प्रभाष जोशी के पुनर्मूल्यांकन की जरूरत क्यों है -1-

आधुनिक गद्य का शानदार उदाहरण है प्रभाष जोशी का गद्य

प्रभाष जोशी हिन्दी के बड़े गद्यकार,संपादक और विचारक हैं। उनके गद्य को आधुनिक हिन्दी साहित्य और मीडिया के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की जरुरत है और उनके लिखे पर नए सिरे से मीडिया,खासकर इंटरनेट और वर्चुअल रियलिटी के नए परिप्रेक्ष्य में गंभीरता से विचार करने, अनुसंधान करने की आवश्यकता है। इस क्रम में साहित्य और मीडिया में गद्य लेखन के नए रुप और नई संभावनाओं पर विचार करने के लिए नए सवाल जन्म लेंगे। साथ ही प्रभाष जोशी को लेकर जो पूजाभाव है या उपेक्षा भाव है, इन दोनों से मुक्ति मिलेगी। उनका गद्य आधुनिक गद्य का शानदार उदाहरण है। प्रभाष जोशी के गद्य से बहुत कुछ सीख सकते हैं और उनके नज़रिए के अंतर्विरोधों से बचते हुए नए प्रगतिशील मार्ग पर चल सकते हैं। इससे हमें पत्रकारिता को रूढ़िवाद और सत्तापंथी भावबोध इन दोनों से मुक्ति दिलाने में सफलता मिलेगी।

यूजर जब भी नेट पर लिखता है, अथवा किसी लेखक के लिखे पर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करता है तो वह संवाद नहीं करता बल्कि भाषायी खेल खेलता है। नेट के वर्चुअल पन्‍ने पर लिखे संदेश, लेख या टिप्‍पणी को जब आप पढ रहे होते हैं तो आप अकेले नहीं पढ रहे होते हैं, आप जब प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त कर रहे होते हैं तो एक ही साथ अनेक लोग प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त कर रहे होते हैं। ऐसे में यूजर के सामने कोई नहीं होता सिर्फ वर्चुअल पन्‍ने पर लिखा संदेश होता है जिसके साथ प्रतिक्रियाओं का आदान प्रदान चलता है।

बहुस्‍तरीय वर्चुअल भाषायी खेल है इंटरनेट संवाद

नेट पर प्रभाष जोशी, राजेन्‍द्र यादव, नामवर सिंह आदि किसी के भी बारे में पढें या लिखें, यह संवाद नहीं खेल है। वैसे ही जैसे आप नेट पर गेम खेलते हैं। जैसे नेट पर गेम खेलते हुए एक नहीं हजारों यूजर एक ही साथ खेलते हैं, आप भी खेलते हैं। नेट संवाद वर्चुअल बहुस्‍तरीय भाषायी खेल है। ऐसे में आप वर्चुअल पन्‍ने को सम्‍बोधित करते हैं,किसी व्यक्ति को नहीं। आप इसी पन्‍ने के साथ खेल रहे होते हैं। यह ऐसा संवाद है जिसमें दो नहीं दो से ज्‍यादा लोग एक ही साथ संवाद कर रहे होते हैं। यहां सारा खेल वर्चुअल पाठाधारित होता है।

इस भाषायी खेल में भाग लेने वालों को अपने ऑनलाइन व्‍यक्‍तित्‍व को 'नाम' के पीछे छिपाना होता है। यह 'नाम' सही, गलत, असली, नकली कुछ भी हो सकता है। हमारे तमाम युवा जोश में अनाप-शनाप टीका-टिप्‍पणी करते हैं, वे समझते हैं वे किसी से साक्षात बातें कह रहे हैं, जबकि वे साक्षात किसी से नहीं कहते बल्कि वर्चुअल पन्‍ने से कह रहे होते हैं, वे सोचते हैं, उन्‍होंने साक्षात किसी को गाली दे दी, लेकिन वे साक्षात किसी व्यक्ति को नहीं वर्चुअल पन्‍ने के सामने राय जाहिर कर रहे होते हैं।

