कश्मीर को देखने के लिए राष्ट्रवाद की नहीं लोकतांत्रिक नजरिए की जरूरत है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
भाजपा ऊपर से नाम संविधान का ले रही है, लेकिन कश्मीर की समस्या को राष्ट्रवादी नजरिए से हल करना चाहती है।
राष्ट्रवाद के पास जातीय समस्या का कोई समाधान नहीं है।
दिलचस्प बात यह है कि भाजपा-आरएसएस हिन्दू राष्ट्रवाद के पैमाने से समाधान खोज रहे हैं, वहीं आतंकी संगठन कश्मीरी राष्ट्रवाद के जरिए समाधान खोज रहे हैं। ...लेकिन ये दोनों ही नजरिए अंततःहिंसा और अशांति की ओर जाते हैं। सारी दुनिया का अनुभव है कि उत्तर –औपनिवेशिक दौर में राष्ट्रवाद आत्मघाती मार्ग है।

कश्मीर की जनता के इस समय दो शत्रु हैं पहला है कश्मीरी राष्ट्रवाद और दूसरा है हिन्दू राष्ट्रवाद।

राष्ट्रवाद बुनियादी तौर पर हिंसा और घृणा की विचारधारा है। इसका चाहे जो इस्तेमाल करे उसे अंततःहिंसा की गोद में उसे शरण लेनी पड़ती है। राष्ट्रवाद को उन्मादी नारे और हथियारों के अलावा और कोई चीज नजर नहीं आती।
कश्मीर की आजादी के नाम पर जो लोग लड़ रहे हैं, वे आजादी के नाम पर कश्मीर को जहन्नुम के हवाले कर देना चाहते हैं।
जमीनी हकीकत यह है कि अधिकतर युवाओं को कश्मीरी की आजादी का सही अर्थ तक नहीं मालूम, यही हाल नेताओं का है।
विगत 70 सालों में हजारों मीटिंगें हुई हैं, लेकिन कश्मीर की आजादी का अर्थ समझाते हुए कभी किसी दल ने कोई दस्तावेज आज तक भारत की जनता के सामने, संसद में पेश नहीं किया।

कश्मीर की आजादी को कश्मीरी राष्ट्रवाद के हिंसक और अंतर्विरोधी फ्रेमवर्क में रखकर ही हमेशा पेश किया गया।
इसके बहाने कश्मीर के अंदर जो धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक ताकते हैं उनके खिलाफ माहौल बनाने की लगातार कोशिशें हुई हैं।
दिलचस्प बात यह है कि कश्मीरी राष्ट्रवादियों और हिन्दू राष्ट्रवादियों का संयुक्त मोर्चा मौजूदा राज्य सरकार को संचालित कर रहा है और सारी समस्या की जड़ यही मोर्चा है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेयी के नारे ´जम्हूरियत कश्मीरियत और इंसानियत´में भी कश्मीरी राष्ट्रवाद को कश्मीरियत के नाम पर शामिल कर लिया गया है और मौजूदा प्रधानमंत्री उस नारे को बार-बार दोहरा रहे हैं, जबकि समस्या इसी समझ में है।
कश्मीर की समस्या को यदि मोदीजी राष्ट्रवाद के फ्रेमवर्क से देखेंगे तो समाधान कम और टकराव ज्यादा पैदा होंगे।
अटलजी के फ्रेमवर्क से देखेंगे तो वहां से भी हिंसक रास्ते ही खुलते हैं।
इस दौर में जब भी जातीयता और राष्ट्रवाद को आधार बनाकर राजनीतिक समस्याओं के समाधान खोजे गए हिंसा और टकराव ही पैदा हुआ। खालिस्तान के दौर में ´पंजाबियत´का हश्र हम हिंसा में रूपान्तरित होते देख चुके हैं।

