कांग्रेस और इंडिया गठबंधन की विजय क्यों जरूरी है?
आपकी नज़र | हस्तक्षेप Why is the victory of Congress and India alliance important? भारत को अगर कोई हिटलर की तर्ज़ के हत्यारे फासीवाद से बचाना चाहता है तो उसके सामने एक ही विकल्प शेष रह गया है — कांग्रेस और इंडिया गठबंधन की विजय को सुनिश्चित करना।

पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम और भविष्य की राजनीति के संकेतों पर एक नज़र
भारत को अगर कोई हिटलर की तर्ज़ के हत्यारे फासीवाद से बचाना चाहता है तो उसके सामने एक ही विकल्प शेष रह गया है — कांग्रेस और इंडिया गठबंधन की विजय को सुनिश्चित करना।
इस मामले में केरल की तरह के राज्य की परिस्थिति कुछ भिन्न कही जा सकती है। वहाँ चयन कांग्रेस और वामपंथ में से किसी भी एक का किया जा सकता है। दोनों ही इंडिया गठबंधन के प्रमुख घटक है।
पर इसे नहीं भूलना चाहिए कि भारत में बहुत तेज़ी से राजनीति की राज्यवार चारित्रिक विशिष्टता ख़त्म हो रही है। ख़ास तौर पर अनुच्छेद 370 पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले (Supreme Court's decisions on Article 370) के उपरांत राष्ट्रपति द्वारा राज्यों के अधिकारों के हनन के किसी भी मामले को अदालत में भी चुनौती नहीं दी जा सकती है। ऐसे में केरल जैसे प्रदेश के मामले में भी कोई रणनीति तय करते वक्त इस नई ज़मीनी हक़ीक़त की गति को ध्यान में रखा जाना चाहिए। वहाँ कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच शत्रुतापूर्ण अन्तर्विरोधों की दीर्घकालिकता के दूरगामी घातक परिणाम हो सकते हैं। यह अंततः दोनों की ही राजनीति को संदिग्ध बना सकता है।
भारत की इस बदलती हुई एकीकृत राजसत्ता की राजनीति में जो भी क्षेत्रीय दल इंडिया गठबंधन के बाहर रह कर अपने निजी अस्तित्व की सदैवता का सपना पाले हुए हैं, वह उनका कोरा भ्रम है। इसी भ्रम में वे शीघ्र ही अपने अस्तित्व को खो देने अथवा फासीवाद को बढ़ाने के लिए रसद साबित होने को अभिशप्त हैं।
हाल के पाँच राज्यों के चुनावों के अनुभव बताते हैं कि छोटे और क्षेत्रीय दलों ने न सिर्फ़ अपनी शक्ति को काफ़ी हद तक गँवाया है बल्कि वे समग्र रूप से राजनीतिक तौर पर भी बहुत कलंकित हुए हैं। इन चुनावों ने जनतंत्र के पक्ष में व्यापक राजनीतिक लामबंदी के लिए इंडिया गठबंधन की महत्ता को भी नए सिरे से रेखांकित किया है।
इन चुनावों में इंडिया गठबंधन की ग़ैर-मौजूदगी से छोटे-छोटे दलों के चुनावबाज नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को भारी बल मिला और उन्होंने सीधे तौर पर फ़ासिस्ट ताक़तों को बल पहुँचाने से परहेज़ नहीं किया।
मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी की हास्यास्पद और नकारात्मक भूमिका के पीछे जहां इंडिया गठबंधन के प्रति कांग्रेस की ग़ैर-गंभीरता को भी एक कारण कहा जा सकता है। यही बात राजस्थान में आदिवासी पार्टी और सीपीआई(एम) पर भी लागू होती है।
राजस्थान में माकपा ने भी भाजपा की मदद की?
