कहानी दो फैसलों की : आसिया बीबी और सबरीमाला
कहानी दो फैसलों की : आसिया बीबी और सबरीमाला
31 अक्टूबर 2018 को पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने आसिया बीबी को ईशनिंदा Blasphemy के आरोप से बरी कर दिया। वे पिछले आठ सालों से मौत की सजा का इंतजार कर रहीं थीं। अदालत ने उन पर लगे आरोपों को सही नहीं पाया। पाकिस्तान में ईशनिंदा के लिए मौत की सजा का प्रावधान है। आसिया, ईसाई खेतिहर मजदूर थीं। वे व उनका परिवार बहुत तनाव में था और उनकी जान बचाने का हर संभव प्रयास कर रहा था। इस फैसले से उन्हें राहत मिली है।
आज हमें पंजाब के तत्कालीन गर्वनर सलमान तासीर याद आते हैं, जिन्होंने जेल में बीबी से मुलाकात की थी, ईशनिंदा संबंधी कानूनों का विरोध किया था, आसिया को माफ किए जाने का समर्थन किया था और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा "Protection of minorities" के पक्ष में आवाज उठाई थी। तासीर को अपने इन विचारों की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी। उनके हत्यारे, मल्की मुमताज हुसैन कादरी को एक हीरो की तरह पेश किया गया और मौलानाओं ने तासीर के लिए नमाज-ए-जनाजा पढ़ने से इंकार कर दिया।
इस अदालती फैसले के बाद पाकिस्तान में बहुत आक्रोश है। कट्टरपंथियों ने कई स्थानों पर हिंसा की है। इस उन्मादी प्रतिक्रिया से चिंतित पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने न्यायालय के फैसले का सम्मान किए जाने की अपील की है। लेकिन, इसके साथ ही उन्होंने तहरीक-ए-लब्बीक पाकिस्तान नामक एक पार्टी से समझौता भी किया है, जो इस विरोध और हिंसा के लिए जिम्मेदार है और जिसकी आसिया बीबी को पाकिस्तान से बाहर न जाने देने कि मांग उन्होंने मंजूर कर ली है। इमरान ने बीबी को बरी करने वाले न्यायाधीशों को निशाना न बनाए जाने की अपील भी की है। बीबी के वकील सैफ-उल-मुल्क हिंसा के भय से पहले ही पाकिस्तान छोड़ चुके हैं।
28 सितंबर 2018 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि हर आयु समूह की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश न देना, भेदभावपूर्ण है और सभी महिलाओं को इस मंदिर में जाने का अधिकार मिलना चाहिए। शुरू में आरएसएस सहित अधिकतर संगठनों ने इस निर्णय का स्वागत किया किंतु शीघ्र ही संघ ने अपना रंग बदल लिया। वीएचपी के नेतृत्व में हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों ने ‘सबरीमाला बचाओ‘ का नारा देते हुए रजस्वला आयु समूह की स्त्रियों को मंदिर में प्रवेश करने से रोका। मामले ने तूल पकड़ा और सीपीएम के नेतृत्व वाले सत्ताधारी वाम मोर्चे में शामिल दलों को छोड़कर, कांग्रेस सहित सभी दल धार्मिक भावनाओं के इस तूफान के सामने झुक गए और मंदिर में ऐसी स्त्रियों के प्रवेश के विरोध में चल रहे आंदोलन का समर्थन करने लगे। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि इन्हीं दलों ने महाराष्ट्र के शनि सिगनापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का समर्थन किया था। आरएसएस के सहयोगी संगठन हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश से भी बहुत आल्हादित हुए थे।
Scholarly articles regarding Sabarimala Temple
सबरीमाला मंदिर के संबंध में कई विद्वतापूर्ण लेख लिखे गए हैं। इनसे यह ज्ञात होता है कि सन् 1991 तक सभी महिलाओं को इस मंदिर में प्रवेश दिया जाता था। लेकिन एक अदालती निर्णय की तोड़-मरोड़कर व्याख्या करने से ऐसी स्थिति बन गई कि रजस्वला आयु समूह की महिलाओं का मंदिर में प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया। यह निर्णय इस धारणा पर आधारित था कि रजस्वला स्त्रियों के लिए मंदिर की यात्रा करने के लिए ज़रूरी 41 दिनों की तपस्या करना कठिन होगा। यह उल्लेखनीय है कि इस फैसले में भी इस बात का जिक्र था कि पहले महिलाओं को मंदिर में प्रवेश का अधिकार था। पुराने अध्ययनों से हमें यह जानकारी मिलती है कि मंदिर में आदिवासी एवं बौद्ध दर्शनार्थी भी आया करते थे।
