिस्तान बनना है तो श्मसानघाट बनाना जरूरी है और श्मशानघाट बनाने के लिए कब्रिस्तान जरूर बनना चाहिए।
रामराज्य में समरसता की यह अजब गजब समता अब फासिज्म का राजकाज है। फसल जनादेश है। यही लोकतंत्र का अजब गजब सच भी है।
मुक्तबाजारी विकास का व्याकरण भी यही है। सुनहले दिनों का यही चेहरा है।
कहां तो छप्पन इंच का सीना तना हुआ था कि नोटबंदी पर जनादेश होगा और कहां बातें चलीं तो हम या तो श्मशानघाट में हैं या फिर कब्रिस्तान में।
अंतिम संस्कार का फंडा भी यही है कि ज़िंदगी के इस लोक में जिसे कुछ न दिया हो, उसे परलोक में अमन चैन से बसने या उनकी उत्पीड़ित वंचित आत्मा की मुक्ति के लिए कर्म कांड के मार्फत अपनी अपनी आस्था के मुताबिक चाक चौबंद इंतजाम कर दिया जाये। समाज इसका इंतजाम खुद करता है। समुदाय की आस्था तय करती है कि अंतिम संस्कार की जगह कैसी हो। परिजन और पुरोहित कास्टिंग में होते हैं।
जाहिर है कि श्मसानघाट या कब्रिस्तान बेहद जरूरी हैं लेकिन मुश्किल यह है कि बिना जरूरत इन्हें इफरात में जहां-तहां बना देने का लोक रिवाज नहीं है। बल्कि मौत से जुड़े होने के कारण रिहायशी इलाकों में ऐसे स्थान घाट बनाने से लोग परहेज करते हैं।
बनारस में घाट बहुत देखे हैं, श्मशानघाट कितने हैं, गिने नहीं हैं।
अब श्मशानघाटों पर ही क्वोटो स्मार्ट शहर तामीर होना है, जाहिर है।
बाकी तरक्की की आलीशान इमारतें, न जाने कितने ताजमहल इन्हीं कब्रिस्तानों में या श्मशान घाटों में तामीर होंगे और न जाने कितने करोड़ लोगों के हाथ काट दिये जायेंगे। ये ही हमारे सुपरमाल हैं, स्मार्ट शहर हैं और विकसित गांवों की तस्वीर भी यही।
यह सिलसिला जारी रहना चाहिए, ताकि हम सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भुखमरी , बेरोजगारी और मंदी के बावजूद, उत्पादन प्रणाली तहस नहस हो जाने के बावजूद बन सकें और देश कैशलेस डिजिटल नोटबंदी के बाद बनाया जा सके।
जिन्हें जल जंगल जमीन की फिक्र जरूरत से ज्यादा है और जो बेइंतहा बेदखली के खिलाफ लामबंद हैं, वे भी समझ लें कि कहां कहां कैसे कैसे ऐसे श्मसानघाट और कब्रिस्तान बनाये जाने वाले हैं। हुक्मरान की मर्जी, मिजाज और इरादा समझ लें।
यह न कविता है और न पहेली। कविता लिखना छोड़ दिया है और पहेली हम बनाते नहीं हैं।
बहरहाल हालात कविता की तरह रोमांचक हैं तो पहेली की तरह अनगिनत भूलभूलैया का सैलाब। जी, हां यह मजहबी सियासत का तिलिस्म है जो कारपोरेट भी है और मुक्तबाजारी भी। व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र अबाध पूंजी के।
अब डंके की चोट पर बाबुलंद ऐलान हो गया कि हमारे तमाम गांवों में श्मशान घाट और कब्रिस्तान बराबर बनेंगे। स्कूल, कालेज, अस्पताल जैसी चीजों में बराबरी की बात चूंकि हो नहीं सकती, हक हकूक में बराबरी चूंकि हो नहीं सकती, मौकों में बराबरी चूंकि हो नहीं सकती, सर्वत्र नस्ली भेदभाव है तो जाति धर्म नस्ल में बंटे समाज के हिस्से में समता का यह नजारा कब्रिस्तान के मुकाबले श्मशानघाट बनता ही है।
मजहबी सियासत से अब कब्रिस्तान या श्मशान घाट के अलावा कुछ नहीं मिलने वाला है। सारे चुनावी समीकरण और जनादेश का कुल नतीजा यही है, जिसका पहले ही ईमानदार हुक्मरान ने सरेआम ऐलान कर दिया है।
उन्हें धन्यवाद या शुक्रिया अपने अपने मजहब से कह दीजिये और कमसकम इस बंटवारे के बाद यूपी के चुनाव नतीजों का इंतजार अब मत कीजिये।
