मैं भूल गया था कि शशि शेखर नाम का कोई संपादक इस देश में है

संसद का मानसून सत्र खत्‍म होने के बाद मैंने करीब महीने भर बाद समाचार चैनलों का प्राइमटाइम देखा। संसद सत्र का ठप रहना, प्राइवेसी, वन रैंक वन पेंशन, आज़ादी के किस्‍से, सरकार के पिछले वादे, आदि तमाम मसलों पर जहां सारे चैनल सिरफुटउवल में लगे थे, वहीं राजदीप सरदेसाई 'शोले' फिल्‍म की चालीसवीं सालगिरह रमेश सिप्‍पी के साथ मना रहे थे। उनका उनींदा अंदाज़ देखकर लगा कि कभी-कभार हंसुआ के बियाह में खुरपी का गीत सुरीला भी हो सकता है।

एक अफ़सोस ये रहा कि काश, किसी को मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने की 25वीं सालगिरह की याद भी लगे हाथ हो आती! याद है कि भूल गए? विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने ठीक 25 साल पहले 15 अगस्‍त को अपने भाषण में मंडल का पिटारा खोला था।

बहरहाल, आज तक पर पुण्‍य प्रसून वाजपेयी "क्‍या हुआ तेरा वादा" में जिन तीन पिटे हुए मरगिल्‍ले पत्रकारों को बैठाकर सरकार को नंबर दिलवा रहे थे, वह बेहद हास्‍यास्‍पद था। राहुल गांधी पर अरुण जेटली के दिए बयान में अगर आप राहुल गांधी की जगह शशि शेखर का नाम डाल दें तब भी चलेगा (कि वे जितने बड़े होते जा रहे हैं, उतने ही इम्‍मैच्‍योर होते जा रहे हैं)।

मैं भूल गया था कि शशि शेखर नाम का कोई संपादक इस देश में है। नलिनी सिंह के तो अब तक होने पर ही मुझे संदेह था। प्रसूनजी ने याद दिलाया कि दोनों अब तक अखाड़े में हैं। वैसे, ये अप्रासंगिक सा आदमी अशोक मलिक कौन है भाई?

आज के टीवी दर्शन में मेरे लिए बॉटम लाइन सुधींद्र भदौरिया का एनडीए सरकार के बारे में दिया यह बयान रहा, "कल को ये लोग बोलेंगे कि कांग्रेस ने 1975 में इमरजेंसी लगाई थी, तो हम भी ऐसा कर के क्‍या गलत कर रहे हैं।"

बात में दम है, अर्णब को भले न समझ में आवे।

अभिषेक श्रीवास्तव