राजेंद्र शर्मा
हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर, 22 वर्षीय बुरहान वानी की सुरक्षा बलों के हाथों एन्काउंटर में मौत पर कश्मीर की घाटी में और उसमें भी खासतौर पर चार दक्षिणी जिलों में उठा लोगों के गुस्से का ज्वार, एक हफ्ते बाद भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। यह इसके बावजूद है कि ईद के अगले ही दिन, शुक्रवार को सेना और पुलिस के संयुक्त ऑपरेशन में, हिज्बुल का ‘पोस्टर बॉय’ कहलाने वाले वानी की मौत से अगले शुक्रवार से पहले की रात तक, लगातार सडक़ों पर उतर कर विरोध जता रहे लोगों पर सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों में तीन दर्जन जानें जा चुकी थीं और 14-15 सौ लोग घायल होकर अस्पतालों में पहुंच चुके थे। यहां तक कि सुरक्षा बलों द्वारा मेहरबानी कर के इस्तेमाल की जा रहीं छर्रेवाली बंदूकों की फायरिंग से, सौ से ज्यादा लोग या तो अपनी आंखें खो बैठे थे या आंखों में गंभीर घावों के साथ अस्पताल में भर्ती थे।
एक इसी पहलू से स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री के विदेश यात्रा से स्वदेश लौटने के बाद, कश्मीर के हालात की समीक्षा करने के फौरन बाद, केंद्र सरकार ने सुरक्षा बलों को ‘संयम बरतने’ की सलाह देने के अलावा एक प्रमुख काम श्रीनगर के लिए नेत्र चिकित्सकों की एक टीम रवाना करने का किया है।
अगले शुक्रवार के लिए सारी तैयारियों के बावजूद, जिनका पता दस जिलों में मुकम्मल कर्प्यू लगाए जाने से लग जाता है। मौतों का आंकड़ा उन्तालीस पर पहुंच गया, जिसमें लापता हो गए बताए जा रहे नौजवान शामिल नहीं हैं। इस एक हफ्ते का सबक निर्विवाद है-

सुरक्षा बलों की बंदूक के सहारे हालात पर काबू पाना मुश्किल है।
उधर मामले को और उलझाते हुए, भारत की मुश्किल से फायदा उठाने के लिए पाकिस्तान मैदान में कूद पड़ा है। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने बुरहान के एन्काउंटर को ‘‘गैर-न्यायिक हत्या’’ करार दिया है और पाकिस्तान में भारतीय हाई कमीशन के शीर्ष अधिकारी को बुलाकर, पाकिस्तान के विदेश विभाग ने संबंधित घटनाओं पर अपना विरोध पत्र दिया है। इतना ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान की स्थायी प्रतिनिधि ने इस प्रकरण के सहारे कश्मीर के मुद्दे को एक बार फिर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाने की कोशिश की है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर इसका भारत का जवाब अपनी जगह पर, शुरूआती हिचकिचाहट के बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव ने और अमरीकी प्रशासन ने भी कश्मीर के हालात

पर चिंता जतायी है और सबसे धीरज की अपील की है। इस सबके जवाब में भारत ने भी कश्मीर में गड़बड़ी की जिम्मेदारी पाकिस्तान के ही सिर डालने के लिए अपनी बयानबाजी तेज कर दी है। खासतौर पर संघ-भाजपा की प्रचार मशीनरी ने एक पत्थर फेंकने के पांच रुपए, प्रदर्शन में हिस्सा लेने के 500 रु0 की कथित ‘रेट लिस्ट’ का प्रचार करने के जरिए, सब कुछ पाकिस्तान रचित बताने में ही अपनी पूरी ताकत झोंक दी है।
समस्या का इस तरह भारत-बनाम पाकिस्तान का मुद्दा बनाया जाना, देश के मौजूदा शासकों के लिए भले मुफीद हो, यह समस्या का सामना करने में किसी भी तरह से मददगार नहीं है। उल्टे कश्मीर के मौजूदा उबाल का इस तरह का प्रक्षेपण, वास्तविक समस्या को पहचानने से ही बचने के लिए ओट बनकर, समस्या को बढ़ाने का ही काम कर सकता है। याद रहे कि अपवादस्वरूप फौज को छोड़कर, इस पर सभी एक राय हैं कि हिजबुल कमांडर वानी के जनाजे में, प्रशासन तथा सुरक्षा बलों की सारी पाबंदियों के बावजूद, डेढ़ लाख या उससे ज्यादा लोग इकट्ठे हुए थे।
वैसे तो कश्मीर अतिवादियों के जनाजों में पहले भी अच्छी खासी संख्या में लोग जमा होते आए हैं, फिर भी यह लोगों का इस तरह का अब तक का सबसे बड़ा जमावड़ा बताया जा रहा है।
यह भी गौरतलब है कि इस भारी जमावड़े के बावजूद, जनाजे से वापस लौटते लोगों ने कोई हिंसा नहीं की। हिंसा का सिलसिला तक शुरू हुआ जब जगह-जगह विरोध जताने के लिए सड़कों पर उतरे नौजवानों ने, रक्षा बलों की रोक-टोक का जवाब पत्थर फेंक कर और रक्षा बलों ने पत्थरों का जवाब गोलियों से दिया। इसने 2010 की गर्मियों की याद दिला दी जब पत्थर के जवाब में गोली के ऐसे ही अंतहीन लगने लगे सिलसिले में, 120 नौजवानों की मौतें हुई थीं।

यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह चेहरा, आतंकवादी अतिवाद का नहीं बल्कि जनाक्रोश का ही ज्यादा है।
कश्मीर में असंतोष की अभिव्यक्ति के इस बदलते रूप की पुष्टि, खुद बुरहान वानी के प्रोफाइल से भी होती है।
जानकारों के अनुसार, मुख्यत: कश्मीरी अतिवादी गुट, हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर की हैसियत से वानी ने शायद ही किसी महत्वपूर्ण कार्रवाई में हिस्सा लिया होगा। इसके बावजूद, मुख्यत: सोशल मीडिया पर उसकी उपस्थिति ने, उसे थोड़े से अर्से में ही हिज्बुल का ऐसा बहुत ही महत्वपूर्ण कमांडर बना दिया था, जिसका चेहरा घर-घर पहुंच चुका था।
याद रहे कि बंदूक उठाने वाले अतिवादी संगठन की सैन्य रणनीति के लिहाज से यह स्थिति काफी नुकसानदेह थी और उसके जीवनकाल को काफी घटा ही सकती थी, जोकि हुआ भी। फिर भी हिज्बुल का संगठन बुरहान वानी के चेहरे के एक जाना-पहचाना चेहरा बनने से खुश था। यह चेहरा, खुद अतिवादी संगठन का चेहरा बदलकर, साधारण पढ़े-लिखे युवाओं का चेहरा बनाने में मददगार जो था।
वास्तव में कश्मीर के जानकारों के अनुसार, बंदूक के करतबों के बजाए, सोशल मीडिया जैसे माध्यमों से युवाओं को ‘आजादी’ के नारे की ओर आकर्षित खींचने के लिए जाने-जाने वाले मिलिटेंट कमांडरों की भी पूरी फसल आ चुकी है और वानी इस मामले में अकेला नहीं था।
इसके साथ दो महत्वपूर्ण बदलाव और जुड़ जाते हैं, जो पिछले दसेक साल में कश्मीर में अतिवाद के चेहरे में जानकारों ने दर्ज किए हैं। इनमें पहला है, अतिवादी हमले की वारदातों और सक्रिय अतिवादियों की संख्या, दोनों में इस दशक में बहुत भारी कमी आना। जहां 2006 में 1438 अतिवादी वारदातें दर्ज हुई थीं, 2016 की जुलाई के पहले पखवाड़े तक ऐसी कुल 98 घटनाएं हुई थीं। इसी प्रकार, 2006 में जम्मू-कश्मीर में सक्रिय अतिवादियों की संख्या 1700 थी, जो 2016 तक घटकर 146 ही रह गयी थी। दूसरे, अतिवादियों में सीमा पार से आकर कार्रवाइयां करने वालों की संख्या में भी उल्लेखनीय कमी हुई है और कश्मीरी मिलिटेंटों का हिस्सा बढ़ रहा था।
कश्मीर में मिलिटेंसी का यही बदलता चेहरा है, जो मिलिटेंसी और आम कश्मीरियों के आक्रोश को, जिसके पीछे वास्तविक जनतंत्र से लेकर आर्थिक तरक्की तथा रोजगार तक से, दमन के सहारे वंचित रखे जाने का गहरा एहसास है, बहुत नजदीक ले आया लगता है। यह वह जगह है, जहां से दो विरोधी संभावनाएं खुलती हैं। पहली, इसका अवसर की पहले ही घटती मिलिटेंसी को, जनता की नाराजगी की शस्त्र-मुक्त और पुराने अलगाववादी नेतृत्व के प्रभाव से भी मुक्त, अभिव्यक्तियों में विलीन होने के जनतांत्रिक रास्ते की ओर बढ़ाया जाए। दूसरी, मिलिटेंसी ही जनाक्रोश को ज्यादा से ज्यादा अपने रंग में रंगने में कामयाब हो जाए। मिलिटेंट ग्रुपों के लिए पढ़े-लिखे कश्मीरी युवाओं की तेजी से बढ़ती भर्ती, बाद वाले खतरे की ओर ही इशारा करती है।