कश्मीर को लोकतंत्र चाहिए ´कश्मीरियत´नहीं।
कश्मीर को ´नागरिक´ भावबोध चाहिए ´कश्मीरी´भावबोध नहीं।
जो लोग´कश्मीरियत´के परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं वे पुराने अ-प्रासंगिक परिप्रेक्ष्य में देख रहे हैं। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इसमें वह इलाका भी आता है जो पाक अधिकृत कश्मीर के नाम से जाना जाता है।
कश्मीर की स्थानीय राजनीति में धर्मनिरपेक्ष ताकतें भी कश्मीरियत को भुनाती रही हैं, इससे भी समस्याएं पैदा हुई हैं।

मूल प्रश्न यह है कि कश्मीर को लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य से देखें या राष्ट्रवाद के परिप्रेक्ष्य से।
राष्ट्रवाद का परिप्रेक्ष्य, चाहे वह देशभक्त हो या विभाजनकारी, अंततः जनता को अंधी भीड़ में तब्दील करता है। लोकतंत्र का परिप्रेक्ष्य कश्मीरी जनता के स्वायत्त और आत्मनिर्भर संसार को सृजित करता है।
कश्मीर की समस्या पर संविधान के दायरे में कोई भी बातचीत होगी तो लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में ही होगी। हमारा संविधान राष्ट्रवाद को मंजूरी नहीं देता। राष्ट्रवाद का परिप्रेक्ष्य अ-संवैधानिक है।
कश्मीर पर जब भी बातें होती हैं तो हिन्दू बनाम मुसलमान,पाक बनाम भारत, आतंकी बनाम राष्ट्रवादी, मुसलिम बहुसंख्यक बनाम हिन्दू अल्पसंख्यक या कश्मीरी पंडित आदि वर्गीकरण में रखकर देखते हैं। फलतः कश्मीर के बाशिंदों को हम नागरिक के रूप में देख ही नहीं पाते।
बार-बार यही कहा जाता है कश्मीर में तो बहुसंख्यक मुसलमान हैं,
फलतः वहां आतंकी-पृथकतावादी संगठनों का राजनीतिक रूतबा है।
कायदे से हमें इस तरह के विभाजनकारी वर्गीकरण में रखकर कश्मीर को, वहां की जनता को नहीं देखना चाहिए। कश्मीर में भी भारत के अन्य इलाके की तरह मनुष्य रहते हैं, वे हमारे देश के नागरिक हैं। उनको धर्म , जातीयता और राष्ट्रवाद के नाम पर वर्गीकृत करके नहीं देखें।

कश्मीर की जनता को भीड़ में तब्दील करने में राष्ट्रवादी नजरिए की बड़ी भूमिका है।
राष्ट्रवादी-आतंकी नजरिए का परिणाम है कि वहां पर आज जनता भीड़ की तरह आगे चल रही है और नेता उसके पीछे चल रहे हैं। लोकतंत्र में नेता जनता का नेतृत्व करते हैं लेकिन राष्ट्रवादी फ्रेमवर्क में भीड़ नेताओं का नेतृत्व करती है। यही वह आयरनी है जिससे निकलने की जरूरत है।
कश्मीर के निवासियों को हम अपने ही देश का नागरिक समझें,उनके दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द समझें।
कश्मीर के निवासियों को पराए के रूप में देखना बंद करें।
कश्मीर को पराए के रूप में देखने के कारण ही आज हालात यह हैं कि हमारी संसद भी ठीक से नहीं जानती कि कश्मीरियों की फिलहाल असल समस्याएं क्या हैं।
हाल ही में संसद में कश्मीर के मौजूदा हालत पर जो बहस हुई उसमें विभिन्न दलों के नेताओं ने भाषण दिए, उन भाषणों में कश्मीरी जनता की अनुभूतियां, दुख-दर्द गायब थे, सिर्फ नारे थे, रेटोरिक था, लेकिन मर्मस्पर्शी भावबोध गायब था।
इससे पता चलता है राजनीतिक नेतृत्व कश्मीर की जमीनी हकीकत से एकदम अनभिज्ञ है।
To view Kashmir no need of Nationalism it wants democratic attitudes