आदिवासी, जो “मासिक धर्म” Menstrual को वर्जना नहीं मानते, सन् 1960 के दशक तक बड़ी संख्या में मंदिर में आते थे। इसके भी प्रमाण हैं कि सन् 1980 के दशक तक सभी आयु-समूहों की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश का अधिकार था। परंतु सन् 1991 के फैसले के बाद कट्टरपंथियों का बोलबाला बढ़ गया। अब साम्प्रदायिक शक्तियां Communal powers इस विवाद के सहारे राज्य में अपना राजनैतिक आधार बढ़ाने की फिराक में हैं, जैसा कि उन्होंने कर्नाटक में बाबा बुधनगिरी की दरगाह के मामले में और मध्यप्रदेश में कमाल मौला मस्जिद के मामले में किया।
इस तरह, दो पड़ोसी देशों में अपने-अपने देशों के सर्वोच्च अदालतों के फैसलों की लगभग एक सी प्रतिक्रिया हुई है। दोनों मामलों में अदालतों ने कानूनी प्रावधानों के अनुसार निर्णय सुनाए हैं और सभी धर्मों की समानता (पाकिस्तान के मामले में) और लैगिंक समानता- Gender equality (भारत के मामलों में) के पक्ष में फैसले दिए हैं। भारत में उन्मादी धार्मिक समूहों की प्रतिक्रिया देखने के बाद ज्यादतर राजनैतिक दल पीछे हट गए।
पाकिस्तान में इमरान खान ने हालांकि शुरू में बीबी को बरी किए जाने के निर्णय का स्वागत किया लेकिन बाद में कट्टरपंथी समूहों के दबाव के चलते बीबी के पाकिस्तान से बाहर जाने पर पाबंदी लगा दी। एन्ड्रे मेरालाक्स द्वारा यह पूछे जाने पर कि प्रधानमंत्री के रूप में उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है, जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि एक धर्मप्रधान देश में धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाना सबसे बड़ी चुनौती है।
Nehru's efforts to make India a secular state
भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की नेहरू की कोशिश की राह में अनेक बाधाएं और उतार-चढ़ाव आए। सन् 1980 के दशक में शाहबानो मामले के बाद से “मुस्लिम तुष्टिकरण” Muslim appeasement की दुहाई देकर शुरू किए गए राममंदिर आंदोलन Ram Mandir Movement ने भयावह स्वरूप ले लिया। लोगों की धार्मिकता का लाभ साम्प्रदायिक संगठनों ने समाज का ध्रुवीकरण करने के लिए उठाया, वहीं कमजोर धर्मनिरपेक्ष संगठनों ने चुनावी गणित की खातिर घुटने टेक दिए।
पाकिस्तान में तो हालात और भी बुरे थे। जिन्ना ने 11 अगस्त 1947 के अपने भाषण में पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष समाज बनाने का वायदा किया था, लेकिन यह हो न सका। साम्प्रदायिक सामंती तत्व ताकतवर होते गए और जल्दी ही उन्होंने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को तहस-नहस कर दिया। जनरल जिया-उल-हक के शासनकाल में हुए इलामीकरण के बाद से लेकर आज तक उन्मादी तत्व लगातार सशक्त होते गए हैं। अतः आज यद्यपि इमरान खान कट्टरपंथियों का सैद्धातिक दृष्टि से समर्थन नहीं करते किंतु वे उनसे समझौता करने को बाध्य हैं क्योंकि ऐसा न करने पर बड़े पैमाने पर हिंसा होने का खतरा है।
आज दोनों पड़ोसी देशों में कई मामलों मे एक-से हालात हैं। कुछ दशक पहले तक भारत का चरित्र अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक, उदार एवं धर्मनिरपेक्ष था किंतु सन् 1990 के दशक से भारत में पाकिस्तान की तरह रूढ़िवाद हावी हो रहा है और राजनीति में धर्म का दखल बढ़ता जा रहा है।
पाकिस्तान में हिन्दू और ईसाई धार्मिक अल्पसंख्यक पहले से ही हाशिए पर थे और अब शियाओं और अहमदियाओं को निशाना बनाया जा रहा है।
इस प्रकार कानून तो आसिया बीबी और सबरीमाला मामलों में धर्मनिरपेक्ष नजरिए के साथ है, लेकिन समाज का एक हिस्सा इसका प्रतिरोध कर रहा है। आज यदि नेहरू होते तो कहते कि हालांकि कानून तो धर्मनिरपेक्ष हैं किंतु समाज का एक तबका इसके खिलाफ है और शुतुरमुर्ग की तरह प्रतिगामी मूल्यों की रेत में अपना सिर गड़ाए हुए है।
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
(लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
Story of two decisions: Aasia Bibi and Sabarimala