दुर्भाग्य से केंद्र में भाजपा सरकार की और जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गठजोड़ की सरकार की मौजूदगी, हालात को बाद वाले रास्ते की ओर ही धकेल रही है। बेशक, इससे पहले की सरकारों ने भी कोई इससे भिन्न संभावना को बहुत बल नहीं दिया था। फिर भी, उनकी कमी सामने आते अवसर का उपयोग कर, कश्मीरी जनता का विश्वास जीतने के लिए, बहुस्तरीय, बहुरूपीय व चौतरफा संवाद आगे न बढ़ा पाने की ही ज्यादा थी। वास्तव में भी भाजपा तथा संघ परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका थी, जिनका सांप्रदायिक आग्रह से संचालित उग्र-विरोध, पिछली सरकारों के हाथ बांधने के लिए काफी हद तक जिम्मेदार था। इसके ऊपर से, पिछली नेशनल कान्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन सरकार के दौर में भाजपा-संघ परिवार, खासतौर पर अमरनाथ भूमि आवंटन प्रकरण के बहाने से, जम्मू में पहली बार उग्र-हिंदू आंदोलन भड़काने के जरिए, जिससे निपटने के लिए बाकायदा रक्षा बलों को बुलाना पड़ा था, जम्मू में पूरा हिंदू ध्रुवीकरण करने में और इस तरह, इस राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को अभूतपूर्व ऊंचाई पर पहुंचाने में कामयाब रहा था। इसी का नतीजा 2014 के आखिर में हुए चुनाव के बाद, एक ऐसी गठजोड़ सरकार के रूप में सामने आया है, जो हिंदू प्रधान जम्मू और मुस्लिम बहुल कश्मीर के, पूर्ण अलगाव को शासन के स्तर तक संस्थागत रूप देती है।
जैसी कि विरुद्धों की इस अवरवादी एकता से उम्मीद की जा सकती थी, इस सरकार के बनने के बाद से, गठजोड़ के दोनों घटकों की अपने-अपने आधार की रक्षा की कोशिशों ने जम्मू-कश्मीर में काफी रस्साकशी करायी है। इसी का नतीजा था कि मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन और उनकी उत्तराधिकारी महबूबा मुफ्ती के शपथग्रहण के बीच, राज्यपाल शासन लगने तक की नौबत आ गयी।
यह भी याद रहे कि रस्साकशी के इस दौर में महबूबा को, केंद्र में सत्ता में होने के बल पर ऐंठी भाजपा के सामने जिस तरह झुकना पड़ा, उसने कश्मीरियों के बीच महबूबा की साख को बहुत कमजोर ही किया है। उसके बाद से एक ओर केंद्र के राज्य की सहायता के वादे पूरे न करने और दूसरी ओर सैनिक कॉलोनी के लिए जमीन दिए जाने, पंडित कालौनी बनाने के विवादों तथा श्रीनगर आइआइटी जैसे प्रकरणों ने, घाटी में इसी एहसास को और तीखा बनाया है कि मेहबूबा के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर होते हुए भी, कश्मीरी मौजूदा शासन से न्याय की उम्मीद नहीं कर सकते हैं।
ऐसे में एक ओर आए दिन की सैन्य कार्रवाइयों से तथा अतिवादी कार्रवाइयों तथा मिलिटेंटों की संख्या में भारी कमी के बावजूद तथा मणिपुर के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अफस्पा के प्रयोग पर शासन को कड़ी फटकार लगाए जाने के बावजूद जम्मू-कश्मीर में निरंकुश अफस्पा में कोई ढ़ील देने से शासन के इंकार और दूसरी ओर, कश्मीर के कथित अलगाववादियों से लेकर पाकिस्तान तक से, संवाद के सारे रास्ते बंद होने ने ही मौजूदा हालात पैदा किए हैं; जहां एन्काउंटर में एक जाने-माने मिलिटेंट की मौत, आम लोगों के गुस्से के विस्फोट का कारण बन गयी है। बेशक, इस बात को भी हल्के तरीके से नहीं लिया जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा के साथ गठबंधन सरकार में बैठी पीडीपी के वरिष्ठ सांसद, मुजफ्फर अहमद बेग ने बाकायदा इस एन्काउंटर पर ही सवाल खड़े करते हुए, इसकी भी पूरी जांच की मांग की है कि क्या सिर्फ साढ़े तीन मिनट की इस फौजी कार्रवाई में एन्काउंटर के ही लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निर्देशों का पालन किया गया था। बहरहाल, इस एन्काउंटर की वैधता के सवाल अपनी जगह, इतना तय है कि राज्य से बढक़र केंद्र के मौजूदा शासन की करनियां और अकरनियां, इस संवेदशील राज्य को एक बार फिर मिलिटेंटों के बोलबाले के अस्सी के दशक के आखिरी और नव्बे के दशक के पूर्वार्द्ध के दौर की ओर धकेल रही हैं।
1990 के बाद पहली बार अखबारों और इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर औपचारिक रूप से प्रतिबंध लगाया जाना, इसी की ओर इशारा करता है। यह इसलिए अक्षम्य है कि हालात को इससे ठीक उल्टी दिशा में ले जाने के रास्ते भी सामने नजर आ रहे हैं। 0