कभी खुद पर , कभी हालात पर रोना आया
कभी खुद पर , कभी हालात पर रोना आया
जुगनू शारदेय
क्या जमाना हुआ करता था । तब आमने सामने खुले आम जम कर बात हो जाती थी । जमाना पुराना था , अंदाज भी पुराना बातचीत में कुछ गालीगलौज भी हो जाती थी । अब तो ऐसा जमाना आया है कि बातचीत भी सरल मोबाइल संदेश हो गए हैं ।
हमारे बचपन में हमें दो अवादी शब्दों से पाला पड़ा था कि इनका इस्तेमाल वर्जित है या निषेध है । हम कभी अवादी शब्दों का मतलब नहीं समझ पाए ,
नतीजतन जिंदगी में तो यह साली जिंदगी ही बनी रही । अब जरा बता दें आपको अवादी शब्द – अश्लील और अपशब्द ।
कसम कंप्यूटर मइया की हम आज तक न जान पाए कि अश्लील क्या है और अपशब्द क्या है । उस समय क्या होता था कि हम लिखते थे कि औरत गर्भवती हो गई है । छपा होता था कि महिला मां बन गई है । हमारे वक्त में बलात्कार नहीं होता था । बलात्कार करने का प्रिय विषय संविधान होता था। लोकतंत्र भी होता था । इन पर बलात्कार होते रहते थे । किसी ने संविधान या लोकतंत्र की इज्जत नहीं लूटी । बाद में पता चला कि इनके पास इज्जत है ही नहीं । और जब है ही नहीं तो लुटोगे किसका । सच पूछिए अब इज्जत किसके पास है इस पर अनंत आयोग बनना चाहिए ।
लेकिन एक बात तो सच है कि इज्जत सिर्फ सरकारों के पास है । यहां सरकार का मतलब काम की न काज की ढाई सेर अनाज वाली चरणपादुका सरकार नहीं है । अब तो पंचायत और उसका बच्चा खाप की भी सरकार होती है । इन सरकारों की इज्जत अलग अलग वजह से लूटती रहती है । न भी लूटती है तो हम लुटवाए देते हैं । न जाने कितनी खाप सरकार ने कितनों को इज्जत बचाने के लिए स्वर्ग लोक के स्लम का नागरिक बना दिया है ।
अब छत्तीसगढ़ सरकार को ही ले लीजिए । डॉक्टर विनायक सेन के कारण मान कर चलती है कि छत्तीसगढ़ की इज्जत लूटी लूटी रहती है । अब सरकार है । सरकार है तो इज्जत भी होगी । इस पर दिल्ली में मानवअधिकार से जुड़े लोग काफी सवाल उठा सकते हैं । इन सवालों से यह भी साबित हो जाएगा कि इतनी इज्जत लूटी छतीसगढ़ सरकार की कि उन्होने सोचा कि इसका कारोबार ही क्यों न कर लिया जाए ।
अब छत्तीसगढ़ सरकार कारोबार करती है या नहीं , यह तो कोई अनंत आयोग ही तय कर सकता है । हम तो इतना जानते हैं कि जब सरकार या नेता बंदूक के साए में हों तो हमेशा उनकी इज्जत को खतरा रहता है । किसी ने किसी की जूति पोंछ दी तो हमने इज्जत की बात उठा दी । यह न सोचा कि किसी ने किसी की इज्जत बचा दी । अच्छा लगता कि किसी की जूति गंदी हो । फिर न जाने कब से यह चल रहा है कि भक्तजन आराध्य का चरणपादुका उठाते रहते हैं । बहुत जरूरी भी है यह जूता रक्षा ।
याद कीजिए वह जमाना जब नेताओं की इज्जत होती थी । एकाध सिपाही घूमते टहलते रहते थे । नेता जी के बहाने चाय – पानी नाश्ता हो जाता था । एकाध जेबकतरे से वसुली भी हो जाती थी । उस जमाने में हम नेता इज्जत उतारने के विशेषज्ञ होते थे । नेता भी बड़े शरीफ होते थे । आज की तरह नहीं कि जूता चप्पल के साथ रसोईघर से शयनकक्ष तक चले जाएं । जूता चप्पल कहीं कोने में पड़ा होता था । हम जैसे लोग पहले तो जी भर कर उस जूता चप्पल पर अपने पैरों की कसरत करते थे । अब यह नेता जी की मेहरबानी पर होता था कि लोकलुभावन भाषण दिया तो ,उनका जूता चप्पल सही सलामत । जहां कुछ बड़ी बड़ी बातें की , और यह बात नेता जी को भी समझ में नहीं आती कि हमारा देश दुनिया का नेता बन चुका है । यहां कोई मुहल्ले का नेता होता नहीं , यह घोंघाप्रसाद वसंतलाल दुनिया के नेता बन चुके हैं ।
ऐसे अवसरों पर हम नेता का जूता चप्पल साफ कर देवआनंद की काली सफेद हम दोनों देख कर गाते थे , कभी खुद पर कभी हालत पर रोना आया …