राजस्थान में भारत आदिवासी पार्टी जैसी संकीर्ण हितों की पार्टी ने तो फिर भी तीन सीटें हासिल करके चुनाव लड़ने की अपनी ताक़त का कुछ परिचय दिया। पर मूलतः उन्होंने भाजपा की जीत में ही सहयोग किया है। पर सीपीआई(एम) ने तो अपनी पहले की दोनों सीटों को भी गँवा दिया। सीपीएम ने भी कई सीटों पर कांग्रेस को पराजित करने का सक्रिय प्रयास किया और इस प्रकार सीधे भाजपा की मदद की।
अर्थात् सीपीएम ने तो चुनावी नुक़सान के साथ ही समग्र रूप से राजनीतिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी अपनी स्थिति को बेहद कमजोर किया है।
क्रांतिकारी दल शुद्ध चुनावी राजनीति के चक्कर में कभी-कभी कैसे चुनावी प्रक्रिया के बीच से अपने जनाधार को बढ़ाने के बजाय उसे गँवाते जाते हैं और इसी उपक्रम में पार्टी के अंदर ख़ास प्रकार के भ्रष्ट संसदवाद को प्रश्रय देते हैं, इसे अब दुनिया के दूसरे कई देशों के अनुभवों के साथ मिला कर हम अपने देश में भी साफ़ रूप में घटित होते हुए देख सकते हैं। वे अवसरवादी तत्त्वों का अड्डा बनते चले जाते हैं। यही वह पतनशीलता का तत्त्व है जो क्रांतिकारी दल के लिए नई परिस्थिति में ज़रूरी नई क्रांतिकारी कार्यनीति के विकास में भी बाधक बनता है। क्मशः पार्टी समग्र रूप में राजनीतिक तौर अप्रासंगिक बन जाती है।
गठबंधन में होकर भी गठबंधन के प्रति निष्ठा का अभाव आपकी विश्वसनीयता को बहुत कम करता है। संसदीय रास्ते से विकास के लिए यह समझना ज़रूरी है कि हर नई परिस्थिति नए गठबंधनों के प्रति लचीलेपन और आंतरिक निष्ठा की माँग करती है। तात्कालिक लाभ के लोभ में कैसे कोई अपने ही सच को, जनता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और निष्ठा के बृहत्तर हितों को दाव पर लगा कर खो देता है, यह उसी अवसरवाद का उदाहरण है। ऐसे चुनाव-परस्तों से पार्टी को हमेशा बचाना चाहिए।
तेलंगाना में भी सीपीआई(एम) के राज्य नेतृत्व ने स्वतंत्र रूप से 19 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसकी भूमिका का अंतिम परिणामों पर क्या असर पड़ा, यह एक आकलन का विषय है।
जहां तक सीपीएम का सवाल है, उसके सामने 2024 में बंगाल में और भी जटिल परिस्थिति है। अभी तक की स्थिति में बंगाल में इंडिया गठबंधन का नेतृत्व ममता बनर्जी की टीएमसी के पास ही रहता हुआ दिखाई दे रहा है। दूसरी ओर टीएमसी और सीपीएम के बीच किसी भी प्रकार का समझौता असंभव लगता है। दोनों परस्पर के खून के प्यासे बने हुए हैं। इसीलिए यहाँ भाजपा-विरोधी मतों का एकजुट होना असंभव है। वहाँ वामपंथ का तभी कोई भविष्य मुमकिन है, जब टीएमसी के खिलाफ जनता में भारी असंतोष और वाममोर्चा अपने सकारात्मक कार्यक्रम से विपक्षी प्रमुख शक्ति बन कर उभरे। केंद्र में भाजपा की सरकार के रहते ऐसा संभव नहीं लगता है। जब भी व्यक्ति के सामने किसी एक चीज के दो-दो विकल्प होते हैं तो किसी नए विकल्प के बजाय जो हाथ में है उसे छोड़ना नहीं चाहता। बंगाल के भाजपा-विरोधी मतों की यही सबसे बड़ी दुविधा है। इस कश्मकश में वे ज़्यादा से ज़्यादा खुद का ही नुक़सान कर सकते हैं।
इसीलिए यह ज़रूरी है कि वाम मोर्चा पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ मिल कर एक नई कार्यनीति तैयार करने की कोशिश करें जो मतदाताओं के बीच भाजपा-विरोध को लेकर कोई दिग्भ्रम पैदा न करे। जिन सीटों पर भाजपा की जीत संभव है, उन पर उसकी पराजय को सब मिल कर सुनिश्चित करें।
2024 में मोदी और आरएसएस के फासीवाद बिना परास्त किए आम लोगों के लिए भारत में राजनीति संभावनाओं का अंत हो जायेगा। पूरा देश अडानियों के सुपुर्द कर दिया जाएगा और व्यापक जनता की स्थिति सरकार के कृतदासों से बेहतर नहीं होगी।
—अरुण माहेश्वरी


