कहाँ जाएँ राजनीतिक ठगी का शिकार
कहाँ जाएँ राजनीतिक ठगी का शिकार
मसीहुद्दीन संजरी
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में जाति और सम्प्रदाय के नाम पर वोट की दावेदारी भी चल रही है और वोटरों को रिझाने की कोशिश भी।
यादव किसको वोट दे, दलित किसके पाले में रहे, ब्राह्मण किधर आकर्षित है, लेकिन सबसे ज़्यादा निगाहें मुस्लिम वोटों पर हैं।
किसी को मुस्लिम वोट ही चाहिए, तो किसी को मुस्लिमों का दानवीकरण करके हिंदू वोट जुटाना है। कोई पिछड़ा मानकर टुकड़ा देने की बात करता है तो कोई तुष्टिकरण तुष्टिकरण की हांक लगा कर अपने वोट बैंक को सहेजता है।
सेक्युलर कही जाने वाली पार्टियों और मुस्लिम नेतृत्व वाली पार्टियों के अपने अलग-अलग तर्क हैं।
सेक्युलर कही जाने वाली पार्टियों में मुस्लिम वोटों की चाहत और उसे हासिल करने के तरीकों पर बहस खूब होती है। यह सभी मुसलमानों की शैक्षणिक पिछड़ेपन पर बहस करने में बहुत दिलचस्पी रखती हैं। इसके समर्थन में मुसलमान खुद खड़ा मिलता है। हर पार्टी के दरवाज़े पर मिलता है।
अब शिक्षा नहीं तो नौकरी कहां से मिलेगी। बहस समाप्त।
एक बड़ी समस्या हल हो जाती है। मुसलमानों पर ज़ुल्म के खिलाफ बयानबाज़ी में तो सब आगे है लेकिन सुरक्षा के प्रश्न पर किसी योजना की बात आती है तो सभी पार्टियां खामोश हो जाती हैं। हिंदू वोटों के खिसकने का डर सताने लगता है। हालांकि यह डर कालपनिक है।
मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उनके पास क्या प्रोग्राम है?
जवाब में कोई तार्किक और व्यवहारिक योजना नहीं होती। लागू करने में ईमानदारी तो बहुत दूर की कौड़ी है। वोट की दावेदारी भी इस तरह करते हैं कि फलां दल ने मुसलमानों की उपेक्षा की, फलां नेता ने गद्दार या कट्टरपंथी कहा और उस पार्टी ने धोका दिया। वोटों की दावेदारी करने वाले के पास स्वंय क्या कार्यक्रम है इस पर कोई चर्चा नहीं।
वह पार्टियाँ जिनके नेता मुसलमान हैं वह मुसलमानों को राजनीतिक शक्ति बनने का उपदेश देते हैं।
इत्तेहाद-इत्तेहाद चिल्लाते हैं और अपने अलावा सबको पाँच साल तक खारिज करते हैं और चुनाव करीब आते ही उसी नारे से एक दूसरे को पटखनी देने के चक्कर में रहते हैं। पार्टी बनाई नहीं कि यह डर सताने लगता है कि मुख्यमंत्री कोई दूसरा न बन जाए।
मुसलमानों में दमदारी दिखाने के लिए सड़ी–गली मर चुकी पार्टियों के नेताओं को ढूँढ निकालते हैं और मंच से दस, पंद्रह, बीस पार्टियों का गठबंधन दिखा कर अगली सरकार का कहांर बनने लगते हैं।
जब पूछा जाता है कि किस तरह चुनावी दंगल में आप स्वर्ण पदक (सीट) जीतेंगे तो किसी दूसरी पार्टी के संघर्ष के दिनों की मिसाल देकर फार्मूला पेश कर देते हैं। न उनके पास अपना कोई फार्मूला होता है, न संगठन होता है, न नेटवर्क, बूथ पर कोई नामलेवा नहीं।
लेकिन सरकार उनके बिना नहीं बनेगी का दावा ज़रूर रहता है।
टुकड़ों-टुकड़ों में सबकी दावेदारी पर दण्डवत गिर जाने का मिज़ाज जब तक नहीं बदलेगा, हर दावे की व्यावहारिकता को जब तक परखा नहीं जाएगा। संतोषजनक उत्तर मिलने तक इन भावनाओं से खेलने वालों को खारिज नहीं किया जाता रहेगा। तब तक किसी गम्भीर चिंतन और कामयाबी की तरफ ले जाने वाली समावेशी राजनीति को विकसित नहीं किया जा सकेगा जिसकी ज़रूरत हर वर्ग है और मुसलमानों को किसी और से कुछ ज़्यादा है।