जाहिर सी बात है कि संवैधानिक पद से जब कब्रिस्तान के बदले श्मशानघाट बनाकर गांवों के विकास का खुल्ला ऐलान चुनाव का मुद्दा हो जाये, जब बहस गधे के विज्ञापन पर हो, तब वोटर चाहे जो फैसला करें आगे बेड़ा गर्क है।
गधे फिर भी बेहतर हैं।
उनकी आस्था हिंसा नहीं है।
वे उत्पीड़ित वंचित शोषित हैं और आम जनता के मुकाबले उनका स्टेटस कुछ भी बेहतर नहीं है। लेकिन गधे का कोई मजहब नहीं होता और न गधे मजहब के नाम बंटे होते हैं।
न गधों की संस्कृति वैदिकी हिंसा है और न गधों को अंतिम संस्कार के लिए किसी कब्रिस्तान या श्मशानघाट जाने की जरूरत है और न इस दुनिया में कहीं किसी कत्ल या कत्लेआम में गधों का कोई हाथ है।
जाहिर है कि गधे हमेशा प्रजाजन हैं, हुक्मरान नहीं जो पूरे मुल्क को या कब्रिस्तान या फिर श्मसानघाट बनाकर रख दें।
कृपया गौर करें, हम पिछले 26 सालों से रोज इन्हीं कब्रिस्तानों और श्माशान घाटों के बारे में लिखते बोलते रहे हैं, किसी की समझ में बात नहीं आयी। अब कमसकम वे कब्रिस्तान और श्मशान घाट के हकीकत पर बहस हो रही है।
अब भी असलियत जो समझ न सकें, वे चाहे जिसे वोट दें, या न दें, इससे देश में कुछ भी बदलने वाला नहीं है। उनका भी मालिक राम है। रामभरोसे पूरा देश है।
जनगणमण बनाम वंदेमातरम् बहस फिजूल है।
राष्ट्रगान गीत दोनों अब राम की सौगंध है। भव्य राम मंदिर वहीं बनायेंगे।
बहरहल भारत में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे 11 मार्च को आने वाले हैं। 2014 में भी एक नतीजा आया था। नतीजों के असर पर बहस का कोई मतलब नहीं है। चुनावी समीकरण से सत्ता का फैसला आने वाला है, वह चाहे जो हो उन राज्यों का या देश का किस्मत बदलने वाला नहीं है।
उम्मीदें बहुत हैं सुनहले दिन भगवा जमीन पर बरसने के और बिन मानसून बादल भी खूब उमड़ घुमड़ रहे हैं।
बादल बरसे या न बरसे, हालात या कब्रिस्तान है या फिर श्मशानघाट।
उत्पादन केंद्रों में, खेतों में, कल कारखानों में, दफ्तरों में खेतों खलिहानों से लेकर बाजारों में, गांवों, जनपदों से लेकर महानगरों तक हम दसों दिशाओं से कब्रिस्तान से घिरे हुए हैं और आगे और और कब्रिस्तान और श्मसानघाट बनाने का वादा है।
हुजुर, इस ऐलान से घबराने या भड़कने की कोई जरूरत नहीं है।
हो सकें तो जमीन पर सीधे खड़े होकर हवाओं की खुशबू को पहचानें और जमीन के भीतर हो रही हलचलों को समझकर, मौसम, जलवायु और तापमान को परख कर आने वाली आपदाओं के मुकाबले तैयार हो जायें।
राजनीतिक रुप से सही होने पर हालात बेकाबू है और यही सच का सुनामी चेहरा है। अब पहले कौन मारे जायेंगे, अपनी अपनी मौत देर तक टालने की लड़ाई है और कुरुक्षेत्र में सत्ता विमर्श और युद्ध पारिस्थितकी यही है। हर किसी के लिए चक्रब्यूह है।
क्योंकि अब हमारे पास विकल्प सिर्फ दो हैं या कब्रिस्तान या फिर श्मशानघाट।
क्योंकि अब हमारे पास तीसरा कोई विकल्प नहीं बचा है।
यह मुक्तबाजार का सच जितना है, उसे बड़ा सच मजहबी सियासत का है।
सबसे बड़ा सच हमारे लोकतंत्र और हमारी आजादी का है कि हुक्मरान हमें श्मसानघाट और कब्रिस्तान के अलावा कुछ भी देने वाले नहीं हैं। जो सुनहले दिन आने वाले हैं, वे दरअसल इन्ही श्मशानघाट या कब्रिस्तान के सुनहले दिन हैं।
यूपी के कुरुक्षेत्र में तीसरे चरण के मतदान में कुल इकसठ फीसद वोट पड़े हैं। कहीं कहीं ज्यादा भी वोट गेरे गये हैं। जिनने वोट नहीं दिये , कुल उससे बी कम वोट पाकर सरकारें खूब बन सकती हैं और चल दौड़ भी सकती हैं। फासिज्म के राजकाज का यही रसायन शास्त्र, जैविकी और भौतिकी विज्ञान है।
अमेरिका में तो महज 19.5 फीसद जनता के वोट से ग्लोबल हिंदुत्व के नये ईश्वर का अाविर्भाव हुआ है। जबकि उनके खिलाफ वोट 19.8 फीसद है।
सारी विश्वव्यवस्था बदल गयी है।
उपनिवेश में सत्ता बदल जाने से कयामत का यह मंजर बदलने वाला नहीं है।
अब हालात यह है कि अमेरिका के राष्ट्रपति स्वीडन में आतंकवादी हमला करा रहे हैं। यह अमेरिका का पहला झूठ भी नहीं है।
खुल्ला सफेद झूठ कहने के लिए मीडिया से दुश्मनी तकनीकी तौर पर गलत है। सारे के सारे अमेरिकी राष्ट्रपति झूठ पर झूठ बोलते रहे हैं।
दुनियाभर में युद्ध, गृहयुद्ध, विश्वयुद्ध में उन्हीं के हित दुनिया के हित बताये जाते हैं। ईरान इराक अफगानिस्तान लीबिया मिस्र से लेकर सीरिया तक तमाम ताजे किस्से हैं। हम दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में अमेरिकी सैन्यशक्ति के शिकंजे में हैं और अमेरिकी हित भारत के सुनहले दिन बताये जा रहे हैं। साधु। साधु।
नया यह हुआ है कि अमेरिकी मीडिया अमेरिकी राष्ट्रपति के खिलाफ हो गया है।
फर्क भारत और अमेरिका में बस इतना ही है कि भारत का मीडिया जनता के खिलाफ हो गया है और उसका सच हुक्मरान का सच है।
जम्हूरियत के जश्न में या तो हुक्मरान बोल रहे हैं या मीडिया बोल रहा है, आम जनता की कोई आवाज नहीं है।
गूंगी बहरी जनता को बदलाव के ख्वाब देखने नहीं चाहिए और वह देख भी नहीं रही है। इसीलिए हत्यारों के सामने खुला आखेट है और चांदमारी जारी है।
इसीलिए विकल्प या कब्रिस्तान है या फिर श्मसानघाट।
अब आप ही तय करें कि आपका विकल्प क्या है।
रांची से ग्लैडसन डुंगडुंग का अपडेट हैः
झारखंड का गुमला जिला जहां आदिवासियों के जमीन लूट के खिलाफ ‘जान देंगे, जमीन नहीं देंगे’ जैसे नारा की उत्पत्ति हुई, आज इस जिले के आदिवासियों ने एक बार फिर से प्राकृतिक संसाधनों के कॉरपोरेट लूट के खिलाफ जंग छेड़ दिया है। अब वे नारा दे रहे हैं... आदिवासियों को धर्म के नामपर बांटना बंद करो... हम सब एक हैं... जल, जंगल, जमीन हमारा है...रघुवर दास छत्तीसगढ़ वापस जाओ... आदिवासी विधायक स्तीफा दो... 16-17 फरवरी 2017 को भारत सरकार, झारखंड सरकार और कॉरपोरेट जगत के लोग रांची में झारखंड की जमीन, खनिज, जंगल, पहाड़ और पानी का विकास के नाम पर सौदा कर रहे थे उसी समय गुमला में प्राकृतिक संसाधनों के इस कॉरपोरेट लूट के खिलाफ हजारों आदिवासी लोग आपनी आवाज बुलंद कर रहे थे। एक बात तो तय है कि ये आग जो झारखण्ड में लगी है और झारखण्ड सरकार उसमें बार-बार घी डाल रही है, ये आग बुझेगी नही-
हिमांशु कुमार ने लिखा हैः
समाज के अन्याय के मामलों में कानून का बहाना बनाने वालों को ये भी स्वीकार कर लेना चाहिये कि जनरल डायर का गोली चलाना कानूनी था,
भगत सिंह की फांसी भी कानूनी थी,
सुक़रात को ज़हर पिलाना कानूनी था,
जीसस की सूली की सज़ा कानूनी थी,
गैलीलियो की सज़ा कानूनी थी,
भारत का आपातकाल कानूनी था,
गरीबों की झोपडियों पर बुलडोजर चलाना कानूनी है,
पूरी मज़दूरी के लिये मज़दूरों की हड़ताल गैरकानूनी है,
अंग्रेज़ी राज का विरोध गैरकानूनी था,
सुकरात का सच बोलना गैरकानूनी था,
यह बिल्कुल साफ है कि कानून और गैरकानूनी तो ताकत से निर्धारित होते हैं,
आज आपके पास ताकत है इसलिये हमारा इन्साफ मांगना भी गैर कानूनी है,
कल जब हमारे हाथ में ताकत होगी तब ये आदिवासियों की ज़मीनों की लूट, मुनाफाखोरी और अमीरी गैरकानूनी मानी जायेगी,