नेट गेम के तो कुछ नियम भी हैं, मानवीय वर्चुअल संवाद या भाषायी खेल का कोई नियम नहीं है। यह नियम रहित संवाद है। इसमें संवाद के औपचारिक नियमों का भी पालन नहीं होता। क्योंकि यह वर्चुअल संवाद है। इस संवाद में भाग लेने वाला किसी एक विषय, एक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहता, वह इधर-उधर विचरण करता है, इधर उधर की हांकता है। वर्चुअल संवाद की लगाम उसके हाथ में होती है जिसके पास पाठ के नियंत्रण की चाभी होती है। यूजर के हाथ में इसकी चाभी नहीं होती, आमतौर पर संवाद करने वालों के हाथ में संवाद का नियंत्रण होता है, नेट में ऐसा नहीं होता, नेट संवाद का नियंत्रक वह है जिसके हाथ में पाठ का नियंत्रण है। यह ऐसा संवाद है जो आर्थि‍क उत्‍पादन करता है। इस संवाद में यूजर का प्रत्‍यक्ष अप्रत्‍यक्ष पैसा खर्च होता है, संवाद को संप्रेषित करने वाले सर्च इंजन मालिकों से लेकर नेट सेवा प्रदाता तक सभी को इससे बेशुमार लाभ होता है, यह लाभ छनकर नीचे तक आता है, इस अर्थ में नेट संवाद उत्‍पादक होता है।

नेट संवाद में उम्र, जाति, धर्म, नस्‍ल, सामाजिक हैसियत आदि का कोई महत्‍व नहीं है। इसके बावजूद संवाद में भाग लेने वाले यूजर हमेशा उम्र जाति, धर्म, नस्‍ल, रंग, आदि के सवाल वैसे ही उठाते हैं जैसे वे वाचिक संवाद या लेखन में उठाते हैं। मजेदार बात यह है कि नेट संवाद में लिंग भी नहीं होता। आप यदि संवाद करने वाले को नाम से 'स्‍त्री' या 'पुरूष' के रूप में सम्‍बोधित करते हैं तो यह सही नहीं है, सुविधा के लिए करते हैं तो कोई बात नहीं है। वरना वर्चुअल पन्‍ने पर कोई लिंग नहीं होता खाली संदेश होता है, आप संदेश को सम्‍बोधित करते हैं। वर्चुअल में जो भी बातें करने आया है उसे मरना ही है, वह जीवित नहीं होता। लिखते ही आप मर जाते हैं। खाली लिखा ही बचता है। वह भी जब पाठ का मालिक हटा देता है तो वह भी मर जाता है।

सुविधा के लिए 'ऑनलाइन' जो है वह 'ऑफ लाइन' से भिन्‍न है। आप जैसा ऑनलाइन व्‍यवहार करते हैं, ऑफ लाइन वैसा व्‍यवहार नहीं करते। इन दोनों में बुनियादी अंतर है। ऑनलाइन आप किसी से नहीं मिलते, सिर्फ वर्चुअल पन्‍ने से संवाद रूपी खेल खेलते हैं। इस खेल का सेतु है वेबसाइट। यह वर्चुअल जगह है। ठोस जगह नहीं है। यहां कोई नहीं है। बोलने वाला और सुनने वाला कोई नहीं है, यहां महज वर्चुअल संवाद है। 'ऑनलाइन' में शामिल व्यक्ति की इमेज पाठ से बनती है, पाठ के बाहर से नहीं, लेकिन यथार्थ इमेज के साथ इसका कोई मेल नहीं है। आप कुछ भी कहना चाहेंगे तो आपको मोबाइल, कम्‍प्‍यूटर, और इंटरनेट कनेक्‍शन चाहिए। एक जगह चाहिए, एक पता चाहिए, संपर्क सूत्र चाहिए और यह सब चाहिए वर्चुअल स्‍थान में। इस अर्थ में वर्चुअल संवाद मंहगा है, इसके लिए पैसा चाहिए। यह सारी प्रक्रिया वर्चुअल वातावरण में चल रही है। यथार्थ वातावरण में नहीं। वर्चुअल पन्‍ने पर बन रही लेखकों की पहचान के साथ ही नेट यूजर अपनी पहचान भी जोडता है, इस या उसके बारे में अपनी राय व्‍यक्‍त करता है।

बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो उन्‍हें ‘जन संपादक' और 'जनता का बुद्धिजीवी' मानते हैं। वे ‘जन संपादक' नहीं 'कारपोरेट संपादक' थे। वे जनता के बुद्धिजीवी नहीं 'पावर' के बुद्धिजीवी हैं। 'पावर' का बुद्धिजीवी 'विचार नियंत्रक' होता है, जो दायरे के बाहर जाता है उससे कहता है 'टिकोगे नहीं', यह मर्द भाषा है, नियंत्रक की भाषा है। अलोकतांत्रिक भाषा है।

कारपोरेट पत्रकारिता के बारे में प्रभाष जोशी

हिंदी में सही धारणाओं में सोचने की परंपरा विकसित नहीं हुई है अत: ये सब बातें करना बड़ों का अपमान माना जाएगा। यह अपमान नहीं मूल्‍यांकन है। सच यह है प्रभाष जोशी कारपोरेट मीडिया में संपादक थे। एक ऐसे अखबार के संपादक थे जिसका प्रकाशन हिंदुस्‍तान का प्रमुख कारपोरेट घराना करता है। प्रभाष जोशी ने 'जनसत्‍ता' के 'कारे कागद' स्‍तम्‍भ के एक लेख में जो बातें कहीं हैं, वे जनपत्रकारिता के बारे में नहीं हैं, बल्‍कि कारपोरेट पत्रकारिता के बारे में हैं।

प्रभाष जोशी का 'सामाजिक धर्म 'क्‍या' है ?

जोशी ने लिखा "जनसत्‍ता हिंदी का पहला अखबार है जिसका पूरा स्‍टाफ संघ लोक सेवा आयोग से भी ज्‍यादा सख्‍त परीक्षा के बाद लिया गया।' यह असल में भर्ती की कारपोरेट संस्कृति है। परीक्षा, क्षमता, योग्‍यता और मेरिट आदि कारपोरेट संस्कृति के तत्‍व हैं। 'जनसंपादन कला' के नहीं।

निराला, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी के यहां भर्ती के कारपोरेट नियम नहीं थे। प्रभाष जोशी ने अपने समूचे पत्रकार जीवन में 'अवधारणात्‍मक नियंत्रक' का काम किया है। लिखा है "अखबार मित्र की प्रशंसा और आलोचना के लिए ही नहीं होते। उनका एक व्‍यापक सामाजिक धर्म भी होता है।" यह 'सामाजिक धर्म 'क्‍या' है ? इसे कारपोरेट मीडिया की भाषा में कहते हैं 'अवधारणात्‍मक नियंत्रण'। हिंदी पाठक किन विषयों पर बहस करे, किस नजरिए से बहस करे,इसका एजेण्‍डा इसी 'सामाजिक धर्म' के तहत तय किया जाता है। इस 'सामाजिक धर्म' के बहाने किनका नियंत्रण करना है और किस भाषा में करना है यह भी उन्होंने बताया, लिखा, " वह दलितों-पिछड़ों की राजनीतिक ताकतों, वाम आंदोलनों और प्रतिरोध की शक्‍तियों का भी आकलन मांगता है और जिसकी जैसी करनी उसको वैसी ही देने से पूरा होता है। "

सवाल यह है प्रभाष जोशी के संपादक काल में जनसत्ता ने इन सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों को कितना कवरेज दिया ? कितने विचारकों को स्थान दिया ? किस तरह के पत्रकारों से मूल्‍यांकन कराया ? किसी प्रतिक्रियावादी से वाम का मूल्‍यांकन कराइएगा तो कैसा मूल्‍यांकन होगा ? एक दलित का गैर दलित नजरिए से कैसा मूल्‍यांकन होगा ? एक मुसलमान की समस्‍या पर गैर मुसलिम नजरिया कितना हमदर्दी के साथ पेश आएगा ? इन सभी सवालों पर विचार करने की जरुरत है।

उल्लेखनीय है अमेरिका में काले लोग जब मीडिया में काम करने आए तब ही काले लोगों का सही कवरेज हो पाया। लेकिन क्या हिन्दी प्रेस में ऐसा कुछ घटा ? (क्रमशः)

प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी